एक पत्र
प्रेमचंद के नाम....
डॉ. पूर्वा
शर्मा
सम्माननीय प्रेमचंद
जी,
जय हिन्द! जय हिन्दी!
कुशल हूँ! कुशल ही होंगे!
आई है आज मंगल घड़ी, सम्पूर्ण साहित्य जगत झूमकर गुनगुनाने
लगा – सोहर।
हृदयतल से आपको जन्मदिवस की अशेष शुभकामनाएँ!
भारत की इस पावन भूमि पर आपको अवतरित हुए आज पूरे एक सौ
तैंतालीस वर्षों की दीर्घावधि पूर्ण हुई और आपको इस लोक को अलविदा कह ब्रह्मलीन हुए
पूरे सत्तासी साल। मुझे लगता है कि आप लोगों के लिए सम्मानीय तो है ही लेकिन उससे
कहीं ज्यादा आप लोगों के चहीते हैं, जिसे हर-दिल-अज़ीज़ भी कहा जाता है। इतने वर्षों
के बाद भी बच्चे-बूढ़े सभी आपके नाम से न सिर्फ़ परिचित हैं बल्कि आपके साहित्य के
दीवाने हैं। मैं भली-भाँति जानती हूँ कि आपके अवतरण एवं आपके निर्वाण के समय की
प्रत्यक्षदर्शी होना तो मेरे बस की बात नहीं है किंतु आपको पढ़ना, आपको गुनना और
आपको जीना तो पूरी तरह से मेरे बस में है। वैसे देखा जाए तो यह कार्य एक तरफ जहाँ
मेरी आवश्यकता है, मेरा दायित्व है वहाँ दूसरी ओर मेरा शौक भी। मेरे लिए आप जितने
पूजनीय है, उससे कहीं ज्यादा पठनीय है। ‘साहित्यकार को पूजने से ज्यादा पढ़ना है’ –
में मेरा विश्वास है।
आपका लेखन_ आपके समकाल को, उस समय के समाज को, उस समाज की
स्थितियों को बिल्कुल साफ-सुथरे रूप में प्रतिबिंबित करता है। यह कहा जाता है कि कोई
भी सर्जक एवं उसका सृजन अंततोगत्वा उसके युग की ही उपज होता है। इस लिहाज़ से आप
पूर्ण रूप से सफल रहे। इस सच्चाई के साथ इस सत्य को कैसे भूलूँ कि कतिपय ऐसे विरले
साहित्यकार भी होते हैं जो अपनी सोच, संवेदना, मूल्यनिष्ठता, आदर्शवादिता,
मनुष्यता, दूरदर्शिता आदि के चलते आने वाले समय में, वर्षों तक.... सदियों तक.... अपनी
प्रासंगिकता को बनाये रखते हैं। ऐसे सर्जकों की सूची में आपका नाम आज पहले लिया
जाता है।
आठ-नौ दशकों के बाद, आज प्रेमचंद जी आप कहाँ तक और किस रूप
में प्रासंगिक है? इस प्रश्न पर जब मैं विचार करती हूँ, साथ ही इस विषय में अन्य अध्येताओं के विचारों से गुजरती
हूँ तो अनेकानेक संदर्भ स्पष्ट होते दिखाई देते हैं। मसलन,
प्रेमचंद साहित्य में वर्णित समाज की अनेकों सच्चाइयाँ
सांप्रत समय-समाज में भी उपस्थित है; कहते हैं कि साहित्य हमारे जीवन को माँजता है,
जीवन को उजला करता है, दुःख-दर्द-पीड़ा में बल देता है,
संघर्ष हेतु हमें हिम्मत देता है,
शोषण के सामने आवाज उठाने की ताकत देता है – यही तो साहित्य
की सामाजिक उपादेयता है – प्रेमचंद जी आप इस मामले में हमारे साथ खड़े हैं,
इक्कीसवीं सदी के हमारे हिन्दी कथासाहित्य की अनेक
प्रवृत्तियों व प्रयोगों में, विविध विमर्शो की व्याख्या व विवेचन में भी प्रेमचंद जी
आपकी छाया दिखाई देती है; साहित्यिक पत्रकारिता के विकास के वर्तमान दौर में पत्रकारिता के प्रति आपकी
प्रतिबद्धता व समर्पिता कई लोगों का आदर्श बना हुआ है ;
(आपका नीर-क्षीर विवेकी ‘हंस’ आज भी बड़ी सहजता से साहित्य सरोवर में विहार कर रहा है) आज शोध-समीक्षा में सर्जक, सृजन,
विधाएँ, विमर्श, प्रवृत्तियाँ प्रभृति की दृष्टि से आज के संपन्न व समृद्ध
हिन्दी कथा साहित्य के बावजूद प्रेमचंद जी
