बुधवार, 28 जून 2023

आलेख

 


शमशेर बहादुर सिंह की काव्य-चेतना

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

शमशेर बहादुर सिंह छायावादोत्तर काल के एक ऐसे कवि हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में बनाए गए खाँचों में से किसी एक खाँचे में रखने में हिंदी के विद्वान् दुविधा और उलझन महसूस करते हैं। यह बात शमशेर जी की काव्य-चेतना के संबंध में विद्वानों द्वारा व्यक्त किए गए अभिमत से प्रकट होती है -

1. अपनी काव्यगत अनोखी विशिष्टताओं के कारण इतिहासकार के सम्मुख अनेक प्रश्न खड़े कर देते हैं - शमशेर को कहाँ ‘सिचुएट’ किया जाए? ... वे रोमैंटिक होकर भी रोमैंटिक नहीं हैं; प्रगतिशील होकर भी प्रगतिशील नहीं हैं; प्रयोगवादी होकर भी प्रयोगवादी नहीं हैं। शमशेर पर कोई लेबुल नहीं लगाया जा सकता। यदि कोई लेबुल लगाया जा सकता है, तो कवि का लेबुल। सही अर्थ में वे कवियों के कवि हैं। (बच्चन सिंह : हिंदी साहित्य का आधुनिक इतिहास, पृ. 274)

2. संभवतः शमशेर जी हिंदी के सर्वाधिक प्रयोगशील कवि हैं। बौद्धिक स्तर पर उन पर मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का गहरा प्रभाव है। अनुभवों से वे रूमानी तथा संस्कारों से वे व्यक्तिवादी दिखाई पड़ते हैं। शमशेरजी की कला पर पाश्चात्य साहित्य के प्रतीकवाद, अतियथार्थवाद तथा बिंबवाद का गहरा प्रभाव लक्षित होता है। उनकी दृष्टि में कला का संघर्ष सामाजिक संघर्ष से अलग कोई चीज नहीं। (डॉ. शिवकुमार शर्मा : हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, पृ. 560)

3. शमशेर अपने चिंतन में वस्तुपरक होते हुए भी कदाचित् हिंदी के सर्वाधिक आत्मपरक कवि हैं। कवि की इसी आत्मपरकता के कारण सौंदर्य इनकी कविताओं का केंद्रवर्ती बिंदु बन गया है। हिंदी के कवि-समीक्षकों द्वारा शमशेर बहादुर सिंह को दिए गए ‘शुद्ध कवि’, ‘सिद्धहस्त कवि’ एवं ‘कवियों के कवि’ जैसे संबोधन कवि-अनुभूति की सघनता और कलात्मक सजगता को द्योतित करते हैं। मूल्यान्वेषण के प्रति उदासीन, निजी अनुभूतियों के अभिव्यंजन की अत्यधिक प्रवृत्ति और अभिव्यक्ति की अमूर्तता - अस्पष्टता आदि शमशेर की काव्यगत दुर्बलताएँ मानी जा सकती हैं, जिनसे इनकी कविता को किंचित् क्षति पहुँची है। (गणपतिचंद्र गुप्त : हिंदी भाषा एवं साहित्य विश्वकोश, पृ. 689)

4. वस्तुतः शमशेर का काव्य-लोक बेहद निराला काव्य-लोक है। उसमें परुष भी है और नितांत कोमल भी। निहायत निजी संवेदनाओं से उपजीं ज्ञानक्षेत्र और ज्ञानातीत अनुभूतियाँ भी उसमें हैं और गहरे सामाजिक सरोकारों का रूपायन भी; सौंदर्य और प्रणय के मन की भीतरी तहों से फूटने वाले स्वर भी उसमें हैं, उसके यथार्थ की पारदर्शी छवियाँ भी। उनकी संवेदना बड़े चौड़े पाट वाली संवेदना है और खूबी यह कि शमशेर भिन्न और परस्पर विरोधी लगने वाली संवेदनाओं के गलियारों में इस तरह विचरण करते हैं, मानो वही उनकी प्रतिश्रुति हो। (डॉ. शिवकुमार मिश्र : छपते-छपते-2010, पृ. 41)

उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि शमशेरजी की काव्य-चेतना का फलक बहुत विस्तृत है; परंतु यही उनकी तकलीफ भी है। इसी के चलते उनके काव्य-जगत का एक बड़ा हिस्सा अमूर्त और धुँधला हो गया है।

