गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

संस्मरण

एक अति सहज व्यक्ति : डॉ. शंभुनाथ जी

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

शंभुनाथ जी यानी ‘भारतीय भाषा परिषद्’के निदेशक तथा ‘वागर्थ’ पत्रिका के संपादक शंभुनाथ जी।

वैसे शंभुनाथ जी से मेरा परिचय लगभग पंद्रह वर्ष पुराना है। परंतु उनसे मिलने का सुयोग अभी तक नहीं बन पाया है।

उस समय वे ‘भारतीय नवजागरण’पर अपनी पुस्तक का संपादन कर रहे थे। तब तक उनसे मेरा परिचय नहीं हुआ था। गुजरात के नवजागण पर सामग्री के लिए उन्होंने डॉ. शिवकुमार मिश्र को पत्र लिखा था। मिश्र जी ने मुझसे गुजरात के नवजागरण पर गुजराती में लिखे गए कुछ आलेखों का अनुवाद करने के लिए कहा। मैंने करीब चार या पाँच आलेखों का अनुवाद शंभुनाथ जी को भेजा था। उस काम के सिलसिले में उनके साथ मेरा पत्र-व्यवहार होता था। उस समय मेरे पास फोन नहीं था। पोस्टकार्ड से ही संवाद होता था।

उसके बाद लंबे समय तक हमारे बीच कोई संवाद नहीं हुआ।

वर्षों बाद जब वे ‘हिन्दी साहित्य कोश’का संपादन कर रहे थे, तब पुन: संवाद का सुयोग बना।

इस कोश से संबंधित विज्ञप्ति ‘वागर्थ’ के प्रत्येक अंक में छपती थी।

विज्ञप्ति पढ़कर मैंने उन्हें दिनांक 28/08/14 को एक पत्र लिखा –

श्रीवर डॉ. शंभुनाथजी!

वागर्थ’ पत्रिका में प्रकाशित विज्ञप्ति से ज्ञात हुआ है कि भारतीय भाषा परिषद् की परियोजना के अंतर्गत चार खंडों में प्रकाशित होने वाले ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य कोश’ पर काम चल रहा है।

आपने कोश-निर्माण के संबंध में सुझाव भी आमंत्रित किया है।

निश्चय ही इस प्रकार के ग्रंथ के संपादक के लिए यह चुनौती भरा काम होता है। इसके लिए विविध विषयों के विशेषज्ञों की टीम तैयार करनी पड़ती है। यह भी तय है कि सारे विशेषज्ञों की जानकारी संपादक को होती नहीं है। ऐसी स्थिति में बहुत-से ऐसे लोग ऐसी टीम में शामिल हो जाते हैं, जिनके पास अपेक्षित सामर्थ्य नहीं होता; साथ ही ऐसे लोगों से संपर्क नहीं हो पाता, जो वास्तव में ऐसे काम के लिए योग्य होते हैं। लेकिन यह संपादक की सीमा होती है।

ऐसी स्थिति में मैं एक सुझाव देना चाहता हूँ। परिषद् के पास अपनी वेबसाइट है। प्रत्येक खंड का जितना काम होता चले, उसको वेबसाइट पर रख दिया जाए और यह अपील जारी कर दी जाए कि लोग इस कार्य को पढ़ें और अपने सुझाव दें। सुझाव यदि काम के हुए तो उनको शामिल किया जाए। सारे सुझावों के परिप्रेक्ष्य में कोश को अंतिम रूप दिया जाए।

मेरे सुझाव के अनुसार काम करना समय साध्य और खर्चीला हो सकता है; परंतु ऐसा करने से अधिक बेहतर काम होने की संभावना बढ़ सकती है।

एक बात और -

भाषा विषयक प्रविष्टियों के लिए अगर मेरी सेवा की गुंजाइश हो तो उसके लिए मैं तैयार हूँ।

पत्र मिलने के बाद उनके कार्यालय से एक दिन फोन आया। तब तक मेरे पास मोबाइल आ गया था। पत्र में मैंने अपना मोबाइल नंबर दे रखा था।

उस दिन पहली बात शंभुनाथ जी से मेरी बातचीत हुई थी। उन्होंने मेरे सुझाव को उपयोगी तो बताया। परंतु उस पर अमल करने में व्यावहारिक कठिनाई बताई। एक तो यह कि काम को नियत समय में पूरा करना है और दूसरे यह कि ऐसा करने से प्रविष्टि लेखक तथा सुझाव देने वाले के बीच विवाद भी हो सकता है।

हालाँकि आगे चलकर प्रविष्टियाँ वेबसाइट पर रखी जाने लगी थीं।

बाद में उन्होंने भाषा-व्याकरण संबंधी कुछ विषयों पर मुझे लिखने के लिए दिया। संभवत: मेरी आठ प्रविष्टियाँ उस कोशग्रंथ में शामिल हैं।

