सोमवार, 31 जुलाई 2023

संस्मरण

 


प्रेमचंद : एक संस्मरण

हरिवंश राय बच्चन

आधुनिक गद्य में सेवा सदनऔर पद्य में भारत-भारतीमें कुछ ऐसी विशेषता थी कि प्रकाशित होते ही ये पुस्तकें प्रत्येक हिंदी प्रेमी के पास पहुँच गई । सेवासदनको पहली बार पढ़ने का अवसर मुझे तब मिला था, जब मैं अंग्रेजी की सातवीं या आठवीं कक्षा में पढ़ता था। पुस्तक मुझे अपने किसी पड़ोसी से मिली थी। रोचक इतनी थी कि जब तक वह समाप्त न हो गई, मैं और कोई काम न कर सका। शायद उसे समाप्त करने में मुझे तीन दिन लगे थे। अपने समय को तीन दिन तक नष्ट करने के लिए मुझे घर पर पढ़ानेवाले पंडित जी की डाँट-फटकार भी सहनी पड़ी थी। उसके कई स्थान मैंने बार-बार पढ़े थे। अपने कई मित्रों से मैंने उसकी बड़ाई की थी और उसे पढ़ने का अनुरोध किया था। प्रेमचंदनाम से वह मेरा प्रथम परिचय था और उस प्रथम परिचय से ही मैं प्रेमचंद का प्रेमी बन गया । जब पुस्तकालयों में जाता तो उनकी लिखी हुई किताबों की खोज करता और निराश होता। उस समय भारती-भवन का पुस्तकालय ही प्रयाग में हिंदी पुस्तकों के लिए सबसे बड़ा समझा जाता था और वहाँ प्रेमचंदजी की रचनाएँ न थीं। अप-टू-डेटतो हमारे पुस्तकालय आज भी नहीं हैं, पंद्रह वर्ष पहले की तो बात ही और थी। पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ पढ़ता और उसी से संतोष करता।

हमारी कुछ ऐसी प्रकृति होती है कि जब हम किसी प्रसिद्ध व्यक्ति का नाम सुनते हैं, उसकी रचनाएँ देखते हैं, या उसके कार्य के विषय में सुनते हैं। तो उसके रूप की कल्पना करना प्रारंभ कर देते हैं। शायद हमारी उसी आकांक्षा की पूर्ति करने के लिए आधुनिक समय के पत्रकार शीघ्रातिशीघ्र उस व्यक्ति का चित्र भी जनता के सामने उपस्थित कर देते हैं, जो अपने किसी कार्य के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। प्रेमचंद जी कैसे होंगे, इसकी कल्पना करनी मैंने आरंभ कर दी थी। प्रेमचंद – गोरे होंगे, दुबले-पतले होंगे और सुंदर होंगे।  नाम में आया प्रत्येक अक्षर जैसे मेरी कल्पना को कुछ-कुछ संकेत-सा दे रहा था। प्रेमचंद जी का चित्र कुछ विलंब से ही जनता के सामने आया और उनका पहला चित्र जो मैंने देखा, वह था, ‘रंगभूमिके प्रथम भाग में। चित्र देखकर मुझे कुछ निराशा हुई। फिर आश्चर्य हुआ। अरे, ऐसे साधारण-से दिखाई देने वाले आदमी ने यह असाधारण पुस्तक लिखी है।

प्रेमचंद जी को साक्षात् देखने का अवसर मुझे १९३० में मिला। उस समय मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में एम० ए० ( प्रीवियस) में पढ़ रहा था। उसी वर्ष पहले-पहल विश्वविद्यालय की हिंदी-परिषद ने विद्यार्थियों में गल्प लिखने की रुचि उत्पन्न करने के लिए गल्प सम्मेलन करना निश्चित किया था। प्रतियोगिता में केवल विश्वविद्यालय के विद्यार्थी ही भाग ले सकते थे। सूचना दी गई थी कि सम्मेलन के सभापति श्री प्रेमचंद जी होंगे। इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ही मैंने अपनी पहली कहानी लिखी ।

