शनिवार, 26 नवंबर 2022

व्यंग्य

 



पत्र से मोबाइल तक

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

पत्र लिखने का चलन बड़ा पुराना है। पत्र को आधा मिलनकहा गया है। लेकिन जब से सूचना प्रौद्योगिकी का युग आया है, पत्र-लेखन का सफाया होता जा रहा है। अब तो टेलीफोन और मोबाइल का जादू आदमी के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। लोग पत्र लिखने से जी चुराने लगे हैं।

छोटों द्वारा सहर्ष चरण-स्पर्श, बड़ों का शुभ आशीर्वाद, पारस्परिक स्नेह-सौहार्द की फुहार, भैया का दुलार, बहिन का प्यार, ननदी के उलाहने, भाभी की नसीहत, हास-परिहास, मैत्री-भाव की बौछार, ज्ञान-उपदेश, मंगल-कामना सन्देश, मीठी-मीठी रस भरी बतियाँ- उनकी स्मृतियाँ, शिकवे-गिले, दो दिलों के बीच पनपी प्रीति के सिलसिले । कितना कुछ होता था रिश्तों की सुगन्ध से महकते चहकते इन पत्रों में!

अब तो वह समूचा रस-सागर ही सूखता जा रहा है। पत्र होंगे ही नहीं, तो कौन उन्हें बड़े जतन से सँभाल कर धरेगा? कौन उन्हें बार-बार पढ़कर यादों को तरो-ताज़ा करेगा? अब किसी बेवफ़ा के प्रेम-पत्रों को न आग में जलाने की ज़रूरत पड़ेगी, न नदी में बहाने की।

मरने के बाद, किसी के घर से अब चन्द हसीनों के ख़तूततो निकलने से रहे। कोई झूठ-मूठ भले ही कहे। बड़े-बड़े लेखकों, कवियों और प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिखे पत्र अमूल्य धरोहर बन गए। वे पत्र हज़ारों-लाखों डॉलरों में नीलाम हुए। अब क्या होगा? न नाम, न दाम। पूर्ण विराम।

अब किसी के लिखे प्रेम-पत्रों को उजागर करने की धौंस जमाने और ब्लैकमेल करने की गुंजाइश पर भी पानी फिर गया।

इस हाईटेक ज़माने में कौन कमबख़्त पत्र लिखने - लिखाने के झमेले में पड़े, काग़ज़ क़लम ढूँढ़ता फिरे, सोचने-विचारने में समय बर्बाद करे, भावों को सहेजे समेटे, रच-पच कर लिखे ताकि पत्र सुन्दर दिखे, और फिर उसे लैटर - बॉक्स में डालने की जहमत उठाए या खुशामद करके किसी से डलवाए। लैटर - बॉक्स भी तो डाक विभाग का लैटर बॉक्स है। समय पर खुला, न खुला।

प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा चोरी-छुपे पत्र लिख कर उससे कंकड़ में लपेट कर फेंकने, धोबी के कपड़ों की तह में रख कर भेजने, किताबों-कॉपियों में धर कर देने, या टॉफी- चाकलेट खिला कर पटाए गए किसी बच्चे के द्वारा पहुँचाने और मँगवाने में जो एक थ्रिल था, रोमांच था, साहस था, वह भी हवा हुआ।

पत्र पाने का कितनी बेसब्री से इन्तिज़ार रहता था। उस इन्तिज़ार में कितना मज़ा था ! हलो, हलोके कारण अब वह भी हिलने लगा है। बिलकुल दम तोड़ने के कगार पर है।

पत्रों में मिलने की उत्कण्ठा बसी रहती थी और व्यक्ति को आने के लिए कहती थी। अब तो फोन पर बातें बना लेना ही काफ़ी है। मिलने-जुलने की, खिलने - खुलने की आवश्यकता नहीं रही।

आप घर में हों या दफ़्तर में, मोटर साईकिल पर सवार हों या कार में, बस में हों या ट्रेन में, क्लास में हों या उसकी जगह साइबर कैफ़े में, ज़रूरी मीटिंग में हों या ईटिंग में, किसी भरी सभा में हों अथवा मरी (शोक) सभा में, हर जगह मोबाइल फोन । तरह-तरह की, एक से एक बढ़िया फिल्मी गीतों की रिंगटोन। सुनते ही लगाएँ कान और मुँह पर करें फटाफट ठाट से बातें ही बातें।

मोबाइल से इज़हार-ए-इश्क़ को बड़ा बल मिला है। पहले कोई बात कहने या लिखने में शर्म आती थी। अब एस.एम.एस. की मदद से ऐसी-वैसी बात भी बेझिझक पेश की जा सकती है। लिहाज़ करने और लाज से मरने की ज़रूरत नहीं रही।

मोबाइल के ज़रिए अब बड़ी आसानी से झूठ बोला जा सकता है। बॉस और बीवी-बच्चों की डाँट से बचा जा सकता है। आप घर से दफ़्तर के लिए निकले तक नहीं, पर बॉस से कह सकते हैं कि रास्ते में हैं। भारी ट्रैफिक में फँस गए हैं। बस सुनवा दीजिए बॉस को बैकग्राउण्ड टोन में बजते हॉर्न और गाड़ियों की आवाज़ें। भले ही आप अपनी नई प्रेमिका के साथ कहीं प्यार की पेंगे बढ़ा रहे हों, उस पर अपना रंग चढ़ा रहे हों, पर मोबाइल पर पत्नी को बताइए कि आप कारखाने में ड्यूटी पर ही हैं। आपके कहने के साथ जब मोबाइल की बैक-ग्राउण्ड टोन चलती हुई मशीनों की आवाज़ सुनाएगी तो निश्चित रूप से आपकी बात सच मानी जाएगी।

