गुरुवार, 31 अगस्त 2023

सामयिक टिप्पणी

हिमालय का दर्द :

तुम अपनी मुहब्बत वापस लो!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

जी हाँ, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में महावृष्टि और भूस्खलन के प्रलयंकर दृश्य देखकर तो यही लगता है कि कालिदास के देवतात्मा नगाधिराज हिमालय की आत्मा यही चीत्कार कर रही होगी –

'अब नज़अ का आलम है मुझ पर/ तुम अपनी मुहब्बत वापस लो;/

जब कश्ती डूबने लगती है/ तो बोझ उतारा करते हैं!' (क़मर जलालवी)

सच ही, हिमालय डूब रहा है! इस प्रलय-वेला में उसका बोझ उतारने की ज़रूरत है। इसीलिए तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिमालय क्षेत्र की 'वहन क्षमता' के बारे में चिंता व्यक्त की है। दरअसल हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर हमने जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और अति-पर्यटन का भारी बोझा लाद  दिया है जिससे वह भीषण दबाव और तनाव महसूस कर रहा है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हाल की बारिश से हुई क्षति इस क्षेत्र की वहन क्षमता के अतिक्रमण का ही अनिवार्य कर्म-फल है!

वहन क्षमता (कैरींग कैपेसिटी) वह अधिकतम जनसंख्या है जिसे कोई पारिस्थितिकी तंत्र बिना नष्ट हुए बनाए रख सकता है। हिमालय के मामले में, इसका मतलब लोगों की उस अधिकतम संख्या से है जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना इस क्षेत्र में रह सकते हैं। ऐसी कई चीजें हैं जो वहन क्षमता निर्धारित करती हैं, जिनमें पानी, भोजन और भूमि की उपलब्धता, साथ ही अपशिष्ट को अवशोषित करने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र की क्षमता शामिल है।

हिमालय एक जल-समृद्ध क्षेत्र है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर खतरनाक दर से पिघल रहे हैं। इससे पीने, सिंचाई और जल-विद्युत उत्पादन के लिए पानी की उपलब्धता कम हो रही है। इसके अलावा, वनों की कटाई से मिट्टी में जमा पानी की मात्रा भी कम हो रही है। इससे यह क्षेत्र बाढ़ और भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील हो रहा है।

अतिपर्यटन भी हिमालय की वहन क्षमता पर दबाव डाल रहा है। यह क्षेत्र भारत के कुछ सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों जैसे चार धाम, शिमला, मनाली और धर्मशाला का घर है। पर्यटकों की आमद बुनियादी ढाँचे, जल आपूर्ति और अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों पर दबाव डाल रही है। इससे पर्यावरण का क्षरण हो रहा है और स्थानीय समुदायों का विस्थापन हो रहा है।

उत्तराखंड और हिमाचल  में हाल ही में हुई बारिश से हुई क्षति बड़े खतरे की घंटी है। यह स्पष्ट है कि क्षेत्र अपनी वहन क्षमता तक पहुँच रहा है। यदि आज ही पर्यावरण पर तनाव को कम करने के लिए कार्रवाई नहीं की गई, तो भविष्य में और अधिक भयानक आपदाएँ झेलनी पड़ेंगी।

हिमालय की वहन क्षमता पर तनाव को कम करने के लिए कुछ चीज़ें  की जानी ज़रूरी हैं। जैसे, ग्लेशियरों से पानी की माँग को कम करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश करना, पानी को संग्रहित करने और मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद के लिए पेड़ लगाना, क्षेत्र में पर्यटकों की संख्या कम करने के लिए पर्यटन को विनियमित करना और टिकाऊ बुनियादी ढाँचे का विकास करना जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना आबादी की जरूरतों को पूरा कर सके।

इसके अलावा भी  हिमालयी क्षेत्र में वहन क्षमता के मुद्दों के समाधान के लिए यह ज़रूरी होगा कि क्षेत्र के लिए एक व्यापक मास्टर प्लान विकसित किया जाए जो प्रत्येक क्षेत्र की वहन क्षमता को ध्यान में रखे। संवेदनशील क्षेत्रों में विकास को प्रतिबंधित करने के लिए ज़ोनिंग नियमों को लागू करना होगा। जैविक खेती और कृषि वानिकी जैसी टिकाऊ भूमि उपयोग प्रथाओं को बढ़ावा देना होगा। प्रदूषण कम करने के लिए अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में सुधार करना होगा। तथा पर्यावरण की रक्षा के महत्व के बारे में जनता को शिक्षित करना होगा। ये कदम उठाकर हम भावी पीढ़ियों के लिए हिमालय क्षेत्र की स्थिरता सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं।

कुल मिलाकर, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का हिमालयी क्षेत्र की वहन क्षमता के बारे में चिंतित होना सही है। इस समूचे इलाके को अवश्यंभावी प्रलय से बचाना अब इसकी सुरक्षा के लिए कार्रवाई करने की हमारी क्षमता पर निर्भर है।

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डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

 

 

 

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