बुधवार, 28 जून 2023

आलेख

                                             

भारतीय नवजागरण के संदर्भ में 

माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का योगदान

आनन्द तिवारी

नवजागरण का उदय मध्ययुग आते-आते हुआ। किसी युग में विचार तथा व्यवहार के स्तर पर होने वाली नवीन चेतना या जागृति को ही नवजागरण कहा जाता है। नवजागरण का अर्थ ही समाज के जागरण से है। नवजागरण का अर्थ है जागना, नींद से जागनासुषुप्त जनमानस में नवचेतना, स्वतंत्र चिंतन, ऐसी चेतना जो पहले कभी न आई होहाँ जागरण का अर्थ शारीरिक रूसे जागना नहीं अपितु मानसिक रूसे जागना हैलाक्षणिक अर्थ में जागरण वह अवस्था है जिसमें किसी जाति, देश, समाज को अपनी वास्तविक परिस्थितियों और उनके कारणों का ज्ञान हो जाता है और वह उन्नति और रक्षा के लिए सचेष्ट हो जाता है। नवजागरण का प्रारंभ संभवतः चौदहवीं शती में इटली में माना जाता है। पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा सोलहवीं सदी के प्रारंभ में यह इटली में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची; और बाद के दिनों में फ्रांस, जर्मनी , इंग्लैंड, स्पेन में इसका विकाएवम पतन हुआ।

समय-समय पर संसार में ऐसी आत्माएँ अवतीर्ण होती हैं, जिन्हें अवतार कहते हैं। संत और सुधारक, मुख्यतः अपने ही समय की शंकाओं का उत्तर देने को आते हैं। उन्नीसवीं सदी के पूर्व भारत में जो भी समाज सुधारक संत हुए उनका एक मात्र विषय धर्म था, क्योंकि धर्म ही तत्कालीन समाज की मुख्य सांस्कृतिक धारा थी। धीरे-धीरे उन्नीसवीं सदी आते-आते लोगों के मन में नए विचार, नई सोच का संचार होने लगा। विज्ञान के विकास होने के कारण मन से अंधविश्वास हटने लगा तथा लोग हर विषय को तर्क की कसौटी पर कसने लगे। यही भारतीय नवजागरण का प्रमुख आधार बना।

उन्नीसवीं सदी के पूर्व धर्म ही तत्कालीन समाज की मुख्य सांस्कृतिक धारा थी एवं राजनीति और समाज की चेतना तब तक उसके वृत्त के बाहर की चीज थी अथवा यह कह सकते है कि राजनैतिक तथा सामाजिक चेतना उतनी नहीं बढ़ी थी कि वह धर्म को भी प्रभावित करे।  परंतु उन्नीसवीं सदी तक आकर समस्या का रूप बदल गया और जो धर्म पहले अपने आप में पूर्ण समझा जाता था, उसकी जाँच अब सामाजिकता की कसौटी पर की जाने लगी।

 

भारत में यूरोपीय ज्ञान के आगमन के बाद भारतीय धर्मों की जो आलोचना चलने लगी थी, उसका भी मुख्य कारण यह नहीं था कि हिन्दू धर्म और इस्लाम ईसायत के सामने तुच्छ थे अथवा भारतीय धर्मों की त्रुटियां ईसाई धर्म में नहीं थी। इस आलोचना की प्रेरणा इस बात से मिल रही थी कि ईसाई धर्म चाहे कैसा भी रहा हो, किन्तु ईसाई समाज हिन्दू और मुस्लिम समाज से अधिक जाग्रत, अधिक कर्मठ, अधिक उन्नत एंव उदार थेभारत यूरोप के साथ आने वाले धर्म से नहीं डरा, डर उसके विज्ञान को देख कर हुआ उसकी बुद्धिवादिता, साहस और कर्मठता से हुआ। अतः भारत में नवोत्थान का जो आंदोलन उठा उसका लक्ष्य अपने धर्म अपनी परम्परा और अपने विश्वासों का त्याग नहीं, प्रत्युत यूरोप की विशिष्टताओं के साथ उनका सामंजस्य बिठाना था ।      नवजागरण यानी कि किसी नए युग की उत्पत्तिजैसे - आज के आधुनिक युग में हम जैसे बदलाव की उम्मीद करते हैं, बदलाव की प्रक्रिया नवजागरण कहलाता है। किसी भी क्षेत्र में बदलाव एक व्यक्ति द्वारा नहीं अपितु समाज के समर्थन से ही संभव है। भारतीय नवजागरण में पत्र – पत्रिकाओं की बड़ी महती भूमिका रही। नवजागरण में सशक्त सेनानियों के हाथों में पैनी हथियार के रूप में उस जमाने की पत्र–पत्रिकाओं ने बड़ी भूमिका निभाई।

