सोमवार, 15 अगस्त 2022

पुस्तक चर्चा

 



फर्क तो पड़ता है जी, नाम से भी!

(खींचो न कमानों को, डॉ. ऋषभदेव शर्मा )

डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र

 

‘खींचो न कमानों को’ ऋषभदेव शर्मा के चुने हुए संपादकीय लेखों का छठा संग्रह है। इसके पहले ‘संपादकीयम्’, ‘समकाल से मुठभेड़’, ‘सवाल और सरोकार’, ‘लोकतंत्र के घाट पर’ (इलेक्शन गाथा) तथा ‘कोरोना काल की डायरी’ नाम से शर्मा जी के संपादकीय लेखों के पाँच संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इन संकलनों से डॉ. शर्मा द्वारा लिखे संपादकीय लेखों का महत्त्व सहज ही समझा जा सकता है। वरना आज के समय में किसी अखबार के संपादकीय लेख का क्या महत्त्व है, यह कहने की आवश्यकता नहीं।

मेरे लिए सच यही है कि ऋषभदेव जी के संपादकीय लेखों के अलावा मैंने उनका लिखा हुआ और कुछ नहीं पढ़ा है। परंतु इस सच का एक दूसरा पक्ष भी है। मैंने ऋषभदेव जी के लिखे हुए को भले न पढ़ा हो, परंतु मैंने ऋषभदेव जी को अवश्य पढ़ा है। बहुत बारीकी से पढ़ा है। उनके व्यक्तित्व में ओतप्रोत होकर उन्हें पढ़ा है। मेरा उनके साथ संबंध ही कुछ ऐसा है।

‘डेली हिन्दी मिलाप’ में जब उन्होंने संपादकीय लिखना आरंभ किया, उसके थोड़े ही समय के बाद केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के एक नवीकरण कार्यक्रम में हम मिले। वहीं उन्होंने बताया कि एक नयी जिम्मेदारी मिली है। उस समय तक मैं ‘डेली हिन्दी मिलाप’ का नाम नहीं जानता था। उस समय मुझे सिर्फ यही लगा था कि दैनिक अखबारों में जैसे संपादकीय लिखे जाते हैं, शर्मा जी वैसा ही कुछ लिखते होंगे। परंतु मेरी वह धारणा शीघ्र ही निरस्त हो गई। हमें वहाँ दस दिनों तक रहना था। शर्मा जी प्रतिदिन रात को अगले दिन का संपादकीय तैयार कर लेते और छपने के बाद उसका फोटो मेरे वॉट्सेप पर भेज देते। उनके संपादकीय लेखों में सबसे अधिक मैं उनकी भाषा-शैली से प्रभावित हुआ। साधारण विषय को भी वे लालित्यपूर्ण स्वरूप दे देते हैं, जिससे उनके संपादकीय लेख पठनीय बन जाते हैं। विषय कोई भी हो, उस पर वे अपना बेबाक विचार रखते हैं। उनकी यह विशेषता मुझे बहुत अच्छी लगती है। विषय-विवेचन में संतुलन भी उनके चिंतन तथा लेखन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। अब तक वे किसी विषय पर लिखते हुए किसी एक तरफ झुके हुए नहीं दिखाई पड़े हैं। इससे उनकी विश्वसनीयता पुष्ट होती है।

मैं भाषा का व्यक्ति हूँ। स्वभावतः मेरा ध्यान शब्दों और उनके प्रयोगों पर टिक जाता है। सद्यः प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खींचो न कमानों को’ पर मैं यहाँ इसी दृष्टि से थोड़ा विचार करूँगा।

‘खींचो न कमानों को’ में कुल 70 लेख संकलित हैं। ये 70 लेख सात शीर्षकों में विभाजित हैं - 1. काहे को दुनिया बनाई, 2. शतरंज के खिलाड़ी, 3. हमारा समाज, 4. किसान आंदोलन, 5. हरित विमर्श, 6. शांति की प्रतीक्षा, और 7. विविध सरोकार।इन शीर्षकों को देखकर शर्मा जी के चिंतन की व्यापकता का सहज अनुमान हो जाता है।