निश्चित समय से पहले ही हाल विद्यार्थियों से भर गया था। मेरे ही समान अनेक विद्यार्थियों में श्री प्रेमचंद जी को देखने की उत्सुकता थी। उस समय तक वे उपन्यास सम्राट के नाम से विख्यात हो चुके थे। उनके साथ छत्र-चँवर की प्रत्याशा तो शायद ही किसी ने की हो, पर ऐसा तो प्रायः सभी ने सोच रक्खा था कि उनकी सूरत शक्ल-पोशाक में कुछ ऐसी विशेषता होगी कि लोग उन्हें देखते ही पहचान लेंगे । विद्यार्थियों के अतिरिक्त नगर के अन्य साहित्य-प्रेमी भी निमंत्रित किए गए थे। आगंतुकों में हमारी दृष्टि किसी प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व की खोज कर ही रही थी कि श्रीयुत धीरेंद्र वर्मा ने ताली बजाई और उनके संकेत पर सारा हाल तालियों से गड़गड़ा उठा। प्रेमचंद जी आ गए थे। सभापति के लिए प्रस्ताव हो जाने पर वे मेज के सामने बीच की कुर्सी पर आकर बैठ गए। मेरे कानों में कई बार धीमे-धीमे स्वर में आवाज आई – अरे, यही प्रेमचंद जी हैं! अरे, यही प्रेमचंद जी है!

प्रेमचंद जी धोती के ऊपर खुले कालर का गरम कोट पहने हुए थे। जाड़े के दिन थे। नीचे बास्कट भी थी। सिर खुला था। उन्हें देखकर मुझे मालूम हुआ कि जो चित्र मैंने उनका देख रक्खा था, उसकी अपेक्षा वे मेरी प्रथम कल्पना के अधिक समीप थे। उस समय वे घनी-लंबी मूँछें रखे हुए थे।

गल्पें पढ़ी गई। मुझे प्रथम पुरस्कार मिला था पर प्रेमचंद जी को द्वितीय पुरस्कार विजेता की कहानी अधिक पसंद आई थी। सम्मेलन के पश्चात मेरा परिचय उनसे कराया गया। कहानी पढ़ने की मेरी रीति को उन्होंने बहुत पसंद किया था। साथ ही सुनाई जाने वाली कहानी को सफल बनाने के कई गुर भी उन्होंने मुझे बताए थे। जब मैंने उन्हें बतलाया कि यह मेरी पहली ही कहानी है तो उन्हें आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुझे बराबर लिखते रहने की सलाह दी। हम लोगों ने उन्हें बड़ी देर तक घेरे रखा, तरह-तरह के प्रश्न किए और सभी का उन्होंने उत्तर दिया। उनकी बातचीत में उर्दू के शब्द बहुत आते थे और सुनकर हमें आश्चर्य होता था कि ये हिंदो लिखते कैसे होंगे ? प्रेमचंद जी चले गए और उनकी सादगी, उनकी सरलता, उनकी मिलनसारी सदा के लिए हमारे हृदय में स्थान बना गई। उनके चले जाने पर भी हमारे मन में यहो प्रश्न उठता रहा, क्या हमने सचमुच प्रेमचंद को देखा ?

कुछ अपनी सफलता, कुछ प्रेमचंद जी का प्रोत्साहन, कुछ बेकारी — सबने मुझे साल-भर कहानी लिखने में सहायता दी। दूसरे वर्ष फिर गल्प सम्मेलन हुआ। मुझसे भी कहानी माँगी गई थी, यद्यपि अब मैं विश्वविद्यालय का छात्र न था। मेरी कहानी उस बार भी सर्वोत्तम रही और परिषद वालों ने उसे प्रेमचंद जी के पत्र हंसमें भेज दिया। कहानी प्रेमचंद जी को पसंद आई और उसे उन्होंने अपने विशेषांक में स्थान दिया मेरे पास उन्होंने पत्र लिखा, तुमने वर्ष भर में काफी उन्नति की है, ‘हंसके लिए कुछ भेजते रहा करो। मैंने शीघ्र ही दूसरी कहानी भी भेजी। कहानी पहली-सी अच्छी न थी। प्रेमचंद जी ने मुझे अंग्रेजी में पत्र लिखा । कहानी के विषय में लिखा था : “I hope you won’t mind if I take the liberty of making certain changes in your story. अर्थात्, मैं आशा करता हूँ,  यदि मैं तुम्हारी कहानी में कहीं-कहीं कुछ परिवर्तन करने की स्वतंत्रता ले लूँ तो तुम बुरा न मानोगे ।