भारतीय नवोत्थान का एक प्रधान लक्षण अतीत की गहराइयों का अनुसंधान था। यूरोप के पास जो पूँजी थी उसमें विज्ञान ही एक ऐसा तत्व था जो भारत को नवीन लगा और जिसे भारत ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। बाकी प्रत्येक दिशा में, भारत ने अपने अतीत की पूँजी टटोली और अपने प्राचीन ज्ञान को नवीन करके वह नए मार्ग पर अग्रसर होने लगा। अंग्रेजी भाषा में एक शब्द है रीवाईवलिज्म, जो दूषित अर्थ देता है। जो भी व्यक्ति आज के सत्य को अनूदित करके भूतकाल की मरी हुई बातों को दोहराता है उसे हम पुनर्जागरणवादी या रीवाईवलिस्ट कहते हैं  और पुनर्जागरणवादी होना कोई अच्छा काम नहीं है।  नवजागरण, पुनर्जागरण नहीं सत्यों का पुनर्जन्म है। भारत में जब-जब नवोत्थन हुआ है, तब- तब वेदांत की भूमिका मनुष्य के सामने प्रकाशित हो उठी है। वेदांत ने बुद्ध का साथ दिया, वेदांत ने शंकर को चमकाया, वेदांत के आधार पर कबीर, नानक सत्य सिद्ध हुए और उसी वेदांत की व्याख्या करके रामानुज ने भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय नवजागरण का आरंभ राजा राममोहन राय, दयानंद और विवेकानंद ने किया था और जिसकी धारा में हम आज भी तैरते हुए आगे जा रहे रहें हैं , वेदांत उस आंदोलन की रीढ़ है। भारत में संस्कृति के बड़ेबड़े नवोत्थान हुए हैं, किन्तु वर्तमान भारतीय नवजागरण उन सब से अधिक शक्तिशाली और श्रेष्ठ है। इसने वैदिक धर्म की प्रवृत्तिमार्गी धारा को प्रत्यावर्तित किया है। इसने संसार की सत्यता को मनुष्य के अन्दर जागृत किया एवं उसके विश्वास को बढ़ाया है।

भारत के उत्तर और दक्षिण में नवजागरण का आविर्भाव करीब एक ही समय में हुआ है। भारतीय नवजागरण में जब आंदोलन का स्वरूप ग्रहण किया तब उसके नेतृत्व में राजा राममोहन राय, रवींद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, श्री नारायण गुरु जैसे अनेक महापुरुष जुड़ गए। भारत में नवजागरण का पहला अनुभव बंगाल ने किया है। भारतीय पत्रकारिता की जन्मभूमि भी बंगाल ही है और हिंदी पत्रकारिता का जन्म और विकास कलकत्ता में ही हुआ। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है, दूसरी मंजिल भारतेन्दु युग। तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल है ।

जब समस्त दक्षिण पश्चिम भारत में विभिन्न विद्वानों द्वारा जनमानस में चेतना के दीप जलाए जा रहे थे तब उत्तर भारत में भी राष्ट्रीयता, देशभक्ति का अपनी संस्कृति की रक्षा के प्रति जनमानस में जागरण हो रहा था। इसका प्रमुख कारण यूरोप की राष्ट्रीय भावना था। पहले भारत में जो छोटे-छोटे राज्य आपस में लड़मर रहे थे, वे अब एकजुट होने लगे, 1857 की क्रांति उसी भावना का उद्गार था। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, एम.जी.  रानाडे, विवेकानंद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, गोखले, तिलक एवं अन्य कई महान संतों ने और विद्वानों ने समस्त भारत को अपने विचारों से बहुत प्रभावित किया, समस्त भारत में जागरण की एक क्रांति-सी दौड़ गई ।