किसी भी प्रकार की रचना हो, उसमें शीर्षक का बड़ा महत्त्व होता है। पुस्तक में संकलित लेखों के शीर्षक सहज ही ध्यान खींचते हैं। मेरी समझ यह कहती है कि शर्मा जी शीर्षक गढ़ने में बड़े कुशल हैं। उनके शीर्षकों की एक विशेषता होती है, उनका चुटीलापन। कुछ नमूने देखिए - ‘गन’ राज्य में वादे की अहमियत; पुतिन जी रूठे हुए हैं क्या?; रोम : हँस के बोला करो, बुलाया करो (किसी फिल्मी गाने जैसा लगता है); मदद अफगानिस्तान को : दर्द पाकिस्तान को (किसी लोकोक्ति की याद दिलाने वाला शीर्षक); दुनिया किम के ठेंगे पर; फर्क तो पड़ता है जी, नाम से भी; तेईस पर भारी 3; रँगे सियार की हुआँ हुआँ!; मुफ्तवाद : एक असंभव संभावना (काव्यत्व से भरपूर); भानुमती सिंड्रोम या चूँ चूँ का मुरब्बा; दागी अच्छे हैं (दाग अच्छे की याद दिलाने वाला); बंदूक की नली बनाम लोकतंत्र की गली (नली-गली का प्रास देखिए); बहुत कुछ रखा है नाम में भी ...। वैसे तो शर्मा जी के सभी शीर्षक कुछ ऐसे ही होते हैं। ये कुछ नमूने हैं।

ये शीर्षक किसी दैनिक अखबार के शुष्क शीर्षक से कुछ ज्यादा कह जाते हैं। ये लेख भले ही किसी अखबार के संपादकीय है। परंतु उनके शीर्षक उन्हें पढ़ने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। एक लेख का शीर्षक है - ‘गन’राज्य में वादे की अहमियत। ‘गणराज्य’ के सादृश्य पर ‘गनराज्य’ बना लिया है। ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से देखें तो ऐसा ही लगता है। परंतु शर्मा जी ने बड़ी कुशलता से ‘गण’ के अपभ्रंश रूप ‘गन’ को अंग्रेजी के ‘गन’ से जोड़ दिया है। यह है शर्मा जी की कल्पनाशीलता और सर्जनशीलता। असल में शर्मा जी हैं भी तो मूलरूप से कवि!

एक लेख का शीर्षक है - पुतिन जी रूठे हुए हैं क्या? किसी को सम्मान देने के लिए शिष्टाचारवश हम उसके नाम के साथ ‘जी’ शब्द का प्रयोग करते हैं। परंतु शर्मा जी ने इस शीर्षक में सम्मानसूचक इस ‘जी’ शब्द का प्रयोग करके इस शीर्षक को अद्भुत व्यंजकता प्रदान कर दी है। इस शीर्षक में से ‘जी’ शब्द को निकाल दिया जाए, तो यह शीर्षक एक सामान्य प्रश्नवाचक वाक्य बन कर रह जाएगा।

एक बहुत प्रचलित जुमला है - नाम में क्या रखा है? या नाम से क्या फर्क पड़ता है? आए दिन लोग यह जुमला उछालते हुए नजर आ जाते हैं। परंतु हमारे शर्मा जी ने इस बहु-प्रचलित जुमले को ही उलट दिया है। एक लेख का नाम ही उन्होंने दिया है - फर्क तो पड़ता है जी, नाम से भी! शब्दों के क्रम को बदल देने से यह वाक्य किसी कविता की पंक्ति में रूपांतरित हो गया है। इस लेख में शर्मा जी ने साबित करके दिखाया है कि नाम से फर्क तो पड़ता है। आप भी शर्मा जी की लेखनी के कायल हो जाएँगे। इसके लिए मैं यहाँ लेख का एक पूरा पैराग्रफ ही उद्धृत कर रहा हूँ -