आपका स्थान और महत्व पूर्ववत बना रहा है; प्रेमचंद के पथ पर, उनके पदचिह्नों पर चलना आज असंख्य कथाकारों के लिए गौरव एवं
सौभाग्य की बात है।
मेरे कहने का आशय है कि आप आज भी हमारे हमसफर बने रहे हैं
और आने वाले समय में भी यह संभव है। परंतु मैं इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं हूँ,
और पत्र में पहले बताया भी है कि सर्जक विशेषत: अपने युग की
उपज होता है, अत:
बीते हुए समय के किसी साहित्यकार का वर्तमान में शत-प्रतिशत प्रासंगिक होना संभव
नहीं। समय की गति बड़ी तेज होती है। परिवर्तन के प्रभाव से कुछ भी अछूता नहीं है।
ऐसे में अतीत के किसी सर्जक का तथा उनकी साहित्यिक रचनाओं का मौजूदा वक्त के
बिल्कुल अनुकूल होना, परिवेश से पूरी तरह संबद्ध होना, मुश्किल है। ऐसे में आपकी प्रासंगिकता को देखते हुए, मानते हुए
भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आप जिस सोच, संवेदना व सरोकारों के सर्जक थे,
वह साहित्यिक व्यक्तित्व यदि आज होता तो निश्चित रूप से
आपकी लेखनी की धार, उसके तेवर, उसकी
प्रकृति कुछ और ही होती क्योंकि आज 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक तीन-चार दशकों का
भारत नहीं है, आज़ादी
पूर्व का परतंत्र भारत नहीं है। आज 21 वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों का भारत है,
स्वतंत्र भारत है।
आज जिस समय को हम जी रहे हैं, जिस समाज में हम रह रहे हैं, इसमें हमारे साथ यदि आप होते
तो इस बात को लेकर मेरे मन में रह-रहे कर कुछ जिज्ञासाएँ-कुछ प्रश्न उठते हैं।
अनेक विचार बिंदु मेरे मन को मथ रहे हैं। परिणामत: अनेकों प्रश्नों-जिज्ञासाओं-अनुमानों-कल्पनाओं
अमूर्त विषयों के संग इस समय मैं आपको देख रही हूँ। इस पत्र के ज़रिए तत्संबंधी कुछेक
बातें आपसे साझा कर रही हूँ –
·
इक्कीसवीं
सदी का भारत मतलब कि भूमंडलीकरण से प्रभावित भारत। हमारे कई तरह के व्यवहार में-
आचरण में कम-ज्यादा मात्रा में इस वैश्विकरण के प्रभाव-कुप्रभाव को बखूबी देखा जा
सकता है। बेशक इस स्थिति में आपके लेखन की विषय वस्तु में विस्तार व वैविध्य होता।
·
गाँव,
शहर, किसान, मजदूर,
स्त्री, दलित, बाल जीवन, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता आदि में आपके समय की तुलना में आज काफी कुछ
परिवर्तन परिलक्षित होता है। ऐसे में प्रेमचंद जी आपकी कलम से होरी,
धनिया, निर्मला, ठाकुर का कुआँ, हामिद, घीसु , माधव, सिलिया चमारिन, सूरदास, कर्मभूमि, सेवासदन आदि-आदि के नये संशोधित संस्करण अवश्यंभावी
है।
·
आप ठहरे
समाज का सिंहावलोकन करने वाले लेखक सो आपकी यथार्थधर्मिता में समाज के, जीवन के न जाने
कितने आयाम, कितनी गहराई से, कितनी संजीदगी से आते, जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
· जिज्ञासा यह भी कि आज साहित्य जगत में स्त्री-दलित-कृषक-आदिवासी-अल्पसंख्यक-किन्नर-बाल-वृद्ध
इत्यादि से संबंधित विमर्श केंद्र में रहे हैं। अनेक साहित्यकार आज इन विमर्शों में
से किसी न किसी विमर्श से जुड़कर लेखन में सक्रिय है। इस तरह के माहौल में यदि आप
होते तो क्या किसी विमर्श विशेष से जुड़ जाते ? जबकि आप अपने कथासाहित्य में ये विमर्श जिन विषयों से संबद्ध
है,
उस पर लिख चुके हैं। सवाल पुन: क्या आप विमर्शो से बंध जाते?