उन्नीसवीं सदी में ईसाई धर्म हिंदुत्व से कई गुना बलवान रहा। उसका सामना करने के लिए यह आवश्यक था कि भारत यूरोप की वैज्ञानिकता को ग्रहण करे और इस वैज्ञानिकता के साथ अपने धर्म को भी सबके सामने रखे। अतएव वैज्ञानिकता का वेदांत से मणिकांचन संयोग नवजागरण का प्रधान लक्षण हो गया और राममोहन राय हिंदुत्व के उस पक्ष का आख्यान करने लगे जिसमें मूर्ति पूजा नहीं थी, अवतारवाद नहीं था, ही मंदिरों और तीर्थों की कोई बात थी। राममोहन राय की विशेषता थी कि एक ओर वे वेदांत के स्थान से हिलने को तैयार नहीं थे दूसरी ओर वे अपने देशवासियों को अंग्रेजी के द्वारा पाश्चात्य विद्याओं में निष्णात बनाना चाहते थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदांत की नवीन व्याख्या की। उन्होंने हिन्दुओं को संबोधित करते हुए कहा तुम्हरा धर्म पौराणिक संस्कारों की धूल में छिप गया है। इन संस्कारों के गंदे पत्तों को तोड फेंको। तुम्हरा सच्चा धर्म वैदिक धर्म है, जिस पर आरूढ़ होने से तुम फिर विश्व विजयी हो सकते होसत्यार्थप्रकाश में उन्होंने गहन आख्यान दिया है हिंदुत्व के वैदिक रूप का।

वेद को छोड़कर कोई अन्य धर्म ग्रंथ प्रमाण नहीं है, इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा प्रारम्भ किया और जहाँ-जहाँ वे गए, प्राचीन परम्परा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गए । रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय नवजागरण को वेदांत के भूले-बिसरे वैभव से वसुधैव कुटुंबकम् का संदेश दिया। इन समस्त विद्वानों और संतों ने संपूर्ण विश्व के समक्ष भारतीय संस्कृति के महत्व को स्थापित किया। भारतीय नवजागरण की पृष्ठभूमि के सूक्ष्म अध्ययन से यह नतीजा निकलता है कि पत्र-पत्रिकाओं के बिना भारतीय नवजागरण शायद संभव ही नहीं होता। इस परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता को समझना जरूरी है-पत्रकारिता एक माध्यम है जिसके द्वारा अपने विचारों को जनसमूह तक बड़ी आसानी और सरलता से पहुँचाया जा सकता है। बीसवीं सदी में राष्ट्रीयता की भावना तेजी से उभरी देशवासियों ने ब्रिटिश शासन की दुर्भावना को समझा और देश की एकता और आवश्यकता को गहराई से महसूस किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वजह से संपूर्ण भारत में राजनीतिक चेतना का प्रसार हो रहा था।

 दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी का अहिंसात्मक प्रतिरोध सफल रहा जिसने भारतीयों को मानसिक बल प्रदान किया। देश में एक नए उमंग की लहर दौड़ गई। इसी अवसर पर माखनलाल चतुर्वेदी जी पत्रकारिता के क्षेत्र में अवतरित हुए। श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी ऐसे पत्रकार थे जिनका व्यक्तित्व शत-शत अवरोधों के सामने न तो झुका और न ही बिका। श्री चतुर्वेदी जी ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना को राष्ट्रीय चेतना से जोड़ दिया तथा राष्ट्रीय चेतना का क्रांतिकारी स्वरूप प्रस्तुत किया।

भारतीय नवजागरण के आलोक में माखनलाल चतुर्वेदी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

माखनलाल चतुर्वेदी जी का जन्म 1889 को ब्रिटिश इंडिया में हुआ था। तात्कालिक समय में उनका जन्म स्थान बाबई है जो कि  होशंगाबाद में आता है।  माखनलाल चतुर्वेदी के जन्म के समय भारत पर अंग्रेजों का शासन था एवं तब स्वाधीनता के लिए संघर्ष चल रहा था और माखनलाल ने भी यह समझ आते ही  देश हित में कार्य करना शुरू कर दिया। माखनलाल जब 16 वर्ष के हुए तब ही स्कूल में अध्यापक बन गए थे। उन्होंने 1906 से 1910 एक विद्यालय में अध्यापन का कार्य किया लेकिन जल्द ही माखनलाल ने अपने जीवन और लेखन कौशल का उपयोग देश की स्वतंत्रता के लिए करने का निर्णय ले लिया उन्होंने असहयोग आन्दोलन और भारत छोड़ो आन्दोलन जैसी कई गतिविधियों में भा लिया, इसी क्रम में वे कई बार जेल भी गए और जेल में कई आत्याचर भी सहन किए, लेकिन अंग्रेज उन्हें कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सके। माखनलाल जी की लेखन शैली नवछायावाद का एक नया आयाम स्थापित करने वाली थी । जिनमें से चतुर्वेदी जी की कुछ रचनाएं-हिमतरंगिनी, कैसा चांद बना देती है, अमर राष्ट्र और पुष्प की अभिलाषा जैसा  हिंदी साहित्य में सदियों तक अमर रहने वाली रचनाएँ हैं।

