मंगलवार, 27 सितंबर 2022

आलेख

 


महाभारत की कथा

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

महाभारत की कथा भारतीय साहित्य की ही नहीं, विश्व साहित्य की एक प्रसिद्ध कथा है। इसमें पांडव तथा कौरव दो वंशों की कथा तो है ही, साथ ही अनगिनत अन्य कथाएँ भी इसमें हैं।

महाभारत की कथा कुल 18 पर्वों में विभक्त है। उनके नाम हैं - 1. आदिपर्व, 2. सभापर्व, 3. आरण्यकपर्व, 4. विराटपर्व, 5. उद्योगपर्व, 6. भीष्मपर्व, 7. द्रोणपर्व, 8. कर्णपर्व, 9. शल्यपर्व, 10. सौप्तिकपर्व, 11. स्त्रीपर्व, 12. शांतिपर्व, 13. अनुशासनपर्व, 14. आश्वमेधिकपर्व, 15. आश्रमवासिकपर्व, 16. मौसलपर्व, 17. महाप्रस्थानिकपर्व तथा 18. स्वर्गारोहणपर्व।

महाभारत कथा के कथाकार महामुनि व्यास हैं। ऐसा माना जाता है कि महाराजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने एक बड़ा यज्ञ किया। उस यज्ञ में सूतजी ने ऋषियों की सभा में यह कथा सबको सुनाई।

महाभारत की कथा का आरंभ पांडवों-कौरवों के एक पूर्वज राजा शांतनु से होता है। महाराजा शांतनु का प्रथम विवाह भगवती गंगा के साथ हुआ था। किसी ऋषि के शाप के कारण गंगा ने इस मृत्युलोक में जन्म लिया था। शांतनु और गंगा के आठवें पुत्र के रूप में देवव्रत भीष्म का जन्म हुआ। देवव्रत भीष्म के जन्म के बाद शाप-मुक्त होकर तथा अपने पुत्र भीष्म को सारी विद्याओं में कुशल बनाकर गंगा पुनः स्वर्गलोक को चली गईं।

गंगा के चले जाने के बाद महाराजा शांतनु का दूसरा विवाह एक मल्लाह की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ। इस विवाह के पीछे भी एक कथा है। गंगा के चले जाने के बाद, उनके वियोग में, शांतनु यमुना के तट पर घूम रहे थे। वहाँ उन्होंने एक अपूर्व सुंदरी को देखा। उसके सौंदर्य से मुग्ध होकर उन्होंने उसके साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। परंतु उस सुंदरी सत्यवती के पिता ने विवाह के लिए एक शर्त रखी। उसने राजा से कहा कि आप मुझे यह वचन दें कि आपके बाद हस्तिनापुर के राज सिंहासन पर मेरी बेटी का बेटा ही बैठेगा, तभी मैं आपके साथ अपनी बेटी का विवाह करूँगा।

महाराजा शांतनु सत्यवती के पिता की यह शर्त स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे; क्योंकि वे अपने जेष्ठ पुत्र देवव्रत भीष्म के साथ अन्याय नहीं कर सकते थे; परंतु सत्यवती को भूल भी नहीं सकते थे। इसलिए वे उदास रहने लगे। कुछ समय बाद देवव्रत भीष्म को, अपने पिता के सारथी द्वारा, उनकी उदासी का कारण मालूम हो गया। वे सत्यवती के पिता के पास खुद गए और उससे कहा कि मैं वचन देता हूँ कि मैं राज्य का लोभ नहीं करूँगा और हस्तिनापुर की राजगद्दी पर तुम्हारी बेटी का बेटा ही बैठेगा।

परंतु सत्यवती के पिता को इतने से संतोष नहीं हुआ। उसने कहा कि मैं आप पर तो विश्वास कर लूँगा; परंतु आपकी संतानों का विश्वास कैसे करूँ? यह सुनकर पितृभक्त देवव्रत ने कहा कि इसके लिए मैं यह वचन देता हूँ कि मैं विवाह ही नहीं करूँगा; आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा। फिर तो मेरी संतानों का कोई डर नहीं रहेगा। भीष्म की इस प्रतिज्ञा के बाद सत्यवती के साथ महाराजा शांतनु का विवाह हुआ।