हिंदी का अदना-से-अदना संपादक यह अधिकार लिए बैठा है कि जिस लेख को जैसा चाहे घटाए बढ़ाए, तोड़े-मरोड़े, और वह अपने इस अधिकार का इच्छानुसार उचित-अनुचित उपयोग किया करता है। कहानी प्रधान-पत्र के लिए प्रेमचंद जी से अधिक अधिकारी संपादक कौन हो सकता था ? मुझसे अधिक नगण्य लेखक भी कौन हो सकता था ? फिर भी कहानी में परिवर्तन करने की उन्होंने मेरी अनुमति चाही । प्रेमचंद जी के स्वभाव में बड़ी विनम्रता थी । अपने बड़प्पन का उन्हें कभी भी ध्यान न होता था । वे कितने बड़े हैं, इसे वे न जानते थे और मेरी समझ में तो उनका यह न जानना कुछ दोष की सीमा तक पहुँच गया था। पिछले दिनों जब कुछ नासमझ लोगों ने उनके ऊपर आक्षेप करना आरंभ किया तो उन्हें चाहिए था कि हाथी के समान गंभीर गति से वे चले जाते और कुत्तों को भूँकने देते। प्रेमचंद जी हाथी तो थे, पर यह न जानते थे कि मैं हाथी हूँ, और इसी कारण वे कभी-कभी अपने क्षुद्र विरोधियों से उलझ पड़ते थे। हाथी का अपने को हाथी जानना खतरनाक है; ज्यादा खतरनाक है गीदड़ का अपने को हाथी मानना ।

मेरी कहानी जब परिष्कृत होकर हंसमें छपी तो मुझे मालूम हुआ कि प्रेमचंद जी को कहीं-कहीं नहीं, सभी जगह अपनी लेखनी चलानी पड़ी थी। मैं बहुत लज्जित हुआ। आगे जब उनसे मिलने का अवसर मिला तो उसकी भी बात चली कहने लगे, "हिंदी के संपादक पकीहुई चीजें कम ही पाते हैं। दस कहानी में शायद एक कहानी ऐसी आती हो जिसे ठीक करने में मेहनत न करनी पड़ती हो ।"

इस बीच में मेरी कविताओं का प्रथम संग्रह तेरा हारके नाम से निकल चुका था । हंसमें उसकी समालोचना भी निकल चुकी थी, पर प्रेमचंद जी को इसका पता न था कि उसका लेखक मैं ही हूँ । तेरा हार’ ‘बच्चनके नाम से निकला था और वे मुझे अब तक हरिवंश रायके नाम से ही जानते थे । उन्हें जब यह मालूम हुआ तो बहुत प्रसन्न हुए, पर उन्होंने मुझे साहित्य के लिए एक ही नाम रखने की सलाह दी । कहने लगे, "अगर आज में दूसरे नाम से लिखने लगूँ तो मुझे भी अपना स्थान बनाने में मुश्किल हो। इस वार्तालाप के सिलसिले में प्रेमचंद जी ने कुछ ऐसी बातें बतलाई, जिनका प्रभाव मेरे जीवन पर बहुत पड़ा। बोले, "कहानी और कविता की मनोवृत्ति में भारी अंतर है । रविबाबू जैसे प्रतिभावालों की बात और। सफल कहानी-लेखक और सफल कवि दोनों होना कठिन है। कम-से-कम प्रारंभ में अपनी मनोवृत्ति जिस ओर अधिक हो, उसी ओर प्रयत्नशील होना चाहिए।" उन्होंने साफ़-साफ़ तो न कहा था, पर उनका तात्पर्य यह था कि मैं कहानी में संभवतः अधिक सफल हो सकता हूँ, पर मेरी रुचि कविता की ओर अधिक बढ़ी । जीवन की अनिवार्य प्रगति ही कुछ ऐसी थी।