हिन्दी कविता की समस्त काव्य धाराओं में राष्ट्रीय काव्य धारा का विशिष्ट महत्व है। राष्ट्रीय कविताओं द्वारा राष्ट्र के भिन्न-भिन्न वर्गों, संप्रदायों और प्रांतों में भावात्मक एकता के विचार पुष्ट होते है राष्ट्रीय कविताएँ जाति, समाज और प्रांतीयता की संकीर्ण भावना मिटाती है, जनसामान्य के हृदय में कर्तव्य की भावना जगाती है। इन्हीं कविताओं से प्रेरणा पाकर अनेक वीरों ने हंसते-हंसते अपने जीवन को देश की आजादी के लिए अर्पित कर दिया। माखनलाल जी का जीवन और साहित्य दोनों ही राष्ट्र सेवा में अर्पित था। अपने जीवन में वे राष्ट्रीय आंदोलनों में हिस्सा लेते रहे, पहले हिंसावादी क्रांतिकारी दल में दीक्षा लेकर और बाद में गांधी जी के अहिंसात्मक सत्याग्रही बनकर। स्वतंत्रता आंदोलन की सक्रिय प्रेरणा देने की प्रवृत्ति उनके काव्य में ही नहीं बल्कि उनके जीवन में भी मिलती है। जेल यात्रा उनके लिए गौरव यात्रा थी इसलिए उन्होंने कहा क्या देख न सकती जंजीरों का गहना, हथकड़ियाँ क्यों यह ब्रिटिश राज का गहना।”

राष्ट्रीय काव्य धारा के क्षेत्र में माखनलाल चतुर्वेदी के साथ उनके समकालीन साहित्यकार -मैथिलीशरण गुप्त, नाथूराम शर्मा शंकर, रामनरेश त्रिपाठी, रायदेवी प्रसाद पूर्ण, रामचरित उपाध्याय राष्ट्र जागरण के सूत्रधार रहे। राम नरेश त्रिपाठी की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

             सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृप्ति आत्मबलि पर हो निर्भर ।

                 त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है करो प्रेम पर प्राण निछावर।।

                देश प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है अमल असीम त्याग से विलसित

               आत्मा के विकास से जिसमें मनुष्यता होती है विकसित।।”

1905 में माखनलाल जी बम्बई के निकट एक देहात में अध्यापक नियुक्त हुए थे। देश की मिट्टी से ये बचपन से ही जुड़े हुए थे। यही कारण है कि मिडिल परीक्षा देने के लिए जब ये जबलपुर गए तो इनकी पहचान क्रांतिकारी युवकों से हुई। उस समय से ही ये उनकी सहायता करते थे। 1906 में जब कलकत्ता कांग्रेस में लोकमान्य तिलक धारे तो माखनलाल जी भी उनकी सुरक्षा के लिए कलकत्ता गए। वहीं से लौटते समय उन्होंने क्रांतिकारी नेता देवसकर से काशी में दीक्षा ली। इसके बाद इनका क्रांतिकारियों से संपर्क बढ़ा। इनके संबंधों का क्षेत्र विस्तृत हो चला था। सैयद अलीमीर, स्वामी रामतीर्थ, माधवराव सप्रे तथा माणकचन्द जैन का इन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।  सप्रे जी ने इनमें देश भक्ति की भावना को दृढ़ किया तथा इनके राजनैतिक गुरु बने। गणेश शंकर विद्यार्थी इनके परम मित्र और हितैषी थे। रायबहदुर जी, पं. विष्णुदत्त से इनके अच्छे सम्बन्ध थे। अपने समकालीन समस्त साहित्यकारों में माखनलाल चतुर्वेदी जी काफी प्रसिद्ध थे तथा अपनी वाक्पटुता, निर्भीकता और साहस के कारण सबके साथ इनका अच्छा संपर्क था। समकालीन राजनीतिक व्यक्तियों तिलक, गोखले, नेहरू, गांधी तथा समकालीन समस्त क्रांतिकारियों से भी इनका अच्छा संपर्क था।

