परामर्शक
की कलम से.......
डॉ. हसमुख परमार
पत्रकारिता संबंधी चर्चा में महात्मा गाँधी
एक जगह कहते हैं - The objective of Journalism is Service.
पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य सेवा है । यहाँ सेवा से आशय रोजगार संबंधी
व्यवसाय-नौकरी नहीं बल्कि मानव सेवा है । मानव सेवा ही पत्रकारिता का एकमात्र धर्म
है, मुख्य कर्तव्य व दायित्व है । हिन्दी के प्रख्यात पत्रकार बाबूराव विष्णु पराडकर के शब्दों में- “ सच्चे भारतीय पत्रकार के लिए पत्रकारिता केवल
एक कला या जीविकोपार्जन का साधन मात्र नहीं होना चाहिए, उसके लिए वह कर्तव्य-साधन
की एक पुनीत वृत्ति भी होनी चाहिए । वस्तुतः पत्रकारिता एक मिशन है और इस मिशन के
अंतर्गत जनता की सेवा-भावना ही प्रधान होती है। ”
हम देखते हैं कि वर्तमान समय में पत्रकारिता की विशेष पहचान एक व्यवसाय के
रूप में बन गई है। इतना होते हुए भी ऐसा नहीं है कि सेवा भावना के अपने मूल
उद्देश्य से वह बिल्कुल विमुख हो गई हो ।
आज प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया से संबंधित असंख्य पत्र-पत्रिकाओं के
संपादन एवं लेखन से जुडे लोग अपने इस व्यवसाय के जरिए अपनी मानव-हित –साधक की
भूमिका का निर्वाह बराबर कर रहे हैं। अन्य क्षेत्रों से संबद्ध पत्रकारिता की तरह
ही साहित्यिक पत्रकारिता भी इस भूमिका के निर्वाह में पीछे नहीं रही है। और कैसे
पीछे रह सकती है! जिस विषय से संबद्ध यह पत्रकारिता है उस ‘साहित्य’ शब्द की व्युत्पति
है – ‘ सहितस्य भाव: साहित्यम् ।’ यहाँ ‘सहित’ का एक अर्थ ‘ हितेन सह सहितम्’ मतलब
साहित्य का एक महान उद्देश्य यह भी है कि वह किसी न किसी रूप में लोक का, मनुष्य
जीवन का हित संपादित करें।
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास
में ऐसे अनेक नाम मिलते हैं, जिनका पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य और साहित्य के
माध्यम से मानव जाति की सेवा को छोड़कर और कोई उद्देश्य नहीं रहा। ये ऐसे साहित्यसेवी
और समाजसेवी थे जिनके लिए पत्रकारिता व्यवसाय तथा व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं से मुक्त महज एक सेवायज्ञ था, एक मिशन था। इस प्रसंग में उदहारणतया प्रेमचंद
को याद कर सकते हैं, जो अपनी आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के बावजूद अपने ‘हंस’
नामक पत्र का संपादन घाटा उठाकर भी करते थे। “प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति निरंतर
गिरती गई, आखिरकार 4 जुलाई, 1936 को ‘हंस’ का संपादन भार भारतीय साहित्य परिषद ने
ले लिया । उन्हीं दिनों सेठ गोविंददास का एक नाटक ‘ स्वातंत्र्य सिद्धान्त’
‘हंस’ में प्रकाशित हुआ, जिससे ‘हंस’ ब्रिटिश
शासन का कोपभाजन हुआ । ‘ हंस’ से एक हजार
रूपये की जमानत माँगी गई । साहित्य परिषद ने पत्र को ही बंद कर दिया । प्रेमचंद जी
उछल पड़े कि भारतीय परिषद को बिना प्रेमचंद की सम्मति के ‘हंस’ बंद करने का अधिकार
नहीं है, ‘हंस’ तो मेरा तीसरा बेटा है, अत: उन्होंने शिवरानी से कहा - रानी तुम
हंस की जमानत भर दो, चाहे मैं रहूँ या न रहूँ, हंस चलेगा । यदि मैं जिन्दा रहा तो
सब प्रबंध कर लूँगा, यदि मैं चल दिया तो मेरी यादगार होगी ।” ( युगनिर्माता
प्रेमचंद तथा कुछ अन्य निबंध, डॉ.पारूकांत देसाई, पृ-77)
अन्य विषयक्षेत्रों की पत्रकारिता की तरह
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के भी विकास-क्रम में हम देखते हैं कि पिछले
डेढ़-दो दशकों में पारंपरिक जन संचार माध्यमों से संबद्ध पत्रकारिता के साथ-साथ
डिजीटल पत्रकारिता, जिसे हम वेब
पत्रकारिता, ऑनलाइन पत्रकारिता, इंटरनेट पत्रकारिता जैसे अभिधानों से पहचानते हैं,
