ज़बान सँभाल के!
डॉ. ऋषभदेव शर्मा
नफ़रत पैदा करने वाले भाषणों के खिलाफ माननीय सर्वोच्च
न्यायालय की सख्ती सराहनीय है। लेकिन लोकतांत्रिक समाज में ऐसी नौबत आना कोई अच्छी
बात नहीं है। स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के साथ ही ‘भाईचारा’ भी तो लोकतंत्र का बुनियादी मूल्य है न?
फिर ऐसी स्थितियाँ क्यों पैदा होती हैं कि लोग (खासकर वे
जिन्हें सामाजिक- राजनैतिक- धार्मिक समूहों या पार्टियों का नेता कहा जाता है)
अपने ही देशवासियों के खिलाफ विद्वेष की आग उगलने लगते हैं?
विडंबना यह है कि ये ही लोग प्रायः विश्वबंधुत्व और
मानवतावाद की दुहाई देते भी नहीं थकते! दु:ख तब और भी ज़्यादा होता है जब ये लोग
नफरत फैलाने वाली तमाम बातें करने के बावजूद कानून के कटघरे तक पहुँचने से साफ बच
निकलते हैं। कहना न होगा कि समाज को विघटित करने वाले भाषणों के बावजूद इस तरह
बेदाग रहने की सुविधा इन्हें और अधिक ढीठ, लापरवाह और गैर-जिम्मेदार बनाती है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का
ऐसा आपराधिक दुरुपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, यह सचमुच बड़ी चिंता की बात है। यही वजह है कि सर्वोच्च
न्यायालय ने नफरत फैलाने वाले भाषणों के खिलाफ शिकायत न होने पर भी मामले दर्ज
करने का निर्देश दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सार्वजनिक वक्तव्य देने वाली
हस्तियाँ अब कुछ तो सतर्कता बरतेंगी ही!
गौरतलब है कि
न्यायमूर्ति के एम जोसफ और न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना की पीठ ने नफरत
फैलाने वाले भाषणों को ‘‘गंभीर अपराध” माना है और कहा है कि ऐसे भाषणों से देश के
धार्मिक ताने बाने को नुकसान पहुँच सकता है।
याद रहे कि 2022 में सर्वोच्च न्यायालय ने
उत्तर प्रदेश, दिल्ली और उत्तराखंड को निर्देश दिया था कि नफरत फैलाने
वाले भाषण देने वालों पर कड़ी कार्रवाई की जाए। उस समय न्यायालय ने इस बात पर
अफसोस जाहिर किया था कि ‘‘धर्म के नाम पर हम कहाँ पहुँच गए हैं?’’
इसी आदेश का दायरा तीन राज्यों से आगे बढ़ाते हुए अब सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को नफरत
फैलाने वाले भाषण देने वालों के खिलाफ मामला दर्ज करने का निर्देश दिया गया है, भले ही कोई शिकायत न की गई हो! इतना ही नहीं,
यह चेतावनी भी दी गई है कि मामले दर्ज करने में किसी भी
देरी को अदालत की अवमानना माना जाएगा। इससे न्यायपालिका की चिंता और गंभीरता को
समझा जा सकता है।
यहाँ समझने वाली बात यह भी है कि अब तक चुनाव के दौरान राजनैतिक भाषणों में किसी नेता के नफरत फैलाने
वाला भाषण देने पर उनके खिलाफ याचिकाकर्ता को चुनाव आयोग के पास जाना पड़ता था। चुनाव
आयोग से अनुमति मिलने पर ही मामला दर्ज किया जा सकता था। लेकिन अब
राज्य नफरती भाषण देने वालों के खिलाफ सीधे ‘लीगल एक्शन’ ले सकेगा। लेकिन यह तो भविष्य ही बताएगा कि,
अब तक आग लगा कर बच निकलने वालों को यह व्यवस्था किस हद तक
जवाबदेह बना सकेगी? क्योंकि राज्य असल में तो उन्हें छूने से प्रायः बचता ही
दिखाई देता है जिनके पास ताकत होती है!
देखना यह भी होगा कि इस व्यवस्था का दुरुपयोग बेकसूरों को
फँसाने के लिए न किया जाए। क्योंकि जिन्हें यह शक्ति दी जा रही है,
उन्हें विवेकवान और निष्पक्ष होना चाहिए। न्यायपीठ के ध्यान
में यह बात जरूर रही होगी, तभी तो उसने यह भी कहा है कि न्यायाधीश “अराजनैतिक” होते
हैं और पहले पक्ष या दूसरे पक्ष के बारे में नहीं सोचते और उनके दिमाग में केवल एक
ही चीज रहती है – “भारत का संविधान।” उम्मीद की जानी चाहिए कि घृणा फैलाने वाले
भाषण देने वालों का विचार करते समय न्याय के इस उच्च आदर्श का पालन किया जाएगा।
डॉ. ऋषभदेव
शर्मा
सेवा निवृत्त
प्रोफ़ेसर
दक्षिण भारत
हिन्दी प्रचार सभा
हैदराबाद
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