माखनलाल जी के साहित्य का मूल स्वर राष्ट्रीयता है, जिसमें त्याग, बलिदान, कर्तव्य भावना और समर्पण का भाव है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को स्वर देने वालों में इनका प्रमुख स्थान है। इनकी कविता में यदि कहीं ज्वालामुखी की तरह धधकता हुआ अंतर्मन है तो कहीं पौरुष की हुंकार और कहीं करुणा से भरी मनुहार। इनकी रचनाओं की प्रवृत्तियाँ प्रायः स्पष्ट एवं निश्चित हैं। राष्ट्रीयता इनके काव्य का कलेवर है, तो भक्ति एवं रहस्यात्मक प्रेम इनकी रचनाओं की आत्मा। इनकी छंद योजना में नवीनता है। चतुर्वेदी जी की भाषा खड़ीबोली है। उसमे संस्कृत के सरल और तत्सम शब्दों के साथ फारसी के शब्दों का प्रयोग हुआ है। इनकी शैली में ओज की मात्रा अधिक है। एक उदाहरण देखिए –

  चाह नहीं, मैं सुरबाला के

  गहनों में गूँथा जाऊँ,

   चाह नहीं प्रेमी-माला में

     बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

     चाह नहीं सम्राटों के शव पर

  हे हरि डाला जाऊँ,

  चाह नहीं देवों के सिर पर

चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,

मुझे तोड़ लेना नमाली,

उस पथ पर देना तुम फेंक!

मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

।।  युगचरण से

रचनाएँ

1.   कृष्णार्जुन नाटक, सृजन और मंचन 1916, प्रकाशन पुरस्कार 1918

2.   हिमकिरीटिनी (कविता संग्रह 1945)

3.   साहित्य देवता(निबन्ध संग्रह )1943 ई., यद्यपि इसके अधिकांश निबन्ध 1921-1922 विलासपुर जेल में लिखे गये थे।

4.   हिमतरिंगिनी (कविता संग्रह) 1949ई.

5.   माता (कविता संग्रह)1951.

6.   युगचरण(कविता संग्रह)1956 ई.

7.   समर्पण (कविता संग्रह) 1956 ई.

8.   अमीर इरादे गरीब इरादे (निबन्ध संग्रह)1960 ई.

9.   वेणु लो गूंजे धरा (कविता संग्रह)1960 ई.

10.  समय के पांव (संस्मारत्मक निबन्ध)1962 ई.

11.  चिंतन की लाचारी (भाषण संग्रह)1965 ई.

12.  बीजुरी काजल आंज रही (कविता संग्रह) 1980 ई.

13.  रंगो की बोली (निबन्ध संग्रह) 1982 ई.

माखनलाल जी अपने समकालीन पत्रकारों, गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव, कालूराम गंगराड़े तथा अन्य सभी पत्रकारों के घनिष्ट मित्र थे। श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी निर्भीक पत्रकार थे। पत्रकार के रूप में उनका व्यक्तित्व शत- शत अवरोधों के सामने न तो झुका न ही बिका1913 ई. में जब श्री कालूराम गंगराड़े ने प्रभा मासिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया तो उन्होंने तीस रुपए मासिक वेतन पर सहायक संपादक के रूप में अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। प्रभा के माध्यम से ही माखनलाल जी ने राष्ट्रीय और सामाजिक जागरण का कार्य सम्पन्न किया। माखनलाल जी ने तनमन से प्रभा की सेवा की। परन्तु अनेक कठिनाइयों के कारण प्रभा बारह अंक के बाद बंद हो गई  बंद होने का विशेष कारण था कि मध्य प्रांत में कोई अच्छा प्रेस न था और प्रभा पूना से छपती थी। एक वर्ष बाद गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रयासों से प्रभा कानपुर से पुनः प्रकाशित हुई। प्रकाशन  संपादन में वे इतने तल्लीन हो गए कि उन्होंने घर-गृहस्थी के सुखों को त्याग दिया तथा अपनी पत्नी की आहुति भी प्रभा की पत्रकारिता के यज्ञ में चढ़ा दी। परन्तु आर्थिक संकटों के कारण प्रभा पुनः बंद हो गई। पर प्रभा की अकाल मृत्यु भी माखनलाल जी के संकल्प और शक्ति को तो नहीं पाई ।

17 जनवरी, 1920 को जबलपुर में साप्ताहिक कर्मवीर निकला इसके प्रधान संपादक श्री सप्रे जी तथा संपादक माखनलाल चतुर्वेदी थे। उन दिनों महात्मा गांधी जनजीवन में कर्मवीर मोहनदास कर्मचंद गांधी कहलाते थे। अतः जनजीवन में नवीन क्रांति उत्पन्न करने के पवित्र उद्देश्य से नए साप्ताहिक का नाम कर्मवीर रखना माखनलाल जी का ही व्यक्तिगत साहस था। कर्मवीर ने देशी रियासतों के दुराचारी राजा महाराजाओं का खूब भंडाफोड़ किया। मध्य भारत के एक महाराजा ने उन्नीस हजार रुपए देकर कर्मवीर का मुंह बंद करना चाहा, किन्तु चतुर्वेदी जी ने आर्थिक कठिनाइयों के होने पर भी इस धन राशि को ठुकरा दिया और कर्मवीर का ईमान बेचने से इंकार कर दिया 1920 . में वे झंडा सत्याग्रह में गिरफ्तार हुए और नागपुर जेल के अपने कारावास काल में उन्होंने शहीद सत्याग्रही हरदेव नारायण सिंह की स्मृति में “झंडे की भेंट” नामक प्रसिद्ध कविता लिखी थी।