जिसके विकास का दायरा काफी बढ़ रहा है । विगत लगभग तीन वर्षों से डॉ.पूर्वा
शर्मा द्वारा संपादित और नियमित रूप से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘शब्द-सृष्टि’
भी आज के कम्प्यूटर-इंटरनेट व सोशल मीडियाके बढ़ते प्रचार-प्रसार के ही दौर की देन
है । आज इस ई- पत्रिका का सैंतीसवाँ अंक
प्रकशित हो रहा है । इन सैंतीस अंकों में से एक दर्जन से भी अधिक विशेषांक हैं। प्रकाशन की नियमितता के साथ साथ अंकों की विषय सामग्री में वैविध्य व
विस्तार, विविध स्तंभों के अनुकूल व अनुरूप विषयवस्तु हर अंक की शोभा व गुणवत्ता
में अभिवृद्धि करती है। यह सब संपादिका की
मेहनत, लगन, उत्साह साथ ही लेखन-सृजन-संपादन के प्रति इनकी प्रतिबद्धता का प्रतिफल
है ।
शब्द-सृष्टि के बतौर एक परामर्शक होने के नाते, इसके हर अंक की सामग्री को प्रकाशन पूर्व एक बार देखने-जोखने के कार्य से भी जुड़ा रहा हूँ। मैंने पहले भी कहा है कि इस पत्रिका के हर अंक के कलेवर में काफी विस्तार, गहराई तथा वैविध्य रहता है । साहित्य यानी साहित्यिक रचनाओं के साथ साथ भाषा, साहित्य एवं समसामयिक स्थितियों पर विचार विमर्श से संबद्ध विषय वस्तु हर अंक को मजबूती प्रदान करती है। भाषा- साहित्य-शोध-समीक्षा को लेकर अपनी लेखनी चलानेवाले अनेकों साहित्यसेवियों-भाषासेवियों का इस पत्रिका के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र, डॉ. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, ज्योत्स्ना प्रदीप, अनिता मण्डा, प्रीति अग्रवाल, त्रिलोकसिंह ठकुरेला, सत्या शर्मा ‘कीर्ति’, सुदर्शन रत्नाकर, राजा दुबे, डॉ. भावना ठक्कर, कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’ प्रभृति की कलम तो नियमित रूप से शब्द-सृष्टि के लिए चलती रही है। पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ भी इन सर्जक-समीक्षकों तथा संपादिका का उत्साहवर्धन करती रहती हैं ।
प्रस्तुत अंक हिन्दी कथा साहित्य के पुरोधा
मुंशी प्रेमचंद की जन्म जयंती के अवसर पर उनके व्यक्तित्व व कृतित्व के विविध
पहलुओं पर विचार विमर्श करते हुए इस युगनिर्माता लेखक को जन्मदिन की शुभकामनाएँ
तथा उन्हें स्मरणांजलि–शब्दांजलि देने का एक स्तुत्य प्रयास है ।
इस
विशेषांक तथा शब्द-सृष्टि की विगत तीन वर्षों की सुखद यात्रा के एवज में मैं संपादिका
डॉ. पूर्वा शर्मा तथा पत्रिका के लेखन का हिस्सा रहे तमाम सर्जकों-समीक्षकों-चिंतकों
को हार्दिक बधाई देता हूँ। साथ ही यह कामना भी करता हूँ कि शब्द-सृष्टि की नियमितता, स्तरीयता तथा गुणवत्ता
आगे भी बनी रहे।
डॉ. हसमुख परमार
प्रोफ़ेसर
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय,
वल्लभ विद्यानगर
जिला- आणंद (गुजरात) – 388120
सार्थक , सटीक। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएं'गागर में सागर' समान सुंदर प्रस्तुति सर 💐
जवाब देंहटाएंस्पष्ट एवं सार्थक प्रस्तुति 💐💐💐
जवाब देंहटाएंગુજરાતી સાહિત્યમાં કહિયે તો .' મુક્તક ' જેવી સરળ સમજૂતી ટુંકમાં આખોય સાર આપી દિધો ખૂબ સરસ સર 👍🏻🙏🏽
जवाब देंहटाएंसुयोग्य परामर्शक एवम् विदुषी संपादिका द्वारा साहित्य के प्रति पूर्ण निष्ठा , समर्पण भाव से किए कार्यों का 'मणिकांचन योग' 'शब्द-सृष्टि' की स्तरीयता का मूल है । हृदय से बधाई एवम् शुभकामनाएँ 💐🙏
जवाब देंहटाएंबतौर परामर्शक आपके विचार एक पत्रकार की उच्च मानवीयता एवं आधुनिकता के द्योतक हैं। लोग आज अपने आपको आधुनिक कह तो रहे हैं लेकिन हकीकत में वे या तो मध्यकालीन जीवन मूल्यों में जकड़े हुए है या उत्तर आधुनिकता के सबसे संकीर्ण मूल्य( स्वार्थ परायणता) रूपी काल का आहार बनते जा रहे हैं।
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