बुधवार, 28 जून 2023

कविता

 


नवाबों का नगर

(२३/१२/१९९३)

गोपाल जी त्रिपाठी

 

आदमी के आबरू की

अर्थी उठती देखकर,

ठाठ मारे नग्नता चौरास्ते

पर हँस रही है ;

 अब नहीं रहता कोई

  परदा गिराकर शहर में,

क्योंकि अब कश्मीर के बूटे

 कहीं मिलते नहीं --क्योंकि -----

 अब न चोली-ओढनी का मेल

 दिखता घाघरा -अब न चोली----

 क्यों कि सरे-पंचनद अमन के

 फूल अब खिलते नहीं ---

चोरों-उचक्कों से नवाबों का

  नगर सब अट गया है - चोरों-उचक्कों---

 दर्जी भी कुर्ते को जालीदार

  अब सिलते नहीं --दर्जी भी -----

  खुशी हरदम खेलती थी जहाँ

  हर शामों-सहर --खुशी हरदम----

  नफरतों की गली में प्यार

  के दीवाने भी --नफरतों की गली में --

बहुत दिन बीते कहीं

 बेखौफ अब मिलते नहीं --बहुत दिन बीते कहीं बेखौफ अब मिलते नहीं --बहुत दिन बीते-------!!


 

गोपाल जी त्रिपाठी

ग्राम पोस्ट-नूनखार,देवरिया

हिंदी प्रवक्ता,

सेंटजेवियर्स स्कूल

सलेमपुर

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