प्रताप का संपादन कानपुर से गणेशशंकर विद्यार्थी करते थे। माखनलाल जी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। जब गणेशशंकर विद्यार्थी को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार किया, तब माखनलाल जी ने आगे बढ़कर प्रताप के संपादन की जिम्मेदारी संभाली।

शिक्षक, क्रांतिकारी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 ई. को अपने ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। विद्यार्थी जी सन् 1907 . में यशस्वी लेखक पण्डित सुंदरलाल के साथ उनके साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में योगदान देने लगे और यहीं से पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका आगमन हुआ।

माखनलाल जी एवं गणेशशंकर विद्यार्थी समकालीन थे और दोनों के विचार राष्ट्रीय भावनाओ की ज्वालामुखी से ओत-प्रोत थे। अतः इनमें घनिष्ठ मित्रता थी। जब प्रभा का प्रकाशन बंद हुआ तब आगे बढ़कर गणेश शंकर विद्यार्थी ने माखनलाल जी का साथ दिया तथा एक वर्ष पश्चात् इनके अथक प्रयासों की वजह से प्रभा पुनः प्रकाशित हुई कानपुर से। 9 नवंबर 1913 को कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप निकाला तथा संपादन के लिए समयसमय पर माखनलाल जी से सलाह लेते रहे प्रताप में लेख लिखने के कारण जब ये जेल गए तब माखनलाल जी ने आगे बढ़कर प्रताप का कार्यभासंभाला। राष्ट्रीय विचारधारा से ओत-प्रोत पत्रकारिता के क्षेत्र में ये दोनों एक दूसरे के सहचर थे तथा एक-दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते थे।

भारतीय नवजागरण की सबसे बड़ी उलब्धि है-आधुनिकता। पत्रकारिता आधुनिकता की देन है। आधुनिकता से तात्पर्य पूर्व और पश्चिम के बीच एक सांस्कृतिक सेतु बनाने वाला वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। भारतीय पत्रकारिता की जन्मभूमि बंगाल है और हिंदी पत्रकारिता का जन्म और विकास भी कलकत्ता में ही हुआ। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध की समग्र जातीय चेतना को आत्मसात कर भारतीय समाज के सांस्कृतिक और राजनीतिक उन्नयन में सक्रिय योग देने वाले कलकत्ता के समाचार पत्रों में भारतमित्र, सार-सुधानिधी और उचित-वक्ता आदि की महती भूमिका है। भारतीय समाज में राजनीतिक संस्कार और चेतना जगाने का श्रेय इन पत्रों को है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक पत्रकारों ने अपूर्व त्याग व बलिदान दिया। प्रारम्भ से ही हिंदी पत्रकारिता अपने ऊँचे आदर्शों का पालन करती आ रही है।

डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है। दूसरी मंजिल भारतेंदु हरिश्चंद्र का युग है। तीसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल है। इन सभी कालों की प्रमुख पत्रिकाएँ- संवाद कौमुदी, बंगदूत, समाचार-सुधावर्षण, भारत-मित्र, उचित-वक्ता, हरिश्चंद्र मैगजीन, सरस्वती इत्यादि का प्रमुख योगदान है। पत्रकारिता के क्षेत्र में जागरण की आवश्यकता इसलिए थी कि पत्रिकाओं को पाठक तत्काल मिल जाते हैं और संपूर्ण भारत में सांकृतिक और राष्ट्रीय चेतना को फैलाने के लिए पत्रिकाएँ सबसे अच्छा माध्यम बन सकती थी और हुआ भी यही पत्रिकाओं ने अपनी महत्ता स्थापित की और संपूर्ण भारत में चेतना का प्रसार करने में बड़ा योगदान दिया।