उसी दौरान मैंने अपनी तरफ से अनुवाद पर एक आलेख भेजा। बाद में उनके कार्यालय से फोन आया कि अनुवाद पर लिखने के लिए किसी दूसरे को कहा जा चुका है।

फिर वह आलेख मैंने ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित करने के लिए श्री सूर्यनाथ सिंह को भेजा। आलेख पढ़ने के बाद सूर्यनाथ जी ने बताया कि यह आलेख अधिक अकादमिक है। ‘जनसत्ता’ के पाठकों के अनुकूल नहीं है। इस कारण आलेख को प्रकाशित करने में उन्होंने अपनी असमर्थता बताई।

सूर्यनाथ जी से जिस दिन मेरी बात हुई थी, उस दिन शनिवार था।

दूसरे दिन रविवार को करीब साढ़े नौ बजे शंभुनाथ जी का फोन आया। उन्होंने जनसत्ता में छपे में मेरे आलेख को पढ़कर फोन किया था। मुझे लगा, जनसत्ता में ही दो-तीन महीना पहले छपे मेरे ‘मानकीकरण’ वाले आलेख की बात कर रहे हैं। मैं उसी के बारे में उनसे बात करने लगा। फिर उन्होंने बताया कि वे आज के जनसत्ता के साप्ताहिक अंक में छपे आलेख की बात कर रहे हैं। वह अनुवाद वाला आलेख था, जिसे प्रकाशित करने में श्री सूर्यनाथ जी ने एक दिन पहले असमर्थता व्यक्त की थी। बाद में कुछ सोचकर प्रकाशित कर दिया होगा।

अनुवाद पर लिखे गए उस आलेख से शंभुनाथ जी बहुत प्रभावित हुए थे। उस दिन करीब 27 मिनट तक हमारी बातचीत हुई थी। उस आलेख के अलावा दूसरे कई विषयों पर हमारी बातें हुई थीं। मैंने उन्हें बताया कि वह आलेख तो मैंने आपके कोश में प्रकाशन के लिए भेजा था।

उन्होंने कहा, मुझे तो मिला नहीं। उनके कहने से दुबारा उसे भेजा। परंतु किसी कारण से वह आलेख कोश में स्थान नहीं पा सका।

मैं चकित और मुग्ध था कि मुझ जैसे अदने-से व्यक्ति का एक छोटा-सा आलेख पढ़कर इतने बड़े लेखक शंभुनाथ जी ने मुझे फोन किया। उस दिन मैं उनकी सहजता से परिचित और प्रभावित हुआ।

उसके बाद भी कई बार उनके साथ मेरी बातें हुईं।

करीब पाँच साल पहले की बात है। मुझे नवीकरण कार्यक्रम के लिए दीमापुर (नागालैंड) जाना था। गुजरात से हुगली पहुँचने के बाद दीमापुर की गाड़ी करीब चार घंटे के बाद मिलने वाली थी। मैंने सोचा, इतने समय में क्यों न शंभुनाथ जी से मिल लिया जाए। मुझे पता था कि उनका घर स्टेशन के पास ही है। मैंने उन्हें अपना कार्यक्रम बता दिया। उस समय उन्होंने जो बात कही, उसकी कल्पना भी मुझे न थी।

उन्होंने कहा – मेरा नया मकान स्टेशन से बहुत दूर है। इतने कम समय में आप वहाँ से आकर गाड़ी नहीं पकड़ पाएँगे। ऐसा करूँगा कि मैं ही अपने पुराने मकान पर आ जाऊँगा। वहीं आप नहाइए-धोइएगा और मेरे साथ भोजन कीजिएगा। उसके बाद शाम को गाड़ी पकड़ लीजिएगा।

उनका यह कहना मेरे लिए अकल्पनीय था। मेरे साथ उनका एक सामान्य परिचय। फिर भी, मुझसे मिलने के लिए वे अपने पुराने मकान पर आने के लिए तैयार थे। इतना ही नहीं, वहीं नहाने-धोने तथा साथ भोजन करने का न्यौता भी उन्होंने दे दिया।

अब आप कल्पना कर सकते हैं कि शंभुनाथ जी कैसे व्यक्ति हैं। कितने प्यारे! कितने सहज!

किंतु उस दिन उनसे मिलना नहीं बदा था। गाड़ी बहुत देर से हुगली पहुँची थी। ऐसी आशंका उन्होंने खुद व्यक्त की थी और कहा था कि राउरकेला तक गाड़ी समय से चल रही हो तो मुझे फोन कर दीजिएगा।

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315,

आणंद (गुजरात)

 

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