एक मुट्ठी धरती और आकाश
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
क्यों बताया मुझे
कि जा रहे हो?
जब पूछा नहीं था,
आते समय,
कोरा जो मन था,
वही तो मेरा था।
उस पर लकीर खींच डाली,
थोड़ा मेरा पूरा अपना बना डाला।
क्या पूछा था उस समय?
कहना था मुझे भी कुछ
याद करो क्या मुझे मौका दिया था?
फिर क्यों आज जाते समय-
इतनी तामझाम?
सुना है सर्द बहुत है,
तपती रेगिस्तान में,
प्यास लगती है,
पर पानी नदारद है।
कहीं ऐसा तो नहीं मेरी फिक्र
ने कचोटा था तुम्हें,
या फिर दिखाना था
अपनी काबिलियत तुम्हें।
एक मुट्ठी ठंडी धूप,
गर्म चाँदनी का इंतज़ार रहेगा,
मुझे नहीं देखना है रास्ता तुम्हारा,
लेकिन मेरी ओर आनेवाला हर
किवाड़ खुला रहेगा।
चलो तो आज यहीं तक बातें,
तकिए के नीचे नहीं रखी है,
तुम्हारी यादें।
फिर भी अगर याद आई तुम्हारी
मैं आसमान को देख लूँगी।
जो भूले भटके मेरी याद आए तुम्हें,
तो अपनी धरती को याद कर लेना।
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
हैदराबाद
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