मंगलवार, 30 मई 2023

कविता

 



मातृ दिवस पर दो कविताएँ

डॉ. ऋषभदेव शर्मा

 

1

गर्भभार

 

सँभलकर, बहुरिया,

त्रिशला देवी के सोलहों सपनों का सच

तेरे गर्भ में है।

 

नहीं,

दिव्यता का आलोक

केवल तीर्थंकरों की माताओं के ही

आनन पर नहीं विराजता;

हर बेटी, हर बहू

जब गर्भ-भार वहन करती है

उतनी ही आलोकित होती है।

 

हिरण्यगर्भ है

हर स्त्री।

उसके भीतर प्रकाश उतरता है,

प्रभा उभरती है,

प्रभामंडल जगमगाते हैं।

प्रकाश फूटता है

उसी के भीतर से।

 

प्रकाश सोया रहता है

हर लड़की के घट में,

और जब वह माँ बनती है

नहा उठती है

अपने ही प्रकाश में,

अपनी प्रभा में।

अपने प्रभामंडल में।

 

सँभलकर, बहुरिया,

तेरे अंग-अंग से किरणें छलक रही हैं!

***

2

विस्मरण

 

वह खाली आँखों से मुझे देख रही थी निर्निमेष

पहचानने की कोशिश करती हुई

 

मैंने अपनी पहचान बताई

वह सुन न सकी,

दोनों कानों के परदे ध्वस्त हो चुके थे

 

मैं पास जा बैठा सटकर

उसकी उँगलियाँ सहलाईं

गाल छुए

वह वैसे ही देखती रही - कोई पहचान नहीं!

मुझे देख रही थी या मेरे पार; आज तक पता नहीं

 

मैंने उसकी गोद में सिर रख दिया

दुनिया की सबसे गरम सेज अभी ठंडी नहीं हुई थी!

मैंने धीरे से पुकारा - माँ....

उसकी पुतलियाँ घूमीं - स्मृति लौट रही थी!

उसने होंठ खोले - आवाज़ जा चुकी थी!

 

कडुआती आँखें मींच लीं मैंने आँसू गटकने को

अहह! उसने मेरे बालों में उँगलियाँ फिराईं ;

मैंने आँखें खोलीं - वह मुझे पहचान रही थी!

आँखों में आँखें डाल कर मैंने काँपते स्वर में कहा - माँ, राम राम;

माँ के होंठ फडफडाए- जीभ नहीं उठी

आवाज़ नहीं निकली - पर असीसती उँगलियाँ बोल रही थीं

 

माँ अंतिम क्षण की प्रतीक्षा में थी

मुझे ट्रेन पकडनी थी!

***

 


डॉ. ऋषभदेव शर्मा

सेवा निवृत्त प्रोफ़ेसर

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा

हैदराबाद

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