मेरे छोटे भाई की बदली प्रयाग से काशी हो गई थी। मैं भी उन दिनों अंग्रेजी दैनिक पायोनियर के टूरिंग रिप्रजेंटेटिव के पद पर कार्य करता था । मेरा बनारस आना-जाना बराबर बना रहता था। जब-जब मैं बनारस जाता था, उनके दर्शनों के लिए अवश्य जाता था और जब उनके पास से लौटता था, तब कुछ सीखकर कुछ सबक लेकर। उन दिनों प्रेमचंद जी बेनिया पार्क के पासवाले मकान में रहते थे और प्रति दिन प्रसाद जी के साथ पार्क में लगभग एक घंटे टहला करते थे। जितने दिन मै बनारस में रहता, मैं भी टहलने के समय पार्क में पहुँच जाना और दोनों साहित्यिक महारथियों के पीछे-पीछे चलता। कभी-कभी श्रीकृष्णदेव प्रसाद गौड़ बेढ़बभी आ जाते थे । प्रसाद जी कम बोलते, पर प्रेमचंद जी अनेकानेक मनोरंजक बातें करते, हँसते-हँसाते रहते थे। मैं जब पहले दिन गया तो मैंने यह सोचा कि जब प्रसाद जी और प्रेमचंद जी चलते होंगे तो कैसा साहित्यिक वार्तालाप होता होगा। पर उनकी बातचीत मे साहित्यिक चर्चा का अंश सबसे कम होता था। वे जीवन के साधारण-से-साधारण विषयों पर कैसी जानकारी से बातें करते थे, कैसी रुचि से ! मैं तो कुछ देर के लिए उनके लेखक-स्वरूप को भूल ही जाता था। इसे मैंने उनकी महानता का चिह्न समझा। छोटे लेखक सदा अपनी रचित पुस्तकों के पन्नों से ढके हुए दिखाई पड़ते हैं, महान लेखक अपनी रचनाओं से अधिक महान होते हैं, वे उनसे ढँके नहीं जा सकते, ढँके रहना पसंद नहीं करते।

एक बार की बात है। मैं बनारस गया हुआ था। मेरे मन में इच्छा हुई कि जिस समय प्रेमचंद जी और प्रसाद जी बेनिया पार्क में घूम रहे हों, उस समय उनका एक चित्र ले लिया जाय। मैंने अपना प्रस्ताव उनके सामने रक्खा और अनुमति मिल गई। दूसरे दिन फ़ोटोग्राफर नियत समय पर पार्क में पहुँच गया था।

फ़ोटोग्राफ़र को देखकर प्रेमचंद जी कुछ नाराज-से हुए। बोले "भाई, यह क्या? मैंने समझा था कि तुम्हारे पास कैमरा होगा और तुम स्नैपले लोगे । यहाँ कोई हाल पूछनेवाला नहीं और तुम पाँच रुपये खर्च करके तस्वीर खिंचाओंगे। अभी नए-नए युनिवर्सिटी से निकले हो। भावुकता भरी है। पैसों का मूल्य नहीं समझते। मैं ऐसा जानता तो कभी तस्वीर खिंचाने को तैयार न होता।”

मैं कुछ लज्जित हुआ, पर उससे अधिक दुखी। यदि प्रेमचंद जी जैसे व्यक्ति किसी अन्य देश में होते तो अब तक क्या उन्हें यही कहना पड़ता कि कोई पुर्सा हाल नहीं ?

