‘गोदान’ से...
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की कालजयी कृति ‘गोदान’ अपने वैशिष्ट्य से अभिभूत करती है । उसके सौन्दर्य का
सांगोपांग निरूपण सरल नहीं । कथानक तत्कालीन समाज के ग्राम्य और शहरी परिवेश को
साकार करता है। उपन्यास में होरी और धनिया की कथा के साथ-साथ कृषक ,
साहूकार , जमींदार , पण्डित , मिल मलिक, मजदूर, डॉक्टर, अधिवक्ता , सम्पादक , प्रोफेसर ,सरकारी कर्मचारी ,क्या कहिए विविध पात्रों का विस्तृत संसार रचा गया है ।
पात्रों के अनुकूल संवाद तथा भाषा ऐसी कि लगे लेखक ने प्रत्येक चरित्र की आत्मा से
सायुज्य स्थापित कर उनका मनोविज्ञान जान-समझकर संवाद लेखन किया हो । भाषा-शैली
चलचित्र की भाँति दृश्य उपस्थित करने में समर्थ है । ‘गोदान’ के समाज में
व्याप्त तमाम कमियाँ-रूढियाँ, शोषण, कुटिलता, धूर्तता, सरलता प्रायः सभी पर्याप्त चर्चा एवम् लेखन का विषय बने हैं
। इन सभी का यथातथ्य निरूपण करते प्रेमचंद की भावपूर्ण,
चटुल उक्तियाँ उपन्यास के कलेवर में और अधिक सौन्दर्य का
आधान करती हैं । उनमें से ही कुछ उक्तियों को निदर्शन स्वरूप प्रस्तुत करना यहाँ
अभीष्ट है –
1- आशा में कितनी सुधा है । पृ.7
2-गरीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है तो स्वार्थ के लिए,
पेट के लिए ...बड़े आदमियों की ईर्ष्या केवल आनन्द के लिए है
। पृ.13
3-जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं , वह और चाहे कुछ हो आदमी नहीं है । पृ. 14
4-जीतकर आप अपनी धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैं,
जीत में सब कुछ माफ है । हार की लज्जा तो पी जाने की ही
वस्तु है। पृ.34
5-द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी
मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह जाल
क्रीड़ा की वस्तु है। पृ.41
6-बेईमानी का धन जैसे आता है वैसे ही जाता है। पृ.43
7-मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है। पृ.55
8-उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है । कर्म करना प्राणिमात्र
का धर्म है। पृ.56
9-बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं ।समाजवाद का
यही आदर्श है। हम साधु-महात्मा के आगे इसीलिए सर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल
है। पृ.58
10-लिखते तो वह लोग हैं जिनके अंदर कुछ दर्द है,
अनुराग है, लगन है, विचार है । जिन्होनें भोग और विलास को जीवन का लक्ष्य बना
लिया,
वह क्या लिखेंगे। पृ.60
11- रूढियों के बंधन को तोड़ो और मनुष्य बनो,
देवता बनने का ख्याल छोड़ो । देवता बनकर तुम मनुष्य न रहोगे।
पृ.97
12-कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता ।
पृ.110
13-आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है । उसके सीधेपन का फल यही
होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं। पृ.139
14-मन पर जितना ही गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी
ही गहरी होती है। पृ.143
15-स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान है,
शान्ति सम्पन्न है, सहिष्णु है । पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह
महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं,
तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की
ओर,
जो सर्वांश में स्त्री हो । पृ.157
16-प्रेम जब आत्मसमर्पण का रूप लेता है,
तभी ब्याह है, उसके पहले ऐयाशी है । पृ.158
17-सत्य की एक चिंगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है।
पृ.170
18-मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना,
सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है । एक शब्द में उसे लय
कहूँगा-जीवन का, व्यक्तित्व
का और नारीत्व का । पृ.214
19-नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है । परीक्षा गुणों को अवगुण,
सुन्दर को असुन्दर बनाने वाली चीज है,
प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुन्दर को सुन्दर। पृ.338
20-प्रेम में कुछ मान भी होता है,
कुछ ममत्व भी । श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने
मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है। प्रेम अधिकार करना चाहता है,
जो कुछ देता है उसके बदले में कुछ चाहता भी है । श्रद्धा का
चरम आनन्द अपना समर्पण है, जिसमें अहम्मन्यता का ध्वंस हो जाता है । पृ.368
21-सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है,
दुख में कुछ और । पृ.378
कहाँ तक कहा जाए उपन्यास पदे-पदे सुन्दर,
मोहक उक्तियों से सज्जित है । ‘विवाह’ की अवधारणा पर उपन्यासकार की उक्ति है -
“वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपने गुलाबी मादकता के
साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रणजीत
कर देती है । फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है , क्षण-क्षण पर बगुले
उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और
वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती
है ,
शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का
वृत्तांत करते और सुनते हैं तटस्थ भाव से , मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं,
जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता।” पृ . 33
इसी प्रकार ‘वीमन्स लीग’ की सभा में प्रो. मेहता का कथन है- “ स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है ,
जितना प्रकाश अँधेरे से । मनुष्य के लिए क्षमा ,
त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं । नारी इस आदर्श
को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म , अध्यात्म और ऋषियों का आश्रय लेकर उस लक्ष्य पर पहुँचने के
लिए सदियों से जोर मार रहा है , पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ उसका सारा अध्यात्म और
भोग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ ।” पृ.172
जिस पर मिल मालिक मि. खन्ना की पत्नी गोविंदी का उत्तर एक
अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है – “भूल जाएँ कि
नारी श्रेष्ठ है और सारी जिम्मेदारी उसीपर है। श्रेष्ठ पुरुष है और उसीपर
गृहस्थी का सारा भार है । नारी में सेवा, संयम और कर्त्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है । अगर उसमें
इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा । नारियों में जो आज यह विद्रोह है
इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है ।”
नि:सन्देह ‘गोदान’ भाषा एवं भावगत सौन्दर्य का ऐसा अगाध सागर है जिसके मोतियों,
रत्नों का परिगणन असम्भव है।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
वापी,
गुजरात
बहुत बढ़िया। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आदरणीया 🙏
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