राहुल
सांकृत्यायन की आँखों से : पाँच बौद्ध दार्शनिक
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
बौद्ध
धर्म भारत की श्रमण परंपरा से निकला धर्म और महान दर्शन है। ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना हुई है। उनके महापरिनिर्वाण
की अगली पाँच शताब्दियों में बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो
हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण पूर्वी जम्बू महाद्वीप
में भी फैल गया। आर्य सत्य की संकल्पना बौद्ध दर्शन का मूल सिद्धांत है। इसे संस्कृत
में ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ और पालि में ‘चत्तरि अरयसच्चानि’ कहते हैं। वे चार आर्य
सत्य है-
1) दुःख
– संसार में दुःख है
2) समुदय
– दुख के कारण है
3) निरोध
– दुख के निवारण है
4) मार्ग
– निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग है
बौद्ध
धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय हैं- हीनयान, धेरवाद,
महायान, वज्रयान और नवयान परंतु बौद्ध धर्म एक
ही है एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धांत को ही मानते हैं।
ये
तो हुई संक्षिप्त जानकारी बौद्ध धर्म की, हिंदी
साहित्य और बौद्ध दर्शन का आपस में बहुत गहरा संबंध है, आधुनिक
हिंदी साहित्य की विधिवत शुरूआत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध
से हुई है और लगभग यही समय भारत में लुप्त प्राय बौद्ध धर्म के पुनर्जागरण काल का भी
है। भारत में बौद्ध धर्म के इस पुनर्जागरण का श्रेय पाश्चात्य जगत को देना गलत न होगा।
ईसाई धर्म के प्रोटेस्टेंट मतवाले ब्रिटेन ने बौद्ध धर्म के सुधारवादी रूप स्थाविरवाद
में अपनी रूची दिखते हुए अपने अधीनस्थ श्रीलंका के स्थाविरवाद बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद
करवाया तो कैथोलिक मतानुयायी फ्रांस एवं इटली के विद्वानों ने चीन, जापान एवं तिब्बत में उपलब्ध महायान सूत्रों और भाव्यों में अपनी रूची दिखायी।
बौद्ध धर्म के इस पुनर्जागरण से हिंदी जनमानस भी प्रभावित हुआ। आधुनिक हिंदी साहित्यकारों
में मैथिलीशरण गुप्त, रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर
प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन
अज्ञेय आदि की रचनाएँ बौद्ध दर्शन से प्रत्यक्षतः
संबंध रखती है। इनमें राहुल सांकृत्यायन के
आँखों से बौद्ध दर्शन को देखना अपने आप में एक रोचक साहित्यिक यात्रा है। उन्होंने
बौद्ध दर्शन का विशेषकर उसके न्यायदर्शन का भी गंभीर अध्ययन किया था। सन् 1926-1927 के समय जब पंडितजी श्रीलंका के ‘विद्यालंकार परिवेण’ में अध्यापन और अध्ययन
कर रहे थे तब उन्हें पता चला प्राचीन बौद्ध दार्शनिकों के अमूल्य ग्रंथ भारतवर्ष में
उपलब्ध नहीं है, वे ग्रंथ तिब्बत के प्राचीन मठो-विहारों में
सुरक्षित हैं। पंडित जी ने 1929, 1934, 1936 और 1938 में तिब्बत के दुर्गम भूखंडों कठिन यात्राएँ की उनके इन्हीं यात्राओं का परिणाम
था कि भारत के फिर से बौद्ध दार्शनिकों- नागार्जुन, असंग,
बसुबंधु, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के विचारों को
भारतीय पाठकों तक पहुँचाने तथा उनके विचारों पर शोध कार्य करने का श्रेय ‘राहुल सांकृत्यायन ’ को ही जाता है। प्रस्तुत आलेख
में इन पाँच बौद्ध दार्शनिकों के विचारों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है –
1) नागार्जुन
– नागार्जुन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। दर्शन में ‘माध्यामिक दर्शन’ उनकी महान देन
है। कहा जाता है कि विदर्भ के एक ब्राह्मणकुल में वे पैदा हुए थे। नागार्जुन सातवाहन
कुल के अपने समकालीन राजा के संरक्षण में थे। नागार्जुन ने बुद्ध के ‘अनात्म दर्शन’
की 71वीं कारिका में शून्यता की महिमा गाते हुए उन्होंने कहा है –
‘‘प्रभवित च शून्यतेयं यस्य
प्रभवन्ति तस्य सर्वाथाः।
प्रभवति न तस्य किंचित् न भवति शून्यता
यस्य।।’’
अर्थात्
‘‘जो शून्यता को समझ सकता है, वह सभी अर्थों को
समझ सकता है। जो शून्यता को नहीं समझता वह कुछ भी नहीं समझ सकता।’’
उक्त
उद्धरण से स्पष्ट होता है कि अपने ‘शून्यवाद’’ को उन्होंने बुद्ध के मौलिक सिद्धांत
