बादल गाएँ गीत (दोहे)
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
1
पवन बजाए बाँसुरी, बादल गाएँ गीत ।
हरियाये परिवेश में, पर्वत मन के मीत ।।
2
सुन्दर फूलों से सजी, वादी खुशबूदार ।
तन-मन पर जादू करें, छायादार चिनार ॥
3
ऊँचे पर्वत, घाटियाँ, बल खाती हर राह ।
देवदारु, शीतल पवन, मन में भरें उछाह ।।
4
मधुर दूधिया चाँदनी, देकर तम को चाँद ।
सेमल की फुनगी टँगा, आसमान से फाँद ।।
5
हवा बनी गजगामिनी, महक उठा कचनार ।
सपने तैरे दूर तक, भीगा मन का प्यार ।।
6
थका-थका सूरज लगे, बेहद शान्त, हताश ।
व्याकुल मन को छू गया, संध्या का आकाश ।।
7
सावन झूला झूलता, पैगे भरें मल्हार ।
ऋतु बन आई नववधू, कर सोलह शृंगार ।।
8
बादल भी करते बहुत, सौतेला व्यवहार ।
मरुथल तो प्यासा रहे, सागर पाते प्यार ॥
9
बारिश में भीगे, डरे, गौरेया के पंख।
सुबह हुई फिर से उड़े, सुन मन्दिर के शंख ।।
10
बुझी-बुझी लगती सुबह, सूनी-सूनी शाम।
नित सूरज मुँह फेर ले, क्या होगा परिणाम ।।
11
कुहरा यूँ गहरा हुआ, दिखे न अपना हाथ।
निखरेगा हर रूप तब, मिले धूप का साथ ।।
12
लगता है यह चन्द्रमा, ज्यों चाँदी की बाँक ।
रहे जगाता रात-भर, वातायन से झाँक ॥
13
डूब गया मन ताल में, बेसुध-बेसुध देह ।
मौसम ने महका दिया, फिर यादों का गेह ।।
14
मन में तपती दुपहरी, आँखों में बरसात।
जाने क्या-क्या दे गई, जाड़े की वह रात ।।
15
पति-गृह चली शकुन्तला, खग, मृग, पुष्प उदास।
अब वैसी संवेदना, कहाँ हमारे पास ।।
(‘हर पत्थर पारस नहीं’ से साभार)
कविता
1. घिर आए बादल
घिर आए हैं नभ में कजरारे बादल,
लगता है तुमने केश सघन छिटकाए ।
धानी चूनर में सजी प्रकृति दुल्हन-सी,
मुस्कान बिखेरी है मादक फूलों ने ।
पुरवाई ने सुरभित आँचल लहराया,
मन के भावों को मुखर किया झूलों ने ।
यों तो ये दिन मैंने पहले भी देखे,
लेकिन इस बार बहार नई ले आए।
सरिता को यौवन मिला, सिन्धु बौराया,
झूमीं फसलें ली धरती ने अँगड़ाई ।
कुहके मदमाते मोर पंख फैला कर,
बूँदों के स्वर में गूँज उठी शहनाई ।
रँग दिया मधुर सपनों को इन्द्रधनुष ने,
अभिलाषाओं ने अपने ब्याह रचाए ।
बिजली-सी कौंधी रह-रह याद तुम्हारी,
आँखों में जैसे उमड़ पड़ा है सावन ।
चातक-से प्यासे प्राण टेरते तुमको,
मन पर छाया है एक अजब सूनापन |
तुम मधुर छन्द बन कर उतरो जीवन में ,
लो, गीतों ने
सौ-सौ सन्देश पठाए ।
(‘ज़िन्दगी के चाँद सूरज’ से साभार)
2.
उमड़-उमड़ कर बादल आते,
करते हैं अन्तस को घायल ।
आसमान ऐसा लगता है,
फैल गया हो जैसे काजल ।
पुरवइया का चंचल अंचल,
मन को उड़ा-उड़ा ले जाता;
रिमझिम-रिमझिम बूँदों के स्वर,
थिरक उठी हो जैसे पायल ।
(‘कहेगा आईना सब कुछ’ से साभार)
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
आगरा (उ.प्र.)
बहुत सुंदर दोहे
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे,सरस कविताएँ।डॉ. गोपालबाबू जी को बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन, हार्दिक बधाई !
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