शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

कहानी

 



रेवा के सपने 

डॉ. धीरज वणकर

गाँव तालाब के किनारे पर बसा हुआ है। उत्तर  दिशा में वरांशी नदी बह रही थी। पूरे गाँव की आबादी तकरीबन पंद्रह सौ के आसपास थी। सबसे ज्यादा बस्ती क्षत्रियों की थी  दूसरे नंबर पर बुनकरों की। इसके अलावा बीस घर देसाई के, पाँच घर पंचाल के और दस घर वाल्मीकि के थे।  गाँव में पटेल या बनिया, ब्राह्मण का एक भी घर नहीं था। सारा गाँव खेती पर निर्भर था। घर  चलाने के लिए साथ में गाय व भैंस भी रखते थे। गाँव में वर्षों तक क्षत्रियों का दबदबा रहा किंतु शराब के व्यसन के कारण कुछ युवा कम उम्र में मर गए। शादी- ब्याह में खेत बेचकर दिखावा करने के लिए आमदनी से ज्यादा खर्चा करते। कुछ  लोग शराब बनाने का धंधा करके गुजारा करते थे। वैसे तो गाँव में शांति बनी रहती थी। लेकिन जब  सरपंच का चुनाव आता तब  काँटे की टक्कर होती। सरपंच के प्रत्याशी क्षत्रिय ही होते। कभी-कभी तो सात उम्मीदवार खड़े रहते। उस वक्त सबसे दयनीय स्थिति पिछड़ों की होती, वे लोग जिसे वोट देते वही विजेता बन जाता। जो हार जाता वह दलितों व पिछड़ों को धमकाता कि – ‘तुम लोगों ने ठीक नहीं किया। मैं तुम्हें देख लूँगा।

        पूरा गाँव किसानी पर जीवन यापन कर रहा था। रेवा जाति का बुनकर था। उनके परदादा कपड़ा बुनने का व्यवसाय करते थे। किंतु आज परंपरागत व्यवसाय कोई नहीं करता। वे तीन भाई थे। रेवा उन्नीस सौ पचास में सातवीं कक्षा पास था। उस समय सातवीं पास को शिक्षक की नौकरी मिल जाती थी किंतु रेवा के पिता ने  रेवा को नौकरी में नहीं जाने दिया। अगर जाने दिया होता तो रेवा आज कुछ और होता। गाँव में कोई उस समय नौकरी करता ही नहीं था। उस जमाने में उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और कनिष्ठ नौकरी मानते थे। उस गाँव वाले केवल खेती करना ही जानते थे। जिस साल अच्छी बारिश होती तब खेतों में फसलें लहलहाती नजर आती। ऐसा लगता मानो धरती ने हरी चादर ओढ़ ली हो।

सुबह हुई नहीं कि  रेवा बैलों को लेकर खेतों की राह पकड़ लेता। जी जान लगाकर मेहनत करता।  ठंड में  ठिठुरता, गर्मी में पसीने से लथपथ, बारिश में भीगता। आँधी तूफान में खेत में खडा़ रहता किंतु उसके सपने तो अधूरे ही रह जाते...किसान रेवा के खेत में फसल ही नहीं उगती थी। उगता था किसान का भविष्य, उगते थे बच्चे की पढ़ाई-लिखाई व शादी के सपने, भाँजे-भाँजी की शादी में भात भरने के सपने, कच्चे मकान में खपरैल डालने के सपने, उगते थे नये बैल हल खरीदने के सपने, महाजन के कर्जा चुकाने के सपने। दिवाली पर बच्चों के लिए नये कपड़े-मिठाई दिलाने के, पत्नी के लिए एकाद नया गहना बनाने के अनेक सपने... किंतु मौसम की मार से बिखर  जाते थे, रेवा के तमाम सपने... अधूरे रह जाते थे, अधूरी रह जाती थी जरूरतें। तब फूट-फूटकर रोता। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?  देखते-देखते बच्चे भी बड़े होते जा रहे थे। उनको पढ़ाना है, परवरिश भी करनी  है। जंगली जानवर रात को फसल बर्बाद न करे इसलिए रेवा रात को खेत में सोता।

       त्योहार आता तब रेवा के चेहरे पर खुशी की जगह गम साफ़ नजर आता था। बच्चों के लिए नये कपड़े खरीदने होते, थोड़े पटाखे और मिठाई भी। पत्नी के लिए नयी साड़ी और  माता-पिता के लिए एक-एक जोड़ी कपड़े भी खरीदने होते हैं।

