चोका
उन्हें प्रणाम!
साँसें जिनकी
सदा ही जपती थी
हिन्दी-प्रेम औ’
कविता-अनुराग
उन्हें प्रणाम!
पिरोती थी सहज
हर्ष-विषाद
जीवन अनुभव
संवेदना को
साहित्य की माला में
उन्हें प्रणाम!
जाने किस तरह!
सरलता से
थी पढ़ती-सुनती
मूक स्वर भी
तरु, पिकी, पृथ्वी के
उन्हें प्रणाम!
यातना के शिविर
हर कदम
मिले उन्हें, फिर भी
थकी न रूकी!
बस चलती रही....
उन्हें प्रणाम!
ज़िंदगी में जो कुछ
उन्होंने पाया
वापस ही लौटाया,
कवितामय
संसार सजाकर
हमें जीने का
फ़लसफ़ा सिखाया
ऐसी विदुषी
को हम करते हैं
बारंबार प्रणाम!
***
हाइकु
रिक्त हुआ!.... ‘सुधा’ कलश
1
लो रिक्त हुआ
अमृत से भरा वो
‘सुधा’
कलश।
2
क्या
कहा? अस्त ?
ना...ना...
कवि रहते
सदा
अमर!
3
सदा
ही दिया
ज्ञान
उन्होंने, आज....
खालीपन
भी !
4
कैसे
संभव?
सुधा
स्वयं ही लीन
पंचतत्त्व
में।
5
बड़ा कठिन
ये
बताना – ‘क्या खोया’?
‘उन्हें’
खोकर।
6
जाना
तो तय
फिर
भी घबराता
मन
बावरा।
7
रह...रह....के
दिल को कचोटतीं
उनकी
यादें!
8
शाख
से झड़ा
सर्वश्रेष्ठ
गुलाब
उजड़ा
बाग ।
9
बिन
बताए
चले
वे चुपचाप.....
कहीं
मिलेंगे?
10
अगली
यात्रा!
अपने
सूरज को
(वे)ढूँढने
चलीं...
11
कहे
स्वयं को
प्रबुद्ध
होकर भी
‘मैं
निर्गुनिया’!
(अंतिम दो
हाइकु में जो भाव है वह सुधा जी के स्वयं के भाव है जो उन्होंने अपनी आत्मकथा – ‘एक
पाती : सूरज के नाम’ में व्यक्त किए
हैं)
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
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