शमशेर बहादुर सिंह का जन्म 1911 में हुआ और उन्होंने लिखना लगभग 1932-33 से आरंभ किया। परंतु हिंदी जगत उनके कविरूप से परिचित हुआ 1951 में - ‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशित उनकी कविताओं से। शमशेर का पहला काव्य-संग्रह ‘कुछ कविताएँ’ 1959 में प्रकाशित हुआ; दूसरा संग्रह ‘कुछ और कविताएँ’ 1961 में, तीसरा संग्रह ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ 1975 में, चौथा संग्रह ‘इतने पास अपने’ 1980 में, पाँचवाँ संग्रह ‘उदिता’ 1980 में, छठा संग्रह ‘बात बोलेगी’ 1981 में।

शमशेर जी अत्यधिक कल्पनाशील कवि माने जाते हैं। अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा वे पूरे के पूरे संदर्भ को साकार करने के लिए छोटे-छोटे बिंबों की सृष्टि करते हैं। परंतु कभी-कभी उनकी अतिशय कल्पनाशीलता के कारण उनके विशृंखल शब्द एवं क्लिष्ट भाव-दशाएँ सामान्य पाठक, अध्यापक तथा समीक्षक की कल्पना-शक्ति के बाहर की वस्तु बन जाती हैं और कविता में दुरूहता आ जाती है। वह सहज संप्रेषणीय नहीं रह जाती :

सींग और नाखून

लोहे के बख्तर कंधों पर

सीने में सूराख हड्डी का।

आँखों में : घास-काई की नमी।

एक मुर्दा हाथ

पाँव पर टिका

उलटी कलम थामे।

तीन तसलों में कमर का घाव सड़ चुका है।

जड़ों का भी कड़ा जाल

हो चुका पत्थर।

शमशेर के काव्य में सौंदर्य-चेतना बहुत मांसल है और प्रेम काफी वासनामय। सौंदर्य की मांसलता को वे अपनी शैली के सूक्ष्म आवरण से ढँकने की कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं। उनके अवचेतन में दबीं शृंगारिक प्रवृत्तियाँ बार-बार उभर कर सतह पर आ जाती हैं। सलोने शरीर के, सुंदर मुख के, अधखुली अँगड़ाइयों के - और सबसे अधिक वक्ष के वर्णन में नारी के शरीर के लिए उनके मन की अधीरता प्रकट होती है।

उनका प्रकृति-वर्णन बहुत सीमित है : जैसे - प्रभात, संध्या, रात, चाँदनी, धूप, आकाश, समुद्र, वसंत, बरसात आदि। इनके वर्णनों में उन्होंने प्रकृति की तुलना कहीं प्रकृति के उपादानों से की है - जैसे पूर्णिमा की चाँदनी के विस्तार को पीले गुलाबों का उमड़ता दरिया कहा है। ‘एक पीली शाम’ नामक कविता में संध्या को पतझड़ का अटका हुआ पत्ता कहा है, तो कहीं नारी से। जैसे - उषा के उदित होने पर उन्हें ऐसा लगता है मानो नीले जल में किसी की गौर झिलमिल देह हिल रही हो; समुद्र की लहरों को देखकर प्रतीत होता है, जैसे चाँदनी की चंचल अँगुलियाँ क्रोशिये से फेन की झालर-बेल बुन रही हों; कमरे में आई धूप को देखकर ऐसा आभास होता है, जैसे कोई आईने के सामने खड़ा हँस रहा हो। उनके द्वारा किया गया सावन की संध्या वर्णन चित्रमय भी है और रम्य भी -

मैली, हाथ की धुली खादी-सा

है आसमान

जो बादन का परदा है

वह मटियाला धुँधला-धुँधला

एक सार फैला है लगभग

कहीं-कहीं तो जैसे हल्का नील दिया हो।

शमशेर ने जीवन और मृत्यु जैसे अनेक प्रश्नों पर भी विचार किया है। उनका हृदय अंतर्द्वंद्व से निरंतर पीड़ित रहा है। वे यत्र-तत्र जीवन की व्यथा पर, सामान्य जीवन के सुख-दुख पर, जन जीवन की पीड़ा पर सोचते दिखाई देते हैं। ‘अमन का राग’ उनकी एक प्रसिद्ध विचार प्रधान रचना है, जिसमें उन्होंने धर्म, प्रेम, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास, कानून और व्यक्ति के अधिकारों के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विश्व की मूलभूत एकता की बात कही है।