सत्यवती से महाराजा शांतनु के दो पुत्र हुए - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। शांतनु के देहावसान के बाद चित्रांगद हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे; परंतु शीघ्र ही एक युद्ध में उनके मारे जाने के बाद उनके छोटे भाई विचित्रवीर्य राजा बने। भीष्म ने उनका विवाह, काशिराज की दो पुत्रियों - अंबिका और अंबालिका के साथ कराया। अंबिका से धृतराष्ट्र का जन्म हुआ तथा अंबालिका से पांडु का जन्म हुआ। धृतराष्ट्र का विवाह गांधार देश के राजा की बेटी गांधारी के साथ हुआ तथा पांडु का विवाह कुंती और माद्री के साथ हुआ। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हुए, जो कौरव कहलाए तथा दोनों रानियों से पांडु के पाँच पुत्र हुए, जो पांडव कहलाए। विवाह के पूर्व कुंती ने एक पुत्र को जन्म दिया था। परंतु लोक-लाज के भय से उसने उसका त्याग कर दिया था। वही बालक आगे चलकर कर्ण के नाम से विख्यात हुआ।

धृतराष्ट्र पांडु से बड़े थे। परंतु वे जन्म से अंधे थे। उस समय के नियम के अनुसार वे राजा नहीं बन सकते थे। इसलिए उनके छोटे भाई पांडु को राजगद्दी पर बिठाया गया। पांडु ने अनेक वर्षों तक राज किया; परंतु अपने किसी अपराध का प्रायश्चित करने के लिए वे वन में तपस्या करने चले गए। उनकी रानियाँ भी उनके साथ गईं। वन में ही कुंती से तीन पुत्र पैदा हुए - युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन; और माद्री से दो पुत्र पैदा हुए - नकुल तथा सहदेव। कुछ समय बाद वन में ही पांडु की मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु का दुख सहन न कर सकने के कारण पांडु की छोटी रानी माद्री ने भी अपने प्राण त्याग दिए।

वन के तपस्वी कुंती तथा पाँचों पांडवों को तथा महाराज पांडु और माद्री का शव लेकर हस्तिनापुर आए। उन्होंने पांडवों को पितामह भीष्म तथा महाराजा धृतराष्ट्र को सौंप दिया। महाराजा धृतराष्ट्र ने पांडु और माद्री की अंतिम क्रिया अपने कुल की रीति-नीति के अनुसार की।

कौरवों और पाँचों पांडवों की शिक्षा-दीक्षा पितामह भीष्म, कुलगुरु कृपाचार्य तथा आचार्य द्रोण की देखरेख में होने लगी। सारी विद्याओं में पांडव सभी कौरवों से बहुत आगे थे। राज्य के अधिकार को लेकर धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन बहुत चिंतित रहने लगा। इस बात से वह बहुत दुखी रहता था कि मेरे पिता अपने पिता की ज्येष्ठ संतान हैं; किंतु जन्मांध होने के कारण कुल के नियमानुसार राजा नहीं बन सके; और इसी तरह मैं भी राजा नहीं बन पाऊँगा। वह पांडवों को किसी भी तरह से राज्य के अधिकार से वंचित कर देना चाहता था। हस्तिनापुर की प्रजा भी पांडवों की विद्या-बुद्धि और व्यवहार से उन्हीं के पक्ष में थी।

महाराज धृतराष्ट्र भी दुर्योधन के पक्ष में थे। किंतु वे ऐसा कोई कदम उठाना नहीं चाहते थे, जिससे उनकी बदनामी हो। हस्तिनापुर से पांडवों को हटाने के लिए दुर्योधन ने एक उपाय सोचा। छलपूर्वक उसने अपने पिता धृतराष्ट्र की आज्ञा से पांडवों को वारणावत भिजवा दिया। वहाँ उसने पांडवों के रहने के लिए गोपनीय ढंग से लाख का एक महल बनवाया। लाख बहुत तेजी से आग पकड़ने वाला पदार्थ होता है। दुर्योधन की योजना थी कि पांडव जब उस महल में रहने लगेंगे, तब किसी दिन रात में उस महल में आग लगा दी जाएगी और अपनी माता कुंती के साथ वे नींद में ही जलकर मर जाएँगे; और इस तरह हस्तिनापुर का सारा राज्य मेरा हो जाएगा। परंतु उसकी कुटिलता का आभास महाज्ञानी विदुर को हो गया। उन्होंने युधिष्ठिर को सारी बातें बता दीं और अपने एक विश्वासपात्र कुशल कारीगर को भेजकर महल से बहुत दूर जंगल में निकलने  के लिए एक सुरंग बनवा दी।