चतुर्वेदी जी की सर्वाधिक रचनाओं में राष्ट्र के प्रति राष्ट्रप्रेम की भावना भरी हुई है ।प्रारम्भ में इनकी रचनाएँ भक्तिमय और आस्था से जुड़ी हुई थीं किन्तु राष्ट्रीय आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी के बाद इन्होंने राष्ट्रीय कविताओं और लेखों को लिखना शुरू कर दिया। ये सृजनात्मक लेखक थे। इनकी लेखन शैली अपने आप में नवीन थी उन्होंने अपनी पत्रिकाओं में समीक्षात्मक लेख भी लिखे।

माखनलाल जी के समय में जब कांग्रेस के बड़े नेता व विचारक राष्ट्रीयता को राजनीति से जोड़कर देख रहे थे तब माखनलाल और मैथिलीशरण गुप्त जैसे महान व्यक्तित्व के लोग इसे सांस्कृतिक सोच से जोड़ रहे थे। माखनलाल जी ने कहा भारत एक सांस्कृतिक देश हैं जहाँ के लोग राष्ट्रीयता की भावना सांस्कृतिक तरीके से देखते हैं और राष्ट्रीयता जगाने के लिए सबसे अच्छा  होगा कि उन्हें उनके गौरव पूर्ण अतीत से अवगत कराया जाय वे क्रांतिकारियों व राजनीतिज्ञों को अलग-अलग दृष्टि से देखते थे।                            

वैष्णव चेतना किसी भी विदेही चेतना से बड़ी है क्योंकि  उसका मूल है पराई पीर को जानना। माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन और कृतित्व भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभावी साहित्यिक स्वर है इस स्वर की मुख्य चेतना वैष्णव है और माखनलाल चतुर्वेदी के प्रेरक प्रतीक कृष्ण हैं। माखनलाल चतुर्वेदी की गीतात्मक चेतना और उनके गीत ऐसे है कि छायावाद में भी ऐसे गीत नहीं लिखे जाते। उनकी अमरता प्राप्त कविता पुष्प की अभिलाषा तो आज तक लोगो की जुबान पर चढ़ी हुई है। जबलपुर जेल में कैदी और कोकिला क्रांतिकारियों को बहुत प्रिय थी।

माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं ने भारतीय समाज को राष्ट्रीय चेतना से न सिर्फ जोड़ने का काम किया बल्कि आदर्श जीवन मूल्यों और भारतीय संस्कृति के तत्वों से भी जोड़ दिया। माखनलाल चतुर्वेदी हिंदी साहित्य के कवि, निबन्ध-लेखक, पत्रकार और वक्ता सब कुछ थे। पत्रकारिता के लिए इनकी स्पष्टता-कर्मवीर के संपादन को लेकर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की स्पष्टता को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रसंग है भारतीय भाषाई पत्रकारिता से अंग्रेजी शासन भयंकर डरा हुआ थाभाषाई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए तमाम  प्रयास प्रशासन ने कर रखा था। यदि  किसी को भारतीय भाषा में समाचार पत्र प्रकाशित करना है तो उसका अनुमति पत्र जिला मजिस्ट्रेट से प्राप्त करना होता थाअनुमति प्राप्त करने से पहले समाचार पत्र का उद्देश्य स्पष्ट करना होता था इसी संदर्भ में माखनलाल जी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गए तब वहाँ सप्रे जी, राय बहादुर जी, पंडित विष्णुदत्त सहित अन्य लोग उपस्थित थे

          जिला मजिस्ट्रेट के पास जाते समय राबहादुर समझ रहे थे कि  माखनलाल जी कुछ बोल नहीं पाएँगे इसलिए उन्होंने उनको  एक पत्र दिया था उसमें  लिखा था कि मैं बहुत गरीब हूँ और उदार पूर्ति के लिए पत्र निकालना चाहता हूं, किंतु माखनलाल चतुर्वेदी सत्य और साहस की हामी थे उन्होंने यह आवेदन मजिस्ट्रेट को नहीं दिया जब मिस्टर मिथाइस आईसीएस ने पूछा कि एक अंग्रेजी पत्र के  होते हुए आप हिंदी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं तो उन्होंने बड़ी स्पष्टता से कहा आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता मैं ऐसा पत्र निकालना चाहता हूँ कि ब्रिटिश शासन चलते-चलते रुक जाए मिस्टर मिथाइस, माखनलाल चतुर्वेदी जी के साहस को देखते हुए बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने बिना जमानत राशि लिए ही कर्मवीर निकालने की अनुमति उनको दे दिया यही साहस और बेबाकी चतुर्वेदी जी की पत्रकारिता की पहचान बनी उनकी पत्रकारिता ने आत्म शौर्य और अपराजेय भावना को जन-जन के मन में भरा और लेखकों , कवियों तथा पत्रकारों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार की जिनकी अभिव्यक्ति निरंतर आग से नहाती रहीचतुर्वेदी जी पत्रकारिता के  शाश्वत प्रतिनिधि हैं।