       किसी वर्ष बारिश नहीं होती तो फसल नहीं होती, किसी साल सूखा या अकाल पड़ता।  कभी-कभी इतनी बारिश होती कि चारों ओर तबाही मचा देती। तब गाँव के अधिकांश किसान पास के शहर के महाराज के पास से उधार में राशन और कपड़े खरीद लाते। जब फसल पकती तब लौटा देते किंतु पिछले दो तीन साल से ठीक से बारिश नहीं हो रही थी। इसलिए खेत में अन्न पकता नहीं था। गाँव में चार-पाँच किसानों के कुएँ थे। वे तीन सिजन का पाक लेते थे। किंतु रेवा का अपना कोई कुआँ नहीं था, जिससे फसल उगा सके। रेवा हमेशा चिंता में खोया रहता। महाजन का कर्जा कैसे लौटाऊँगा।

    परेश के पापा जब भी देखती हूँ खोये-खोये से लगते हो, चुपचाप। ठीक से बात भी नहीं करते। आपको क्या हो गया है। कोई भूत-प्रेत तो नहीं घुस गया न!!” – पत्नी कंचन बोली।

      अरे! पगली नहीं...नहीं...तुझे कैसे समझाऊँ। भूत-प्रेत मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। तू तो जानती है। मेरे कुटुंब वाले इसमें नहीं मानते। यह विज्ञान का जमाना है और तू अभी भी इन बातों में विश्वास या अंधविश्वास रखती हो। मैं महाजन के कर्ज के बारे में अक्सर सोचा करता हूँ।

रेवा पिछले कई वर्षों से खेती करता था। उसमें कामचोरी की जरा भी वृत्ति नहीं थी। रेवा को एक ही बात की चिंता सता रही थी। महाजन को क्या मुँह दिखाऊँगा? वर्ष पूरा होते ही कर्जा चुका दूँगा कहकर आया था। दूसरी ओर बिटिया कमला शादी योग्य हो गई है। जमाना खराब होता जा रहा है। आजकल के लड़के, लड़कियों को फुसलाकर अपनी जाल में फँसाते हैं। कुछ तो लेकर भाग जाते हैं। किसी की बेटी किसी युवा के साथ भाग जाती है तो गाँव भर में खबर फैल जाती है कि फलाँ भाई की कुलटा ने पिता की नाक कटवाई। वही विचार रेवा के मन में टकराने लगे। चाहकर भी वह कुछ नहीं कर सकता।

एक दिन महाजन मुहल्ले में आकर लाल- पीला होकर  बोलने लगा - अबे रेवला सुनता है! उधार कब चुकाएगा।

काँपते हुए दबी आवाज़ में रेवा ने कहा इस वर्ष  सूखा पड़ा है,  कुए में पानी भी नहीं है...अगले साल सूद के साथ लौटा दूँगा।

“भाड़ में जाए, बारिश नहीं हुई तो इसमें मैं क्या करूँ, मुझे तो पैसे से मतलब, पैसे चाहिए। तेरी पत्नी के जेवर दे दो.. ”

रेवा हाथ जोड़कर बिनती पर बिनती करता रहा...” मालिक मैं दुआ करता  हूँ कि अगले वर्ष अच्छी बारिश हो, खेत लहलहा उठे, जिससे आपका कर्जा चुका सकूँ।

हरामखोर इस बार जाने देता हूँ, अगले साल....

रेवा अच्छी बारिश के सपने संजोए, फिर से खेत में सपने उगाने लग जाता है, सपनों का सिलसिला जारी रहता है... दिन-रात पसीना बहाता रहा मगर सपने पूरे नहीं कर पाता।  महँगे बीज बोकर वह देशवासियों व सब के लिए अन्न उगाता है। किसानों के सपने खेतों में ही उगते हैं और फसलों में ही पलते हैं जब अन्न सब्जी पकती है तब  दुकान दार बहुत कम पैसे देकर खरीद लेते हैं। बेचारे किसान को तो कुछ नहीं मिलता। महाजन, मंडी के दलाल तो फायदा उठाते हैं, बिचारा  किसान  करे तो क्या करे? जाए तो कहाँ जाएँ!!  अच्छे दाम मिले इस लिए रोड पर उतरते हैं या धरनें पर तो पुलिस उन पर लाठी बरसाती है। फिर कृषिप्रधान देश में लाचार किसान खुद कुशी न करे तो क्या करे ? भला आत्महत्या करना किसी को अच्छा लगेगा। खेती प्रधान देश में किसान आज रो रहा है। सभी के लिए अन्न उगाने वाले की दशा तो दयनीय है किंतु तमाशा देखती कुर्सी तो चुप्प है ! कृषिप्रधान देश में किसान की यही है सच्ची दास्तान।

       


डॉ. धीरज वणकर

अहमदाबाद

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