"यह जानना रोचक है कि एक सिद्ध शिकारी के रूप में कॉर्बेट ने बाघों के नरभक्षी हो जाने के कारणों पर गहरा अध्ययन किया। बाघों के साथ समूचा जीवन बिता चुकने और उनके बारे में शोध करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुँचे कि वन्य जीवन का व्यवस्थित संरक्षण बहुत जरूरी है। उन्हीं की कोशिशों से 1936 में भारत के इस पहले वन्यजीव अभयारण्य की स्थापना हो पाई थी। सयाने याद दिला रहे हैं कि स्थापना के समय इस पार्क का नाम ‘हेली राष्ट्रीय पार्क’ रखा गया था। उसके बाद कुछ समय के लिए इसका नाम ‘रामगंगा राष्ट्रीय पार्क’ भी रहा, क्योंकि इसके बीच से गंगा की सहायक नदी रामगंगा गुजरती है। इसी नाम को अब पुनर्जीवित करने की बात उठी है। लेकिन याद रखना होगा कि स्थापना के दो दशक बाद 1956 में इसका पुनः नामकरण जिस व्यक्ति के नाम पर किया गया, वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में उनका बड़ा काम है। यानी पार्क का नाम किसी भी प्रकार की ‘गुलाम मानसिकता’ का द्योतक नहीं है। बल्कि एक विभूति के महान कार्यों के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। आज अगर इस नाम को हटाकर कुछ और रख दिया जाए, तो जिम कार्बेट को कोई हानि-लाभ नहीं होगा। लेकिन हम उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कहीं चूक जाएँगे। कौन नहीं जानता कि जिन लोगों के सत्कर्यों का समाज पर शुभ प्रभाव पड़ता है, उनके इतिहास और समृतियों को जीवित रखने अगली पीढ़ियों को प्रेरणा मिलती है। जिम कार्बेट अंग्रेज थे। शिकारी भी थे। लेकिन अपनी इन दोनों पहचानों से ज्यादा वे वन्यजीव प्रेमी और वन साहित्य के लेखक थे। राष्ट्रीय उद्यान का नाम उनके नाम पर रहना भला अनुचित कैसे हो सकता है!"

‘जिम कार्बेट पार्क’ का नाम बदल कर ‘रामगंगा राष्ट्रीय पार्क’ किए जाने की चर्चा को विषय बनाकर यह संपादकीय लेख लिखा गया है। शर्मा जी के तर्कसंगत विचारों से अवगत होने के बाद इस संदर्भ में शायद ही कोई यह कहेगा - नाम से क्या फर्क पड़ता है? बल्कि यह कहेगा कि फर्क तो पड़ता है जी, नाम से भी!

शर्मा जी कटाक्ष तथा व्याज-स्तुति के माहिर हैं। एक लेख का नाम है- तेईस पर भारी तीन। लेख का पहला वाक्य है- ‘कांग्रेस सचमुच अनुशासित पार्टी है। एक फटकार और सब शांत!’ पहले वाक्य का शब्दार्थ तो सकारात्मक ही लगता है। परंतु अगले वाक्य के एक शब्द (फटकार) से इस वाक्य का अर्थ ही बदल जाता है। वह कटाक्ष में रूपांतरित हो जाता है। यह है डॉ. ऋषभदेव शर्मा का भाषा-कौशल! इसके आगे की पंक्तियाँ भी पठनीय और रसप्रद हैं - "असंतुष्टों को शिकायत थी कि पता नहीं चलता कि अध्यक्ष कौन है और सारे निर्णय कहाँ लिए जा रहे हैं। सो, सोनिया गांधी ने उनके दिमाग का धुँधलका एक ही हुंकार में मिटा दिया - मैं पूर्णकालिक अध्यक्ष हूँ। सर्वशक्तिमान की इस घोषणा से सब सनाका खा गए। .... तभी तो कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में लगभग तमाम नेता एक स्वर से राग राहुल गाते हुए अध्यक्ष पद सँभालने हेतु राहुल गांधी की चिरौरी करते नजर आए।" ‘दिमाग का धुँधलका’, ‘हुंकार’ ‘राग राहुल’ तथा ‘चिरौरी’ शब्दों का प्रयोग कितना व्यंजक है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।