माखनलाल चतुर्वेदी देश की राजनीति को पहचानने वाले पहले हिंदी साहित्यकार थे। ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीय जनता को जिस अत्याचार और दमन का सामना करना पड़ रहा था उसका जीता जागता चित्र चतुर्वेदी जी की अनेक कविताओं में अंकित हुआ है। कवि ने स्वयं अनेक बार जेल की कठोर यातनाएँ सही थी यही कारण है उनकी कविताएँ अनुभूति की सच्चाई के कारण और मार्मिक बन गईं हैं। मरण त्योहार, कैदी और कोकिला, सिपाही, सिपाहिनी, जलियावाला बाग, जवानी, शीर्षक की कविताएँ आज भी पाठक के हृदय में राष्ट्र प्रेम की उमंग पैदा करती हैं  माखनलाल जी की कविताएँ समस्त भारतीय इतिहास की आवाज है।

पूरे देश के हृदय को झकझोर देने की उनमें क्षमता है। जो कवि–“ऊँची काली दीवारों के घेरे में , डाकू चोरों बदमाशों के डेरे में” घिरा रहकर भी हार नहीं मानता और निरंतर कहता है–“खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कुआँ” वह कवि निश्चित ही धरती का कवि है। स्वातंत्र्य आंदोलन का ऐसा और इससे अधिक और कहाँ आत्मबलिदान का भाव देखने को मिलता है।

निष्कर्ष-

         भारतीय नवजागरण की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के आरम्भिक दशा से मानी जाती है। भारत के उत्तर और दक्षिण में नवजागरण का आविर्भाव करीब एक ही समय में हुआ। भारतीय नवजागरण ने जब आंदोलन का स्वरूप ग्रहण किया तब उसके नेतृत्व में राजाराममोहन राय, रविन्द्र नाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, श्रीनारायण गुरु जैसे अनेक महापुरुष जुड़ गए। नवजागरण के सशक्त सेनानियों के हांथो में पैनी हथियार के रूप में उस जमाने की पत्र-पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय नवजागरण की पृष्ठभूमि के सूक्ष्म अध्ययन से यह नतीजा निकलता है कि इन पत्रों के बिना नवजागरण शायद ही सम्भव हो पाता। भारतीय नवजागरण की सबसे बड़ी उपलब्धि है आधुनिकता। पत्रकारिता आधुनिकता की देन है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में श्री माखनलाल चतुर्वेदी का योगदान ऐतिहासिक महत्व का रहा है।  उन्होंने प्रभा, प्रताप और कर्मवीर के माध्यम से देश और समाज को जागृत करने का अद्भुत कार्य किया। इनकी विद्रोहात्मक लेखनी से शासन घबरा गया और इन्हें कई बार कारावास का दंड मिला । पत्रकारिता के क्षेत्र में ये जिन विभूतियों के आत्मीय सम्पर्क में आएँ उनमें प्रमुख थेश्री माधव राव सप्रे, श्री गणेश शंकर विद्यार्थी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महात्मा मुंशीराम तथा पंडित विष्णुदत्त शुक्ल। कर्मवीर सप्ताहिक और प्रभा में माखनलाल जी की जो रचनाएं प्रकाशित हुईं उन्होंने उस समय के हिंदी काव्य में क्रांतिकारी और राष्ट्रीय विचारधारा को एक प्रमुख काव्य प्रवृत्ति के रूप में स्थापित कर दिया। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि चतुर्वेदी जी ने स्वतंत्रता संग्राम की विस्तृत भावभूमि का निर्माण किया और उसमें लड़ने और घूमने वालों की ऐसी टोली तैयार की जिसमें अदम्य साहस एवं गहन आत्मविश्वास था ।        

वे देश के स्वतंत्रता संग्राम के अदम्य सेनानी थे, पत्रकारिता के क्षेत्र में राष्ट्र के जागरूक प्रहरी थे। कविता के क्षेत्र में राष्ट्र पर बलिदान हो जाने का महान आदर्श प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति थे। संक्षेप में  यह कहा जा सकता है कि यह नवजागरण  समस्त भारतीय चेतना का जागरण था जिसमे सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक चेतना, राजनीतिक चेतना, आर्थिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना समाहित है।

 


आनन्द तिवारी

शोधार्थी

महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय

बड़ौदा, गुजरात

 

 


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