गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

काव्य विमर्श

 


ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।

सकल ताड़ना के अधिकारी।।

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

रामचरितमानस की यह एक ऐसी चौपाई है, जिसके चलते गोस्वामी तुलसीदास की ऐसी तैसी करने में सनातन विरोधियों ने कोई कसर उठा नहीं रखी है।

मजे की बात यह है कि इस चौपाई की व्याख्या महाज्ञानी तथा महा अज्ञानी दोनों प्रकार के लोगों ने अपने-अपने ढंग से की है और करते जा रहे हैं। तुलसी को बचाने के लिए कुछ लोग चौपाई को ही गलत बता रहे हैं।

परंतु सच तो यह है कि चौपाई भी सही है। उसका अर्थ भी वही है, जो हम सभी समझते हैं। बस! समझने की जरूरत है।

मुझे बनारस की याद है। प्रसंग 1974 का है। न जाने क्यों और किसने इसी चौपाई के चलते मानस की प्रतियाँ जलाई थीं। बड़ा हंगामा हुआ था। बनारस में एक स्थानीय अखबार निकलता है, जिसका नाम है ‘गांडीव’। उस अखबार में महीनों तक हर हफ्ते बड़े-बड़े पंडित इन पंक्तियों की मनमानी व्याख्याएँ लिखते रहे। ‘ताड़न’ तथा ‘सूद्र गवाँर’ की ऐसी-ऐसी व्याख्याएँ उन दिनों हुई थीं, कि स्वर्ग में बैठे-बैठे तुलसीदास भी माथा पीटते रहे होंगे।

उन व्याख्याओं से तंग आकर अखबार के संपादक को यह घोषित करना पड़ा था कि अब इस बहस और विवाद से संबंधित कोई लेख इस अखबार में नहीं छापा जाएगा।

आज जमाना बदल चुका है। आज अभिव्यक्ति के साधन इतने सुलभ हो चुके हैं कि ऐरा गैरा हर कोई बहती गंगा में डुबकी लगाने का अवसर चूकना नहीं चाहता। इन दो पंक्तियों के अलावा जिसको कुछ नहीं मालूम वह भी तुलसी पर लानत मलानत करने का मौका नहीं छोड़ रहा है।

तुलसी के पक्ष में खड़े ऐसे-ऐसे लोग भी हैं, जो इन पंक्तियों को ही गलत बताते हैं तथा उनमें प्रयुक्त कुछ शब्दों को बदल कर तुलसी का बचाव करने में लगे हैं। इन पंक्तियों का समसामयिक अर्थ निकालने का हास्यास्पद प्रयास करते हैं।

* * * * *

मानस की ये दो पंक्तियाँ भी सही हैं तथा उनसे निकलने वाला अर्थ भी सही है। उन पंक्तियों का अर्थ समझने के लिए लक्षणा-व्यंजना शब्दशक्तियों की जरूरत भी नहीं है। उन पंक्तियों का अर्थ अभिधा में ही है।

समझने की बात यह है कि रामचरितमानस एक कथाकाव्य (महाकाव्य) है। कथा कोई भी हो, उसमें दो विपरीत परिस्थितियाँ तथा चरित्रों के दो विपरीत वर्ग होते हैं। किसी भी प्रकार की साहित्यिक कृति हो, उसमें सत् तथा असत् तत्त्वों का संघर्ष दिखाकर सत् की विजय दिखाना रचनाकार का लक्ष्य होता है।

किसी श्रेष्ठ रचनाकार की सबसे बड़ी कसौटी यह होती है कि अपनी कृति में वह जितना महत्त्व नायक को देता है, उतना ही महत्त्व प्रतिनायक को भी देता है। तभी तो उसके नायक का उदात्त चरित प्रकट होकर सामने आता है और वह महान नायक बन पाता है।

जो लोग साहित्य के मर्म से परिचित हैं, वे यह जानते हैं कि नायक का ही पक्ष रचनाकार का पक्ष होता है। प्रतिनायक का पक्ष रचनाकार का पक्ष नहीं होता। रचनाकार नायक के साथ होता है प्रतिनायक के साथ नहीं।

इसी संदर्भ में मानस की उन पंक्तियों को समझना होगा। यह समझना होगा कि उन पंक्तियों का संदर्भ क्या है।