शर्मा जी के अंदाजे बयाँ का एक और नमूना देकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ। प्रधानमंत्री मोदी जी-20 समूह के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए जब रोम पहुँचे थे, तब उन्होंने पोप फ्रांसिस से भी मुलाकात की थी। बस! इतनी-सी बात की भारी प्रतिक्रियाएँ अपने देश में हुई थीं। इसी घटना को आधार बनाकर शर्मा जी ने 02/11/21 का संपादकीय लिखा था। शीर्षक था - रोम : हँस के बोला करो, बुलाया करो। ‘हँस के बोला करो, बुलाया करो’ पंक्ति अब्दुल हमीद अदम की कविता की है, लेख में जिनका नामोल्लेख शर्मा जी ने किया है। साधारण-सी लगने वाली कविता की इस पंक्ति का विनियोग शर्मा जी ने बड़ी खूबसूरती से किया है। पोप से प्रधान मंत्री के मिलन की उस घटना पर मचे सियासी बवाल पर संपादकीय लेख के रूप में शर्मा जी द्वारा की गई टिप्पणी पठनीय है। उसका एक अंश उद्धृत करके अपनी बात पूरी कर रहा हूँ-

"लेकिन सियासत का क्या कीजै? ('क्या कीजै' पर गौर कीजिए। क्या कीजिएगा नहीं लिखा।) यहाँ तो आपके शिष्टाचार और मुस्कान के गहरे मानी खोजने का चलन है। सयानों (इस शब्द का उपयोग शर्मा जी विविध संदर्भों में बार-बार करते हैं) को लगता है कि जरूर मोदी और पोप फ्रांसिस के बीच कुछ तो पक रहा होगा, वरना केवल 20 मिनट के लिए निर्धारित की गई मुलाकात एक घंटे तक क्यों चली? बताया गया है कि दोनों ने पृथ्वी ग्रह को बेहतर बनाने के उद्देश्य से कई मुद्दों पर चर्चा की, जैसे कि जलवायु परिवर्तन से लड़ना और गरीबी को दूर करना। पर नहीं, हर छेद में थूथन डालकर सूँघने के शौकीनों को इससे तसल्ली कहाँ? (सोचिए तो इन शब्दों में कितनी तल्खी है!) वे अपना खयाली पुलाव पकाते हुए फ्रांसिस-मोदी मिलाप (इस शब्द का यहाँ प्रयोग भी ध्यान खींचता है। सीधा प्रयोग तो मुलाकात शब्द का होता। परंतु नहीं, शर्मा जी शब्दों का चयन किस सर्जनात्मक सावधानी से करते हैं, यह भी उसका एक नमूना है।) को ईसाई और हिन्दू के धार्मिक-सांप्रदायिक चश्मे से देख रहे हैं। देखें, तो इसमें बुराई क्या है? यही तो भाईचारे और वसुधैव कुटुंबकं के दर्शन का व्यावहारिक रूप है। (अब यहाँ व्याज-स्तुति नहीं, तो और क्या है?) ..... लेकिन अब इस संयोग को क्या कहिए कि इटली में जी-20 की बैठक विश्वमारी (वैश्विक महामारी के लिए यह शर्मा जी का बनाया हुआ बड़ा प्यारा शब्द है।) कोरोना के कारण एक साल देरी से हो रही है और भारत में अन्य कई प्रदेशों के अलावा गोवा में भी जल्दी ही विधान सभा के चुनाव होने हैं। बस इसीलिए प्रधानमंत्री की वेटिकन सिटी की यह यात्रा राजनैतिक दृष्टि से खास तौर पर मानीखेज हो गई है। ..... लेकिन इस सच को भी नकारा नहीं जा सकता कि ‘यह मुलाकात शांति, समरसता और अंतरधार्मिक संवाद के लिए एक बड़ी पहल है।’

 


डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र

40, साईं पार्क सोसाइटी,

बाकरोल, आणंद (गुजरात)

 

 

1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र जैसे पारखी गुणीजन मेरी संपादकीय टिप्पणी को पढ़ना पसंद करते हैं, मेरे लिखे की मेरे लेखे यही कृतार्थता है।
    विद्वान समीक्षक और सहृदय संपादक के प्रति कृतज्ञ हूँ।
    प्रेम बना रहे!

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