अपनी योजना के अनुसार दुर्योधन ने महल में आग तो लगवाई। किंतु माता कुंती के साथ पाँचों पांडव सुरंग से सुरक्षित बाहर निकल गए। उसके बाद वे वर्षों तक वन-वन भटकते रहे। जटा बढ़ाए, वल्कल पहने वे तपस्वियों का जीवन जीते रहे। उसी काल के दौरान व्यास मुनि उनसे मिलने आए। उन्होंने पांडवों को अनेक तरह से सांत्वना देते हुए कहा कि मैं अच्छी तरह से जानता हूँकि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने अधर्म का सहारा लेकर तुम लोगों को निकाल बाहर किया है। परंतु तुम्हारे इस दुख में ही तुम्हारा सुख छिपा है।

फिर वे पांडवों को लेकर एकचक्रा नामक नगर में गए और वहाँ एक ब्राह्मण के घर में उन्हें आश्रय दिलाकर चले गए। उस ब्राह्मण के घर में रहते हुए पांडव भिक्षावृत्ति से अपना गुजारा करते रहे। एकचक्रा नामक उस नगर के निवासियों को बकासुर नामक एक राक्षस बहुत सताता था। भीम ने उस राक्षस को मारकर नगरवासियों के साथ-साथ उस ब्राह्मण परिवार को भी भयमुक्त किया, जिसके यहाँ उन लोगों को शरण मिली थी।

एकचक्रा नगर से निकलकर माता कुंती के साथ पाँचों भाइयों ने पांचाल राज्य की ओर प्रस्थान किया। वहाँ एक कुम्हार के घर में रहते हुए कुछ दिनों के बाद वे लोग द्रौपदी के स्वयंवर में शामिल हुए। उस समय वे लोग ब्राह्मण वेश में थे; इसलिए कोई उन्हें पहचान न सका। स्वयंवर में यंत्र द्वारा घूमती मछली की आँख का निशाना लगाकर अर्जुन ने द्रौपदी को जीत लिया।

अर्जुन सहित सभी पांडव ब्राह्मण वेश में थे। इसलिए कोई उन्हें पहचान न सका। क्षत्रियों ने उन्हें घेरकर युद्ध शुरू कर दिया। उस युद्ध में कर्ण भी शामिल था। परंतु उसे भी अर्जुन तथा भीम के सामने हार माननी पड़ी। परंतु बाद में महाराजा द्रुपद के बहुत आग्रह पर पांडवों को अपना भेद खोलना पड़ा। फिर तो चारों तरफ यह बात फैल गई कि पांडु-पुत्र लाक्षागृह से सुरक्षित बच गए हैं। यह समाचार हस्तिनापुर भी पहुँचा। कर्ण सहित सभी कौरव पछताने लगे कि हमारे सारे कुचक्रों के बावजूद पांडवों का कुछ भी नहीं बिगड़ा। फिर भी वे नये-नये षड़यंत्रों पर विचार करते रहे। अपने षड़यंत्र में उन्होंने धृतराष्ट्र को भी शामिल कर लिया। परंतु भीष्म, द्रोण तथा विदुर के बहुत समझाने पर उन्होंने द्रुपदराज के यहाँ से सम्मान के साथ कुंती और उसके पुत्र पांडवों और द्रौपदी को बुलाने की बात स्वीकार की। साथ ही कुरुवंश को विनाश से बचाने के लिए वे पांडवों को उनका पैतृक राज्य सौंप देने के लिए भी तैयार हुए।

सबकी राय से महात्मा विदुर कुछ और मंत्रियों को साथ लेकर पांचाल नरेश के यहाँ पहुँचे। उन्होंने महाराजा द्रुपद से कहा कि इस विवाह-प्रसंग से हस्तिनापुर में सभी बहुत प्रसन्न हैं और पुत्र-वधू के साथ मैं पांडवों को ले जाने लिए आया हूँ। फिर महाराजा द्रुपद की अनुमति से विदुर सभी को लेकर हस्तिनापुर पहुँचे। पांडवों के आगमन का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र ने कुलगुरु कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य को उनके स्वागत के लिए भेजा। उसके बाद पांडवों ने पितामह भीष्म, धृतराष्ट्र तथा अन्य सभी पूज्यजनों के चरण-स्पर्श करके उनसे आशार्वाद लिए।