शमशेर की काव्य-कला पर कई व्यक्तियों एवं काव्यांदोलनों का प्रभाव दिखाई पड़ता है - जैसे - एजरा पाउंड, डायलन, टॉमस, शेली, हाली, गालिब, इकबाल आदि व्यक्तियों एवं प्रतीकवाद, बिंबवाद, अतियथार्थवाद आदि काव्यांदोलनों का प्रभाव। एजरा पाउंड के बारे में उन्होंने खुद लिखा है - ‘टेकनीक में एजरा पाउंड शायद सबसे बड़ा आदर्श बन गया है।’  इसी तरह वे अतियथार्थवादी काव्यांदोलन से अधिक प्रभावित जान पड़ते हैं । कारण कि उस काव्यांदोलन का सीधा संबंध शुद्ध कविता से हैं। इसका उद्देश्य कला को उच्च धरातल पर  स्थापित करना है। यह कला आंदोलन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में अपनी आस्था व्यक्त तो करता है, परंतु कला संबंधी समाजवादी यथार्थवाद को अस्वीकार करता है। यही स्थिति शमशेर की है। शमशेर बौद्धिक स्तर पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को स्वीकार करते हैं; परंतु उनकी कविता में यह बात उस रूप में दिखाई नहीं पड़ती।

डॉ. रामविलास शर्मा मानते हैं कि शमशेर की रचनाओं में काव्य-कौशल को लेकर उधेड़बुन ज्यादा है। कहीं लोकगीत, कहीं गजल, कहीं मुक्त छंद और उनमें बहुत तरह की किस्में - कहीं सफल कहीं असफल। इसका कारण बताते हुए रामविलास जी लिखते हैं कि शमशेर अपने रीतिवादी रूमानी सौंदर्यबोध से अपने मार्क्सवादी विवेक की संगति नहीं बैठा पाए हैं।

शमशेर ने अपने को पाने का उल्लेख बार-बार किया है। छायावादी कविता में आत्म-विस्तार है; अर्थात् अपना जो नहीं है, उसे भी समाविष्ट कर लेने की प्रवृत्ति। प्रयोगवादी कविता में, अपने में जो कुछ अवस्थित है, उसी को खोजने की स्पृहा है। शमशेर में भी अपने को पाने का प्रयास है। ‘अपने को पाने’ से शमशेर का क्या तात्पर्य है, इसे उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है। अपने को पाना शायद निजीपन का ही दूसरा नाम है। यह काम शुद्ध संवेदना के स्तर पर ही संभव है। वह कालाकार की बहुत निजी चीज है। वह जितना अधिक निजी होगी, कालांतर में वह उतना ही अधिक दूसरों की हो सकती है।

शमशेर का अवचेतन मन प्रकृति-चित्रण और प्रणय गाथा में अधिक रमता हुआ प्रतीत होता है। इसमें एक नया रोमानियत है। इसमें भाषातीत गहन आकुलता को बाँधने का प्रयास है। परंतु, डॉ. बच्चन सिंह के मतानुसार, इसे बाँधने में शमशेर के भाषायी पाश छोटे पड़ जाते हैं। शमशेर ने प्रतीकों, अछूते बिंबों, अतियथार्थवादी चित्रों, कोष्ठकों, डैसों आदि से उस अंतराल को भरने का प्रयास किया है।

शमशेर के प्रकृति-चित्रण में अतियथार्थवादी झलक बार-बार मिलती है। प्रकृति जितनी उनके बाहर है, उतनी ही भीतर है। एक चित्रित यथार्थ है, तो दूसरा अतियथार्थ। कविता में वर्णन की परंपरा और अनुभव का उन्मेष दोनों घुलते-मिलते हैं। परंतु शमशेर के यहाँ महत्त्व दूसरे का है। यही कारण है कि प्रकृति-चित्रण में उनका लगाव जितना जल या आकाश से है, उतना मिट्टी से नहीं। पानी और आसमान को वे नये-नये रूपों गढ़ते हैं -

 एक नीला आईना

बेठोस-सी यह चाँदनी

और अंदर चल रहा हूँ मैं

उसी के महातल के मौन में।

स्पष्टतः यहाँ नीले आसमान में चाँदनी का वर्णन नहीं, उसका विशिष्ट अनुभव है। चाँदनी के अंदर कवि चल रहा है; और वह चाँदनी उसके अंदर है।

 


डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315, आणंद (गुजरात)

 

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