हैप्पी वैलेंटाइन-डे
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
कबीर ने कहा था- ‘प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।’ उन्हें क्या पता था कि आगे चलकर उदारीकरण का ज़माना आएगा।
हमारा मनोबल बढ़ जाएगा। हम ग्लोबल हो जाएँगे । अब बाड़ी में प्रेम के उत्पन्न न
होने की बात पुरानी पड़ गई। अब तो प्रेम चने के खेत में (‘ओ मज़ा हुइबे चने के खेत में’) नदी या समुद्र के किनारे रेत
में; गाँव-कसबे-शहर में, गली-कूचे-डगर में, अकेले-दुकेले में, मेले-ठेले-रेले में; आवारागर्दी में, काली- सफ़ेद, खाकी-नीली-पीली हर प्रकार की वर्दी में;
पुस्तकालय में, देवालय में, पंगत में, साधु-संगत में, यानी कहीं भी और कभी प्रेम पैदा हो जाता है। प्यार के लिए
अब जाड़ा,
गर्मी, बरसात हर मौसम आशिकाना है।
अब तो प्रेम बाज़ार-हाट में खुले आम बिकने भी लगा है।
ख़ासतौर से - ‘वैलेंटाइन-डे’ पर। ‘वैलेंटाइन-डे’ अब प्रेमोत्सव ही नहीं रहा, बहुराष्ट्रीय व्यापारिक कम्पनियों ने उसे ‘उपभोक्ता महोत्सव’
बना दिया है। इस दिन लाखों की संख्या में ग्रीटिंग कार्ड,
गुलाब के फूल और तरह-तरह के उपहार हाथों-हाथ बिक जाते हैं। ‘वैलेंटाइन-डे’
दुकानदारों के लिए चाँदी काटने का दिन है, तो होटल रेस्टोरेण्ट वालों के लिए सोने की रात। खाने-पीने
का,
आँखों में आँखें डाल कर युवा क़दमों के थिरकने का,
कमरे में रात बिताने का ख़ास इन्तिज़ाम और बदले में मनचाहे
दाम ।
लैला-मजनूँ, शीरीं-फरहाद, हीर राँझा, अब नहीं रहे, तो क्या हुआ? ‘वैलेन्टाइन-डे’ के ये दीवाने नये रोमियो-जूलियट तो हैं।
जिगर साहब ने न जाने किस झोंक में लिख मारा कि –
यह इश्क नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
आज के प्रेमियों का मानना है कि ये दकिनायूसी बातें हैं।
प्यार में कठिनाई कैसी? प्यार करना तो बहुत आसान है। चट आँखें चार,
पट प्यार और झट अभिसार। आज की इस भागमभाग की ज़िन्दगी में
प्रेम में दरिया जैसी गहराई कौन देखता है? प्रेम की आग का दरिया जब होगा, तब होगा।
उसमें डूबे हमारी जूती। अब उन्मुक्त, हसीन और रंगीन प्रेम का ज़माना है। एकदम
खुला-खुला, चुलबुला प्यार। ठीक पेप्सी जैसा - ठण्डा, कूल-कूल।
‘वैलेंटाइन-डे’ प्यार के इज़हार का दिन है। प्यार के दीवानों के दिल समुद्र
की तरह लहरा उठते हैं। उनमें भावनाओं की तरंगें ज़ोर मारने लगती हैं। सन्देशों में
कहा जाता है- ‘आज मुलाक़ात ही नहीं, मुलाक़ात के साथ-साथ बात भी।’ जो बेचारे प्यार जताने को
लाल गुलाब नहीं पाते, वे दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए पीला गुलाब देकर तसल्ली कर
लेते हैं। क्या करें? भागते भूत की चड्डी ही सही। कुछ और या हो,
फूल थमाकर मन में जमा कुछ धूल-धुआँ तो निकल ही जाता है।
नये प्रेमियों के अनुसार प्यार तो प्रकृति का अनमोल रत्न है,
उपहार है। प्यार ज़िन्दगी का दूसरा नाम है। प्यार ही
ज़िन्दगी का असली काम है। प्यार के बिना किया गया नियोजित ब्याह आह- कराह में बदल
जाता है। ‘वैलेन्टाइन पर प्यार के अंकुर फूटते हैं, तो उन पर रहम किया जाए, उन्हें पल्लवित, पुष्पित और सुरभित होने का पूरा-पूरा मौक़ा दिया जाए।
प्राचीन संस्कृति में भी ‘वासन्ती प्रणय दिवस’ मनाया जाता था। उसी का नवीन रूप है यह वैलेंटाइन-डे – प्रेम दिवस। हैप्पी बर्थ-डे,
हैप्पी न्यू ईयर और हैप्पी दिवाली की तरह ‘हैप्पी वैलेंटाइन-डे’ कहने और उसे मनाने में क्या हरज़ है?
कहा जाता है कि ‘वैलेंटाइन डे’ पश्चिम से आया है। पश्चिम से आया तो क्या हो गया?
पश्चिम से हमारे यहाँ और भी बहुत कुछ आया है – पश्चिमी सभ्यता,
वेश-भूषा, भाषा, रहन-सहन, आचार-विचार आदि-आदि । अगर भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर
रोकने का इतना ही चाव है, पहले सबको रोको। ‘वैलेन्टाइन डे’ लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?
एक ओर प्यार का इज़हार, उमंगों के झूले, बढ़ती हुई पेंगें, तो दूसरी ओर शिव के गणों और वीर हनुमान पट्ठों की टोली। रंग
में भंग। पार्कों,दुकानों, रेस्टोरैण्टों पर
हल्ला बोल अभियान। ग्रीटिंग-कार्डों, पोस्टरों, उपहारों की होली। विरोधी चाहते कि वैलेंन्टाइन-डे पर प्यार या
उसकी कोई बढ़ोतरी न हो पाए और तोड़-फोड़ मचा कर सैक्स पर इतना टैक्स लगा दें कि
उसकी भरपाई भी न हो सके।
वैसे फूल अब त्रिशूल को अँगूठा दिखाना सीख गया है। होशियार
वैलेंटाइन-प्रेमी युगल अब किसी पार्क या होटल के बजाय श्मशान और क़ब्रिस्तान जैसी
महफूज़ और सुनसान जगह पर जाने लगे हैं और वहाँ अपने प्यार की इबारत लिखने का शौक
फ़रमाने लगे हैं।
एड्स के डर से सुरक्षित यौन-सम्बन्ध का प्रचार तो बहुत हो रहा
है, पर प्यार के मामले में हमारा देश अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। चीन के शंघाई के एक
सिनेमाघर में तो ‘वैलेंटाइन-डे’ पर कण्डोम बिलकुल फ्री बाँटे गए। हमारे यहाँ ऐसा कब होगा?
हाँ, भारतीयों के लिए फिलहाल एक नई खुशखबरी है कि जो नंगा होना
चाहता हो,
अथवा जो प्राकृतिक अवस्था में घूमने की इच्छा रखता हो,
मगर ऐसा करने में लोक-लाज का भय आड़े आता हो, तो उसे ‘वैलेंटाइन-डे’ ज़रूर-ज़रूर मनाना चाहिए, क्योंकि बजरंगियों ने ताल ठोकर यह ऐलान किया है कि जो इस
दिन प्रेम-प्रदर्शन करता पकड़ा जाएगा, उसे सड़कों पर नंगा घुमाया जाएगा।
(व्यंग्य संग्रह - स्वार्थ सरिस धर्म नहिं कोऊ, पृ. 17-19 से
साभार)
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
आगरा (उ.प्र.)
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