माँ-बाप
की सेवा
डॉ.
धीरज वणकर
वह हररोज सुबह होते ही स्नान करके फूल का हार,
प्रासाद
और जल का कलश लेकर राम जी मंदिर चला जाता । साल में दो तीन बार अलग-अलग तीर्थ
यात्रा पर चला जाता। दिखावा ऐसा करता कि
लोगों को लगता कि ये कितना श्रद्धालु है।
अरे बेटा! मंदिर-तीर्थयात्रा को लेकर इतनी
भागदौड़ क्यो करता है? सच्चे
मन से प्रभु को भजा करो और हमारा भी थोड़ा खयाल रखा कीजिये। अब हम
तो कुछ दिन के ही महेमान है। पिता
उमाशंकर ने तनिक झुँझलाते हुए कहा ।
‘
“मतलब मैं नहीं समझा। क्या आपको मेरा मंदिर जाना अच्छा नहीं लगता। घर में जो भी कुछ है,
ईश्वर
की कृपा से है। समझे कि नहीं! ” सागर कहने
लगा।
“हाँ-हाँ,
क्यों
नहीं? मैं
भगवान का विरोध नहीं कर रहा। मंदिर जाओ या
तीर्थ यात्रा पर किंतु कभी हमारा हालचाल भी पूछा करो। तेरी माँ को
लकवा मार गया है। मुझे ब्लड प्रेशर
है। तू धंधा,
बीवी,
बाल-
बच्चों में और भगवान में खोया रहता है। कभी
हमारी ओर भी ध्यान दिया करो। कुछ समय
हमारे साथ बैठकर सुख- दुख की बातें किया करो न.. ”
अच्छा तो तुम मूझे पुत्र का फर्ज समझा रहे
हो! दो वक्त तो खाना मिल जाता है न, साल
में दो जोड़ी कपड़े..फिर क्या चाहिए “
“ठीक है,
ठीक
है,पर याद रखना तू जैसा
हमारे साथ व्यवहार करेगा, वैसा
ही तेरे बेटे तेरे साथ करेंगे। बुढापा में
हमें ऊष्मा और प्यार की जरूरत होती है।” करुण
स्वर में माँ बोली।
‘अरे,
वाह
तुम भी पिता की बात में आ गई और राग आलापने लगी’
“बेटा तुझे कैसे समझाऊँ? तुने तो सारी हदे
पार कर दी। बुढ़ापा बचपन जैसा होता है। हमें
भी अच्छा खाना पीना, कभी
बाहर जाने का मन करता है। पैसे तो आते जाते रहेंगे। माँ- बाप क
दुआएँ लेते जाओ तो इज्जत बढेगी। घर
में सब तीरथ बसे है। फिर क्यों घूमता-
फिरता है? घर
में जिंदा है भगवान उनका आशीर्वाद लिया करो। भगवान दो जगह रहते है, एक
मंदिर में दूजे घर में। भगवान तो माँगने
पर देता है और माँ- बाप बिना मागे सबकुछ
देते हैं।” पिता कहने लगा।
“टक.. टक... करना बंद करो, एक तो मेरी कमाई का
खा रहे हो । और उपर से मुझे ताने सुना रहे हो। अब मुझे तुम्हारा भाषण- बाषण नहीं
सुनना है। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। इसलिए बक.. बक.,
करते
हो।” कन्हैया गुस्से में बोल गठा।
“अरे बेटा! मत बौखला जा। जरा तमीज से बोला
कर। सत्य कडवा ही होता है। माँ - बाप की सेवा करना तेरा फर्ज बनता है। उनको प्रेम से घर में रखो,
उससे
घर मंदिर बन जाता है। जिनके माता- पिता
नहीं है, जरा
उनसे पूछना। कैसे रोते फिरते हैं। इसलिए माँ- बाप की सेवा किया करो,
उन्हें
दूर नहीं किया करो। समझा! हमारे कारण तू
मझा कर रहा है। कैसी - कैसी मुसीबतों से जूझते हुए तुझे पढाया-लिखाया और बड़ा किया। ये सब उपकार कैसे भूल गया?”
– कहते हुए बूढ़े पिता का दिल रो उठा।
डॉ.
धीरज वणकर
अहमदाबाद
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