खैर, फोटोग्राफ़र आ ही गया था। उनका चित्र लिया गया। इस समय भी वह चित्र मेरी आँखों में है। प्रेमचंद जी नंगे सिर, खद्दर का कुर्ता पहने खड़े हैं। उनके चेहरे पर पड़ी हुई प्रत्येक पंक्ति संघर्षमय जीवन का इतिहास- सा बता रही है। उनकी आँखों की चमक में उनका उच्चादर्श झलक रहा है। उनके चेहरे की मुस्कराहट में उनका भोलापन फूटा पड़ता है। नम्रता, सरलता और निरभिमान, उनके रूप में रसा-बसा-सा प्रतीत होता है। प्रेमचंद जैसे रोज घूमने आते थे, आ गए थे-बाल बे-कढ़े, दाढ़ी बे-बनी, कुर्ते में जहाँ-तहाँ शिकन पड़ी । प्रसाद जी फ़ोटो खिंचाने की तैयारी से आए थे - बाल जमे- कढ़े, दाढ़ी बनी, कुर्ता रेशमी।1

(1-बाद को यह चित्र हंसके प्रेमचंद स्मृति अंक में छपा। शायद प्रेमचंद प्रसाद का साथ-साथ यह एकमात्र चित्र है।)


जब मेरी मधुशालाप्रकाशित हुई तो मैंने उन्हें एक प्रति भेजी। इसके पूर्व भी वे मधुशालामुझसे सुन चुके थे । हंसमें उन्होंने स्वयं इसकी समालोचना लिखी । दक्षिण भारत में सभापति के पद से भाषण देते हुए भी वे इस लघु कृति को न भुला सके। चारों ओर के विरोध के बीच में उनके कुछ शब्दों से मुझे जो बल प्राप्त हुआ, उसे मैं ही जानता हूँ।

अंतिम बार उनके दर्शन मुझे आरा में हुए थे। वे वहाँ की विद्यार्थी- सभा के वार्षिक अधिवेशन में सभापति होकर गए थे। मुझे भी बुलाया गया था । कवि सम्मेलन में वे पधारे थे। मैं उनके बगल में ही बैठा था। मेरे लिए पानी आया। मैंने पूछा - "बाबूजी आप भी पानी पिएँगे?" "तुम्हारे हाथ से पानी पिएँगे?" कहकर कहकहा लगाकर वे हँस पड़े । उनकी-सी उन्मुक्त हँसी, गाँधीजी की हँसी छोड़कर, मैंने किसी और की नहीं देखी।

कवि सम्मेलन हुआ। जिस समय मैं कविता पढ़कर मंच से नीचे उतरा, प्रेमचंद जी ने कुर्सी से उठकर मुझे छाती से लगा लिया। उन्होंने मुझसे जो कहा, वह तो उनका मेरे लिए आशीर्वाद था। कहने की क्या आवश्यकता ? मैंने झुककर उनके पैर छुए। उस समय यह न जान सका कि फिर उन्हें न देख सकूँगा। उन दिनों मेरी तंदुरुस्ती ठीक नहीं थी। कितना जोर दिया था उन्होंने मुझे तंदुरुस्ती पर सबसे अधिक ध्यान देने के लिए! पर इस विषय में तो उन्हें मैं पर उपदेश कुशलही समझूँगा। यदि वे उसका एक-चौथाई भी ध्यान अपने स्वास्थ्य की ओर देते तो शायद अभी हमको उनकी असामयिक मृत्यु का दुखद समाचार सुनने को न मिलता ।

उनकी बीमारी का समाचार पत्रों में देखने को मिला था। मेरी बड़ी इच्छा थी कि जाकर उनको देख आऊँ, पर अपनी पत्नी की कठिन बीमारी के कारण जाना न हो सका और एक दिन सहसा पत्रों में पढ़कर दिल बैठ गया कि अब वह उपन्यास-देश का सम्राट इस संसार में नहीं रहा ।

ज्ञानी कहेंगे कि प्रेमचंद जी तो अपनी रचनाओं में सदा के लिए वर्तमान हैं, पर मैंने तो मनुष्य प्रेमचंद को, लेखक प्रेमचंद से कहीं ऊँचा पाया था। और अब उस मनुष्य प्रेमचंद को हमने सदा के लिए खो दिया है!

शोक करने के अतिरिक्त हम कर ही क्या सकते हैं ?

नवंबर, १९३६

‘नए-पुराने झरोखे’  (संस्मरण,  हरिवंश राय बच्चन) से साभार, पृ.86- 92

हरिवंश राय बच्चन

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व के बारे में जानकारी देता रोचक संस्मरण। सुदर्शन रत्नाकर

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