‘‘प्रतीत्यससखुत्पाद’’ का पर्याय माना है। बुद्ध ने संसार के सभी वस्तुओं को अनित्य
अर्थात् क्षणिक ही तो माना था। नागार्जुन ने दृष्टिवाद की सीमा ही नहीं उसकी अयुक्ति-युक्तता
को विशद रूप से व्याख्यायित किया है। उनका मानना था कि सत्य या चेतना का कोई सत्-असत्
भेद नहीं हो सकता है। सत्य या चेतना अपने आप में ही पूर्ण है।
2) असंग
– नागार्जुन के बाद दूसरे महान बौद्ध दार्शनिक
आचार्य असंग हुए। असंग गंधार देश की राजधानी पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) में ईसा की चौथी
सदी में कौशिक गोत्रीय एक ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे। उन्होंने जहाँ एक ओर ‘अभिधर्मकोश’
और उसके भाष्य के रूप में वैभाषिक दर्शन पर गंभीर ग्रंथ लिखा और दूसरी तरफ ‘बौद्ध न्यायशास्त्र’
की बुनियाद भी उन्होंने ही रखी। असंग ने ही गंधार को महायान के ‘विज्ञानवाद दर्शन’
का गढ़ बन सका। असंग की 31 पुस्तकें चीनी और तिब्बती
अनुवादों के रूप में सुरक्षित हैं। अद्वैत विज्ञानवाद से संबंधित उनकी महत्वपूर्ण कृति
‘योगाचार भूमि की प्रतिलिपि राहुल जी तिब्बत से तैयार करके लाए थे। असंग के अद्वैत
विज्ञानवाद को छठी शताब्दी के शंकराचार्य ने भी ग्रहण किया था।
3) वसुबन्धु
– दार्शनिक वसुबंधु आचार्य असंग के अनुज
थे और बौद्धों के विज्ञानवाद एवं योगाचार दर्शन के आचार्य थे। चीनी भाषा के दूसरे महान
भारतीय अनुवादक परमार्थ (500-59 ई.) द्वारा लिखित
‘वसुबन्धुचरित’ आज भी चीनी भाषा में (नन्जियो 1463) मौजूद है।
वसुबन्धु बहुत अधिक समय तक अयोध्या में ही रहे। वसुबन्धु ने बौद्ध त्रिपिटक के सार
रूप में ‘अभिधर्मकोश’ को लिखा। पिछली 16 शताब्दियों में यह सबसे
अधिक पढ़ा जानेवाला दार्शनिक ग्रंथ है। आज भी जापान, चीन,
तिब्बत और मंगोलिया में यह पाठ्यग्रंथ हैं ‘अभिधर्मकोश’ को उन्होंने
आठ स्थानों (परिच्छेदों) में लिखा है जिनके विषय हैं- 1. धातु
निदर्श 2. इन्द्रिय निदर्श 3. लोकधातु निदर्श
4. कर्म निदर्श 5. अनुशय 6. आर्यमार्ग 7. ज्ञान 8. ध्यान
4) दिग्नाम
– दिग्नाग का जन्म तमिल प्रदेश के कांची
(कंजीवरम) के पास सिंहवक् नामक एक गाँव में एक ब्राह्मण घर में हुआ था। दिग्नाग की
जीवनी के बारे में हमें तिब्बती परंपरा से इतना ही मालूम है कि वसुबन्धु के शिष्य थे।
कालिदास और दिग्नाग दोनों चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-495)
के समकालीन थे। न्यायमुख के अतिरिक्त दिग्नाग का मुख्य ग्रंथ प्रमाण
समुच्चय है जो सिर्फ तिब्बती भाषा में ही मिलता है। दिग्नाग के प्रमाण समुच्चय के सम्मुख
तर्कशास्त्र की दृष्टि से ब्राह्मण परंपरा आज भी हतप्रभ हो जाती है लेकिन पंडित जी
इस पुस्तक को प्राप्त नहीं कर सके इस बारे में उन्होंने स्वयं कहा है, ‘‘प्रमाण समुच्चय’’ मूल संस्कृत में अभी तक नहीं मिला है, मैंने अपनी चार तिब्बत-यात्राओं में इस ग्रंथ को ढूढँने में बहुत परिश्रम किया
परंतु इसमें सफलता नहीं मिली। किंतु मुझे अब भी आशा है कि वह तिब्बत के किसी मठ,
स्तूप या मूर्ति के भीतर से जरूर कभी मिलेगा।’’
5) धर्मकीर्ति
– धर्मकीर्ति का जन्म चोल प्रांत के तिरूमले
नामक ओग्राम में एक ब्राह्मण के घर में हुआ था। धर्मकीर्ति बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली
थे। पहले उन्होंने ब्राह्मणों के शास्त्रों और वेद-वेदांगों का अध्ययन किया फिर नालंदा
चले गए और अपने समय के महान विज्ञानवादी दार्शनिक तथा नालंदा के संघ स्थविर धर्मपाल
के शिष्य बन भिक्षु- संघ में सम्मिलित हुए। धर्मकीर्ति ने अपने ग्रंथ सिर्फ प्रमाण
संबंद्ध बौद्ध दर्शन या बौद्ध प्रमाणाशास्त्र पर लिखे हैं।
इन
दार्शनिकों के बारे में और राहुल सांस्कृत्यान जी के द्वारा बौद्ध दर्शन के ऊपर किए
गए कार्यों को एक आलेख में समेटना नामुमकीन है। यह केवल एक छोटा सा प्रयास है ‘राहुल सांकृत्यायन ’ की आँखों से
पाँच बौद्ध दार्शनिकों को देखने का।
सहायक
पुस्तक :
राहुल सांकृत्यायन - पाँच बौद्ध दार्शनिक, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 1994
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
भवन्स, विवेकानंद कॉलेज
सैनिकपुरी,
हैदराबाद
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