दूसरे दिन भीष्म की सलाह पर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को बुलाकर कहा कि मैं नहीं चाहता हूँ कि तुम लोगों में तथा कौरवों में फिर से कोई झगड़ा हो। इसके लिए मैं तुम लोगों को खांडवप्रस्थ में जाकर रहने की सलाह देता हूँ। पांडव आधा राज्य पाकर तथा धृतराष्ट्र की बात मानकर खांडवप्रस्थ चले गए। खांडवप्रस्थ एक उजाड़ इलाका था। पांडवों ने उस पर कुशल शिल्पियों के द्वारा एक नये नगर का निर्माण किया और उसका नाम रखा इंद्रप्रस्थ।

इंद्रप्रस्थ में रहते हुए पांडवों ने अपने कुशल व्यवहार तथा सुशासन से अपनी प्रजा को तथा सभी राजाओं को अपने वश में कर लिया। उनके सुशासन तथा धर्माचरण से दिनों दिन बढ़ते उनके प्रभाव से दुर्योधन दुखी और चिंतित रहने लगा। वह पुनः किसी तरह से पांडवों का राज्य हड़प लेना चाहता था। किंतु उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था।

दुर्योधन के मामा शकुनि ने दुर्योधन का दुख दूर करने के लिए एक उपाय सुझाते हुए कहा कि पांडवों के साथ युद्ध करके उन्हें जीता नहीं जा सकता। उसके लिए कोई कपट क्रीड़ा करनी पड़ेगी। तुम अपने पिताजी से कहकर पांडवों को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित करो। बाकी का काम मैं देख लूँगा। शकुनि जुए के खेल में माहिर था।

दुर्योधन का प्रस्ताव सुनकर पहले तो धृतराष्ट्र तैयार नहीं हुए; क्योंकि नीति के अनुसार यह अधर्म का कार्य था। परंतु पुत्र-प्रेम के सामने उनकी एक न चली। उन्होंने महामति विदुर को भेजकर युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित किया। युधिष्ठिर महाराज धृतराष्ट्र के आमंत्रण को अस्वीकार नहीं सके। युधिष्ठिर सपरिवार हस्तिनापुर पहुँचे। दूसरे दिर द्यूत-क्रीड़ा आरंभ हुई। शकुनि द्यूत का कुशल खिलाड़ी था। वह दुर्योधन के प्रतिनिधि के रूप खेलने बैठा। युधिष्ठिर एक-एक बाजी हारते गए। वे राज्य के साथ-साथ अपने पाँचों भाइयों सहित पत्नी द्रौपदी को भी जुए में हार गए।

उसके बाद पाँचों पांडवों और द्रौपदी को बारह वर्षों का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पड़ा। वनवास के समय में भी दुर्योधन ने पांडवों को तरह-तरह से परेशान करने की कोशिश की।

बारह वर्षों का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास भोगकर पांडव और अधिक शक्तिशाली हुए। उसके बाद कौरवों और पांडवों के बीच भयानक युद्ध हुआ। वह युद्ध अठारह दिनों तक चला। उस युद्ध में सारे कौरव मारे गए । पांडवों की तरफ से भी बड़े-बड़े महारथी वीरगति को प्राप्त हुए; और अंत में पांडवों की विजय हुई।

पांडवों ने छत्तीस वर्षों तक राज्य किया। फिर अपने पौत्र परीक्षित को राजा बनाकर वे द्रौपदी के साथ तपस्या करने के लिए हिमालय चले गए। उसके बाद स्वर्गारोहण की यात्रा में युधिष्ठिर को छोड़ सभी पांडव तथा द्रौपदी एक-एक करके देह छोड़ते गए और अंत में सिर्फ युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गए।

 

 


डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

40, साईंपार्क सोसाइटी, वड़ताल रोड

बाकरोल-388315, आणंद (गुजरात)

 

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