अपने ऊपर किसी विशेष विमर्श का लेबल लगा लेते ?
या फिर इन विमर्शो के खानों में बंद हुए बगैर एक समाजशास्त्री
की तरह, एक समाजसुधारक की भाँति, एक जिम्मेदार लेखक की हैसियत से इन विमर्शो को कैसे देखते ?
·
एक
लेखक के रूप में आपकी और आपके लेखन की जो प्रकृति रही और इसी वजह से आप अपने समय
के हिन्दी कथासाहित्य के पुरोधा थे और आज भी हिन्दी कथासाहित्य पुरोधा ही है और
यदि आज पुनः आपके लेखक का जन्म होता है तो आपकी केन्द्रीयता पूर्ववत् ही रहती।
· मुझे लगता है कि प्रेमचंद जी आपकी जरूरत जितनी आपके समय में
थी उससे कहीं ज्यादा जरूरत आज है। क्योंकि समाज के जिस कटु सत्य को आपने बताया,
मनुष्य जीवन के जिन प्राण प्रश्नों को उकेरा,
ऐसे लेखक हमें आज भी चाहिए। वैसे भी लगता है कि सदी बदली है,
समय बदला है, पर स्थितियाँ, समस्याएँ, शोषण, शोषण के आयाम, शोषण के साधन ने तो महज रूप बदला है। ऐसे में
प्रेमचंद जी आपकी जरूरत आज भी है।
· प्रेमचंद जी, हम सिर्फ आपको ही नहीं परंतु आपके साथ शिवराजी
देवी को भी चाहते हैं क्योंकि आपके लेखन से तो
आपके साहित्यिक व्यक्तित्व से ज्ञात होंगे ही पर आप घर-परिवार, निजी जीवन में क्या
है? कैसे है? ये तो हमें शिवरानी देवी ही ‘प्रेमचंद घर में’ के माध्यम से बताएँगी।
·
माना
कि यह महज एक कल्पना है, अनुमान
है, अमूर्त है पर सच्चाई यह है कि मानवतावादी, प्रगतिवादी, यथार्थवादी
साथ ही साहित्यकार की ईमानदारी-निष्ठा व प्रतिबद्धता वाले प्रेमचंद जैसे लेखक हर देशकाल की माँग हो सकते हैं। जानती हूँ हिन्दी
जगत में पुनः प्रेमचंद जी आपका आगमन संभव नहीं है – पर प्रेमचंद लेवल के लेखक की कामना
हिन्दी जगत सदैव करेगा।
धन्यवाद!
आपकी पाठक
पूर्वा
डॉ. पूर्वा शर्मा
आदरणीय प्रेमचंद जी अपने में सम्पूर्ण साहित्य समेटे हुए थे,उनके बगैर हिंदी साहित्य की कल्पना भी नहीं कर सकते । बहुत ही अद्भुत लेख डॉ.पूर्वा का । - रवि कुमार शर्मा,इंदौर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ढंग से आपने कितना कुछ समेट लिया। अद्भुत। बधाई आपको। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंअनूठा पत्र। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई 💐
जवाब देंहटाएंकितनी सरलता से कितना कुछ कह दिया पूर्वा जी , बधाई !
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