चोर-लुटेरों के लिए तो मोबाइल फोन बहुत ही काम की चीज़ है। कुछ लोग घर में घुसकर आराम से चोरी करते हैं या लूटते रहते हैं। एक व्यक्ति बाहर खड़ा निगरानी रखता है। ख़तरा महसूस होते ही फौरन मोबाइल से मोबाइल पर अन्दर ख़बर कर देता है।

अपहरण करने वाले भी मोबाइल का लाभ उठा रहे हैं। मोबाइल से घर वालों को सूचना देकर उनसे फिरौती की रक़म माँगना और सौदेबाज़ी करना अब उनके लिए ज़्यादा आसान हो गया है।

डकैत खादर में रहें या जंगल में, अब वे ररकाराभेजने की झंझट से बरी हैं। चाहे उन्हें संरक्षण देने वाले नेता हों, या खरीदे हुए पुलिस के अफ़सर या उन्हें नाजायज़ हथियार वग़ैरह पहुँचाने वाले मददगार, सबसे सम्पर्क साधने के लिए उनके पास हर समय मोबाइल जो है ।

अब तो मोबाइल फोन में लगे कैमरे से किसी के भी, किसी भी समय, कैसे भी चित्र चुपचाप उतारे जा सकते हैं और वे मोबाइल के द्वारा दूसरों तक पहुँचाए जा सकते हैं। मनोरंजन और धन्धा दोनों एक साथ। आम के आम, गुठलियों के दाम ।

आपके मोबाइल फोन से दूसरे लोग डिस्टर्ब हों, तो हों। आप क्यों चिन्ता करें ? मोबाइल की वजह से आप अन्य लोगों की निगाह में तो आए। आपका स्टेटस तो बढ़ा । कान पर मोबाइल लगाए घूमना अब शान की निशानी मानी जाती है।

मोबाइल कम्पनियों के तो कहने ही क्या? उन्होंने चारों तरफ़ अपना जाल फैला रखा है। तरह-तरह के सैट, भाँति-भाँति के कनैक्शन और कूपन । रोज़ाना नई-नई लुभावनी स्कीमें। नए-नए सब्ज बाग। बेचारा उपभोक्ता अपने को असमंजस में घिरा हुआ पाता है। कितने में, कितने दिन तक, किस-किस किस्म के फोन पर, कितने की बातचीतका हिसाब-किताब लगाते-लगाते गणित में कमज़ोर व्यक्ति भी होशियार हो जाता है।

आजकल जो व्यक्ति मोबाइल फोन नहीं रखता, उसे हद दर्जे का कंजूस या बैकवर्ड समझा जाता है और हिकारत की नज़र से देखा जाता है। लोग बार-बार उससे उसका फोन या मोबाइल नम्बर पूछकर उसमें हीन भावना जगाना तथा उसे लज्जा का एहसास कराना अपना परम कर्त्तव्य मानते हैं।

डाकखाने वाले अब पत्रों के भारी-भारी थैलों से जल्दी ही छुटकारा पाएँगे । बेचारे डाक खाने और डाक के डाकूकहलाने के आरोप से भी बच जाएँगे । डाकिए अब पत्रों के बजाय घर-घर जाकर मोबाइल पर सँदेसे सुनवाएँगे और हाथों-हाथ उनके जवाब भिजवाएँगे। तुरत दान, महा कल्यान ।प्रेमियों के लिए भी अब पत्र के इन्तिज़ार की घड़ियाँ और आँसू की लड़ियाँ खत्म। मोबाइल की फुलझड़ियाँ जो हैं।

अब के लड़के सगाई होते ही लड़की से बातें करते रहने की ग़रज़ से या तो ख़ुद ही या अपनी मम्मी-भाभी वग़ैरह को पटा कर लड़की को भेंट के रूप में मोबाइल थमाने लगे हैं : भूल कर भी अब पत्र लिखने के लिए नहीं कहा जाता। वे ज़माने गए ।

वह समय दूर नहीं, जब सामान्यतः पत्रों का घोर अकाल नज़र आएगा। प्रार्थना-पत्रों और व्यापारिक पत्रों ने ई-मेल तथा फैक्स से नाता जोड़ लिया है। लोगों ने शिकायती पत्रों को तो लिखना ही छोड़ दिया है। ठीक ही किया है। क्या फ़ायदा लिखने का? उन पर कोई कार्रवाई तो होती नहीं, सिर्फ़ लीपा-पोती होकर रह जाती है। किससे कहें? नीचे से ऊपर तक सबके सब एक ही रंग में रँगे हुए। जैसे नागनाथ वैसे साँपनाथ ।

अब पत्रों के रूप में लोग बस सम्पादक के नाम पत्रही लिखा करेंगे, जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रभुता से स्थान पाएँगे। उन पत्रों में सम्पादक जी को खुश करने के लिए उनके अद्भुत सम्पादन- कौशलकी भूरि-भूरि प्रशंसा होगी और केवल अपनी फेंटी के ही रचनाकारों की हवाई तारीफ़ के पुल बाँधे जाएँगे ।

(व्यंग्य संग्रह - ‘स्वार्थ सरिस धर्म नहिं कोऊ’ से साभार)

 


 

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

आगरा (उ. प्र.)

 

1 टिप्पणी:

  1. तकनीक ने बहुत कुछ बदल दिया,मोबाइल ने पत्रों के साथ उनमें अंतर्निहित भावनाओ और संवेदनाओं पर भी ग्रहण लगा दिया है।सुंदर व्यंग्य रचना,गोपाल बाबू जी की लेखनी को नमन

    जवाब देंहटाएं

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...