इन दो पंक्तियों के मर्म को समझने के लिए इन पंक्तियों के आगे-पीछे को समझना होगा। ये पंक्तियाँ मानस के सुंदरकांड की हैं। ये पंक्तियाँ राम के द्वारा नहीं कही गई हैं। ये पंक्तियाँ भयभीत समुद्र के मुख से निकली हैं।

इतना तो हम सभी जानते हैं कि लंका तक पहुँचने के मार्ग में समुद्र आता था। समुद्र को पार करना आसान काम न था। बंदर-भालू सभी समुद्र पार नहीं कर सकते थे। राम चाहते तो समुद्र को सुखा सकते थे। परंतु वे मर्यादा पुरुष थे। शक्तिशाली की मर्यादा यह होती है कि पहले वह शक्ति से काम नहीं लेता। पहले वह विनय से काम लेता है। इसलिए श्रीराम ने समुद्र से रास्ता देने के लिए विनय का सहारा लिया। तीन दिनों तक विनती की। परंतु समुद्र ने अपनी 'जड़ता' के चलते उनके विनय पर ध्यान नहीं दिया। फिर राम क्रोध में आकर लक्ष्मण से कहते हैं कि हे लक्ष्मण, अब अग्निबाण से समुद्र को ही सुखा देता हूँ -

बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।।

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।।

क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।।

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।।

जब समुद्र को लगा कि अब तो अस्तित्व गया, तब –

सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।

* * **

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।

* * **

सुनत बिनीत बचन अति, कह कृपालु मुसुकाइ।

जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।

ज्ञानीजन (?) ‘ताड़न’ के न जाने कितने अर्थ कर रहे हैं, तुलसी बाबा को बचाने के लिए। ऐसा करके वे खुद ही तुलसी बाबा को कठघरे में खड़ा कर दे रहे हैं। जबकि ऐसी बात है नहीं। 'ताड़न' का सीधा अर्थ है किसी के साथ कठोर व्यवहार। (द्रष्टव्य - संस्कृत का प्रतारणा शब्द, जो हिन्दी में सताने के अर्थ में चलता है।)

किसी किसी ने तो इस चौपाई को रहस्यमय बना दिया है। ऐसे लोगों का मानना है कि इस चौपाई का सही अर्थ आज तक कोई कर ही नहीं पाया है।

क्या गजब का खेल है!

 अब समुद्र की जान पर बन आई। जीवन खतरे में पड़ता नजर आया। वह राम की शक्ति को जानता था। परंतु उसमें जड़ता इतनी अधिक थी कि उसने शुरू में राम के विनय को महत्त्व नहीं दिया। परंतु जब उसे लगा कि अब तनिक भी देर हुई तो राम अग्नि बाण से मुझे सुखा डालेंगे। वह हड़बड़ाकर हाथ जोड़कर सामने आया और प्राण बचाने के लिए बोला – ढोल गवाँर सूद्र ......।

प्राणरक्षा के लिए हम सभी बलवान् के सामने ऐसे ही गिड़गिड़ाते हैं। किसी भयानक गुंडे-बदमाश या किसी पुलिस वाले के चंगुल में फँसने पर हम सभी ‘माई-बाप’ करने लगते हैं। पाँव पकड़ते हैं। जो गलती न की हो, वह गलती भी हम मान लेते हैं। बस! किसी तरह से जान बचे।

क्या कोई गुंडा-बदमाश सचमुच हमारा 'माई-बाप' होता है!

बस! वही दशा समुद्र की थी। बोलने में जरा भी चूक हुई कि अग्नि बाण जीवन ले लेगा। उससे बचने का एक ही उपाय कि खुद को अत्यंत दीनहीन बताया जाए।

समुद्र ने उस जमाने में प्रचलित कहावत का सहारा लिया – ढोल गवाँर सूद्र पसु ....।

यह कह कर वह अपनी गलती मान लेता है और प्रभु राम उसके विनीत वचन सुनकर मुस्कुरा उठते हैं।

बात खत्म हो जाती है। संकट टल जाता है।

बाबा तुलसी ने तो कुछ कहा नहीं है। समुद्र ने अपनी प्राणरक्षा के लिए उस जमाने में प्रचलित कहावत का सहारा लिया है।

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 

 

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