गुरुवार, 31 अगस्त 2023

आलेख

 


भारतीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत गुरु शिष्य परम्परा के संदर्भ में विवेकानंद के विचार

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

सीखना और सिखाना दोनों ही समानांतर चलनेवाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के दो महत्वपूर्ण अंग हैं शिक्षक और शिष्य। अर्थात्, एक व्यक्ति जो सिखाने के लिए तैयार होगा और दूसरा व्यक्ति जो सीखने की इच्छा रखता है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत अमूमन यह मान लिया जाता है कि सारा दायित्व छात्र का है उसे सब कुछ सीख लेना, समझ लेना है और अगर वह सीख नहीं पाता है तो निष्कर्ष रूप में या तो उसे बेवकूफ मान लिया जाता है या फिर उसके शिक्षक को लापरवाह। इससे हुआ क्या है अनादिकाल से शिक्षक अपने को भारी भरकम समझा देने, सीखा देने के गुरु भार के लबादे में अपने आप को ओढ़ा हुआ पाता है, तो छात्र शिक्षक को रोबोटिक यंत्र मान बैठा है। जो, कुछ भी कैसे भी समझा ही देगा, सीखा ही देगा। यह एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक बीमारी है जिसने शिक्षा के वास्तविक आनंद का ही नाश कर दिया है और कहीं न कहीं गुरु शिष्य परम्पराकी पवित्रता और रोमांच का भी नाश हुआ है।

सा विद्या विमुक्तयेमें विद्या जिस अज्ञानता के अंधकार से मुक्त करने की क्षमता रखने के साधन के रूप में दिखाई पड़ती है वही विद्या तो आज गुगल, व्हाट्सऐप, यू ट्यूब के ज़माने में खुद ही अंधेरे के गर्त में कहीं डूब गई है। टेक्नोलॉजी के साथ चलना गलत नहीं लेकिन टेक्नोलॉजी को पाकर आज के युवा शिष्य और गुरुओं की नई पीढ़ी भारतीय शिक्षा प्रणाली के मूलभूत सिद्धांतों को भूल गई है। शिक्षा का अर्थ केवल पास हो जाना या नौकरी प्राप्ति नहीं है। शिक्षा जीवन को अनुशासित और आत्मनियंत्रित करने का महत्वपूर्ण साधन है। शिक्षा का प्रथम लक्ष्य या तत्व ही होता है सत्, प्रकाश एवं प्रकाश अमरत्व की ओर विद्यार्थी को ले जाना। सत्, सृष्टि का मूल कारण, ज्ञान या प्रकाश उस सत्  को जानने की प्रक्रिया तथा अमरतत्व अर्थात्, आचरण की पवित्रता के द्वारा जाने हुए ज्ञान को जीवन में समाहित करना।

यहाँ स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा संबंधी विचार को समझना आवश्यक हो जाता है। उनका कहना था, ‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है। समस्त अध्ययनों का अंतिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है। जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक बन सके, उसी का नाम शिक्षा है

आज के समय में इस कथन की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है और गुरु की गुणवत्ता को बढ़ाने का समय भी आ गया है। गुरु को भी यह समझना होगा कि उपदेश देने का ज़माना गया आज की युवा पीढ़ी न तो भयभीत है और न ही चिंतित। इनकी महत्वाकांक्षाएँ अधिकाधिक हैं। ऐसी ही पीढ़ी देशोद्धार का कार्य और अधिक सटिक तरीके से कर सकती है। शर्त यह है कि उन्हें सही मार्गदर्शन मिले। स्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था,

‘THREE THINGS ARE NECESSARY TO MAKE EVERY MAN GREAT, EVERY NATION GREAT:

1.        CONVICTION OF THE POWERS OF GOODNESS.

2.        ABSENCE OF JEALOUSY AND SUSPICION.

3.        HELPING ALL WHO ARE TRYING TO BE AND DO GOOD’.

ऐसी आदतों को केवल किताबी विद्या के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती है। ऐसी शिक्षा में शिक्षित होने के लिए भारतीय प्राचीन ज्ञान प्रणाली की महत्वपूर्ण नियम ब्रम्हचर्यको जीवन में अपनाना होगा। शिष्य और गुरु दोनों के लिए ही यह महत्वपूर्ण चरण है। गुरु केवल ज्ञान का वाहक नहीं बल्कि पथ प्रदर्शक भी होता है। हाँ, स्वामीजी रुष्ट थें हमारी विश्वविद्यालयों की शिक्षा पद्धति को देखकर और उन्होंने सन् 1897 में मद्रास में अपने व्यक्तव को रखते हुए कहा,

‘MY IDEA OF EDUCATION IS PERSONAL CONTACT WITH THE TEACHER- GURUGRHA VASA. WITHOUT THE PERSONAL LIFE OF A TEACHER THERE WOULD BE NO EDUCATION. TAKE YOUR UNIVERSITIES. WHAT HAVE THEY DONE DURING THE FIFTY YEARS OF THEIR EXISTENCE? THEY HAVE NOT PRODUCED ONE ORIGINAL MAN. THEY ARE MERELY AN EXAMINING BODY. THE IDEA OF THE SACRIFICE FOR THE COMMON WEAL IS NOT YET DEVELOPED IN OUR NATION’.

देखिए, कितना समय बदल गया है। ऐसा नहीं कि भारत के शिक्षक और विद्यार्थी कमज़ोर हैं। लेकिन हमें यह मानना ही पड़ेगा कि गुरु और शिष्य संबंध आज ढुलमुल स्तर पर पहुँच गया है। शिक्षा के स्तर को सुधारने से पहले इस संबंध को कैसे सुधारे इस विषय पर केवल चर्चा करना काफ़ी नहीं होगा, सुधरे रूप को कार्यान्वयन में यथाशीघ्र लाना आवश्यक है।

 


डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हिंदी प्राध्यापिका

भवन्स विवेकानंद कॉलेज

सैनिकपुरी, हैदराबाद

 

 

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