सोमवार, 31 जुलाई 2023

आलेख

 



इक्कीसवीं सदी में प्रेमचंद की ज़रूरत

प्रो. पुनीत बिसारिया

            प्रेमचंद को पढ़ना उन चुनौतियों को प्रत्यक्ष अनुभूत करना है, जिन्हें भारतीय समाज बीते काफी समय से झेलता आया है और आज भी उन चुनौतियों का हल नहीं ढूँढ पाया है। दलित, स्त्री, मजदूर, किसान, ऋणग्रस्तता, रिश्वतखोरी, विधवाएँ, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखण्ड, मानव मूल्यों की दरकन, जेनरेशन गैप, ग्रामीण जीवन की सहजता के मुकाबले नगरीय जीवन की स्वार्थ लोलुपता आदि ऐसे ही यक्षप्रश्न हैं। आज प्रेमचंद को गए पूरे सत्तासी वर्ष बीत गए हैं, लेकिन उनके द्वारा साहित्य में वर्णित चुनौतियाँ इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के पूर्वार्द्ध में अपना चोला बदलकर और अधिक गम्भीर चुनौतियों के साथ हमसे रूबरू हैं। उदाहरण के लिए – गोदान के गोबर और पण्डित मातादीन आज भी आपको गाँवों में घूमते मिल जाएँगे। यदि हम उनकी अमर कहानी कफन को ध्यानपूर्वक देखें तो पाएँगे कि यह कथा मात्र घीसू-माधव की काहिलता को ही बयान नहीं करती, अपितु इसमें स्त्री शोषण, पेट की आग शान्त करने के लिए आदमी का रिश्तों को तार-तार कर देना तथा गरीब का दुख में भी सुख की खोज करने का प्रयत्न जैसे आयाम स्वतः ही देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार मंत्र कहानी में डॉक्टर साहब की संवेदनहीनता और बूढ़े अपढ़ ग्रामीण की निश्छल परोपकारिता सहज ही मन को रससिक्त कर देती है|

            अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आज इक्कीसवीं सदी में प्रेमचंद की वाकई हमें ज़रूरत है? ऐसे ही प्रश्न गाँधीजी की प्रासंगिकता को लेकर भी अक्सर उठाए जाते रहे हैं| आज कुछ लोग प्रेमचंद की प्रासंगिकता को सवालों के घेरे में खड़ा करने लगे हैं और उन पर तथा उनकी रचनाओं पर मिथ्या दोषारोपण करने लगे हैं।

            प्रेमचंद को समझने के लिए हमें देश के सामाजिक तन्तुओं की जटिलता का अवलोकन करना होगा, जिनके आसपास से उन्होंने अपनी कहानियाँ बुनी हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बीत जाने के बावजूद ये जटिलताएँ कम नहीं हुई हैं, बल्कि इनमें हो रहे उभार का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। प्रेमचंद सन् 1910 से 1936 के बीच के अपने रचनाकाल में भारतीय समाज में किसानी को दोयम दर्जे का काम समझे जाने को रेखांकित कर रहे थे और मजदूरी को उससे बेहतर समझे जाने की मानसिकता दिखा रहे थे। पूस की रात का हल्कू तथा गोदान का गोबर इसी मानसिकता में डूब-उतरा रहे थे। क्या आज भी गोबर जैसे युवा नहीं हैं, जो किसानी को हेय समझते हुए घर-बार, गाँव जवार यहाँ तक कि अपना देस तक छोड़कर मोटे पैकेज के लालच में फ़ैक्ट्री (इक्कीसवीं सदी में इसे बहुराष्ट्रीय कम्पनी पढ़ें) में काम करना नहीं पसंद कर रहे हैं? क्या आज भी युवाओं का इन तथाकथित फ़ैक्ट्रियों में शोषण नहीं हो रहा है? क्या क्रेडिट कार्ड और प्लास्टिक मनी के इस युग में गबन का नायक अपनी पत्नी जालपा के मोह में पड़़कर आज भी ऋण जाल में फँसने को अभिशप्त नहीं है? ‘महाजनी सभ्यता‘ निबन्ध में भी वे इस ओर बार-बार संकेत करते हैं। मंत्र के स्वार्थी और संवेदनहीन डॉक्टर साहब आपको हर गली-कूचे में मिल जाएँगे। आज भी दलित ‘सद्गति‘ के लिए अभिशप्त हैं और आज दलित कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो गए हों, ‘ठाकुर का कुआँ’ आज भी उनके लिए ‘मृगतृष्णा‘ ही है। आज जिस प्रकार विदर्भ और बुंदेलखण्ड के किसान आत्महत्या करने को विवश हैं, उसकी बानगी वे ‘बलिदान’ कहानी में दे चुके थे। उस समय भूमाफिया आज की भाँति सशक्त भले न रहा हो, लेकिन इस कहानी के तुलसी और मंगल आज के भूमाफियाओं का स्मरण कराने के लिए पर्याप्त हैं। क्या ‘जिहाद’ कहानी आज तक लगातार घटित नहीं हो रही है? यदि ये नगर की तुलना में ग्रामों के निश्छल जीवन की झाँकी प्रेमचंद ने प्रायः अधिकांश रचनाओं में दिखाई है। वास्तव में ग्रामों का चित्रण करने में उनका मन अधिक रमा है। इक्कीसवीं सदी में आज गाँव कितने ही बदल गए हों, लेकिन गाँवों की यह निश्छलता आज भी कहीं न कहीं बरकरार है।

            प्रेमचंद को भारतीय समाज के दाम्पत्य जीवन की विविधताओं की गहरी परख थी। होरी-धनिया के बहाने वे अभावग्रस्त दाम्पत्य में निहित प्रेमांकुरों का सुन्दर वर्णन कर जाते हैं। होरी धनिया को गुस्से में आकर मारता-पीटता है, तो थोड़ी देर बाद ही उसे पश्चाताप का भी अनुभव होता है। यहीं आकर पुनः प्रेम सम्बन्ध ऊष्मायित हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत वे ‘कफन’ कहानी में स्वार्थ की पराकाष्ठा का वर्णन उतनी ही सहजता से कर जाते हैं।घीसू और माधव का प्रसव के दर्द से कराहती बुधिया के पास इस कारण से न जाना कि एक यदि चला गया तो दूसरा उसके आलुओं पर हाथ साफ कर जाएगा, अपने पेट की आग शान्त करने के लिए मनुष्यता को भूल जाने की हद तक चले जाने का परिचायक है। उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेमचंद ने कफन और गोदान दोनों को अपने जीवन के अन्तिम वर्ष अर्थात् सन् 1936 में लिखा था। ये दोनों रचनाएँ उनकी समाज पर पैनी नज़र की परिचायक हैं।

आज प्रेमचंद को गए पूरे सत्तासी वर्ष बीत जाने के बावजूद भारतीय समाज की समस्याओं में परिवर्तन न आना या तो प्रेमचंद की सामाजिक संवेदनाओं की नब्ज़् पर गहरी पकड़ का परिचायक है या फिर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के बावजूद भारत के कर्णधारों द्वारा देश की वास्तविक समस्याओं के प्रति संवेदनहीनता का परिचायक है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रेमचंद के पात्रों की समस्याओं को अपने समाज से विमुक्त करने का प्रयास करें और तब शायद हम सिर उठाकर कह सकेंगे कि हमने वास्तविक आज़ादी हासिल कर ली है।

 


प्रो. पुनीत बिसारिया

आचार्य एवं पूर्व अध्यक्ष-हिन्दी विभाग,

बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय

झाँसी (उत्तर प्रदेश)

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