नवाबों का नगर
(२३/१२/१९९३)
गोपाल जी
त्रिपाठी
आदमी के आबरू की
अर्थी उठती
देखकर,
ठाठ मारे नग्नता
चौरास्ते
पर हँस रही है ;
अब नहीं रहता कोई
परदा गिराकर शहर में,
क्योंकि अब
कश्मीर के बूटे
कहीं मिलते नहीं --क्योंकि -----
अब न चोली-ओढनी का मेल
दिखता घाघरा -अब न चोली----
क्यों कि सरे-पंचनद अमन के
फूल अब खिलते नहीं ---
चोरों-उचक्कों
से नवाबों का
नगर सब अट गया है - चोरों-उचक्कों---
दर्जी भी कुर्ते को जालीदार
अब सिलते नहीं --दर्जी भी -----
खुशी हरदम खेलती थी जहाँ
हर शामों-सहर --खुशी हरदम----
नफरतों की गली में प्यार
के दीवाने भी --नफरतों की गली में --
बहुत दिन बीते
कहीं
बेखौफ अब मिलते नहीं --बहुत दिन बीते कहीं बेखौफ
अब मिलते नहीं --बहुत दिन बीते-------!!
गोपाल जी
त्रिपाठी
ग्राम
पोस्ट-नूनखार,देवरिया
हिंदी प्रवक्ता,
सेंटजेवियर्स
स्कूल
सलेमपुर
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