डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
1.
नर हो, न निराश करो मन को (मैथिलीशरण गुप्त)
इस
जगत में असंख्य प्राणी रहते हैं। उन्हीं में मनुष्य भी एक प्राणी है।
परंतु
मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न है। कारण कि मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में
अधिक बुद्धिशाली प्राणी है। अन्य प्राणी जो कुछ करते हैं,
सिर्फ़ अपने लिए करते हैं। अपने भोजन के लिए करते हैं।
परंतु
मनुष्य के कर्म उसके भोजन तक ही सीमित नहीं होते। वह दूसरों के हित में भी कार्य
करता है।
यही
मनुष्य की मनुष्यता है।
मनुष्य
बुद्धिशाली प्राणी तो है ही। साथ साथ वह भावनाशील भी है। इसीलिए जब उसे अपने कर्म
में सफलता मिलती है, तब वह प्रसन्न होता
है और जब वह किसी कार्य में असफल होता है, तब वह दुखी हो
जाता है। कई बार असफल होने पर निराश भी हो जाता है।
मनुष्य
की इसी परिस्थिति को आधार बना कर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने यह कविता लिखी है।
निराशा
में डूबे मनुष्यों को लक्ष्य करके गुप्त जी कहते हैं-
नर
हो न निराश करो मन को।
कुछ
काम करो कुछ काम करो।
तुम
नर हो यानी मनुष्य हो। मनुष्य तो स्वभावतः कर्मशील होता है। बार बार असफल होने पर
भी प्रयत्न करता रहता है। ऐसे में तुम निराश क्यों होते हो?
तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए।
निराशा
छोड़ कर कर्म में जुट जाओ। कर्म करने से ही संसार में तुम्हारा नाम होगा।
(संसार में नाम होने के लालच में भी लोग कर्म में प्रवृत्त होते हैं।)
यह
जन्म हुआ किस अर्थ.....।
विचार
तो करो कि यह मनुष्य जन्म किस लिए मिला है?
(हमारी मान्यता है कि मनुष्य जन्म बहुत पुण्य के परिणाम स्वरूप मिलता है।)
यह
मनुष्य जन्म देने वाले का कोई न कोई तो विशेष उद्देश्य होगा ही। उस उद्देश्य को
पहचानो और कर्म में जुट जाओ, जिससे यह जन्म
व्यर्थ न जाने पाए। इस मनुष्य देह का सदुपयोग करो।
निज
गौरव का कुछ ज्ञान रहे ......।
यह
तो तय है कि मनुष्य जन्म सरलता से नहीं मिलता। अनेकानेक जन्मों के तप के बाद मिलता
है। इसलिए यह मनुष्य जन्म बड़ा गौरवशाली है।
उस
गौरव को ध्यान में रख कर यह विचार करो कि हम भी कुछ हैं। तभी तो यह मनुष्य जीवन
मिला है।
सदा
आत्मगौरव की रक्षा करनी चाहिए। धन संपत्ति नष्ट हो जाए,
तो उसे पुनः प्राप्त किया जा सकता है। परंतु आत्मगौरव नष्ट हो जाए,
तो उसे पुनः प्राप्त करना बहुत कठिन होता है। इसलिए आत्मगौरव की
प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।
आत्मगौरव
सुरक्षित रहेगा, तो मरने के बाद भी अपना नाम रहता
है। मान (कीर्ति/यश) बना रहता है।
(स्वयं को गौरवशाली मानने से कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिलती है।)
कुछ
भी हो जाए। परंतु अपने उद्योग (कर्म) को छोड़ना नहीं चाहिए। सदा कर्म में लगे रहना
चाहिए। कर्म किए बिना कोई परिणाम नहीं आएगा।
(हमारा भारतीय चिंतन कर्म-प्रधान है।)
किस
गौरव के तुम योग्य नहीं.....।
कर्म
में प्रवृत्त करने के लिए गुप्त जी एक और तर्क देते हैं। एक दूसरे ढंग से
प्रोत्साहन देते हैं।
गुप्त
जी कहते हैं कि जो लोग जीवन में सफल हुए हैं, उन्हें
भी उसी परमात्मा (जगदीश्वर) ने बनाया है, जिसने तुम्हें
बनाया है। फिर तुम क्यों नहीं सफलता प्राप्त कर सकते हो?
तुम
स्वयं को हीन मत समझो। तुममें क्या कमी है कि तुम गौरवशाली नहीं बन सकते?
बन
सकते हो। परंतु इसके लिए आवश्यक है कि तुम स्वयं के गौरव को समझो। उसे पहचानो।
तुम
भी तो उसी परमात्मा की संतान हो।
फिर
तुम्हारे लिए क्या दुर्लभ है?
कुछ
भी नहीं।
इस
प्रकार गुप्त जी ने निराशा से भरे लोगों को निराशा से बाहर निकालने का प्रयत्न
किया है।
नर
हो, न निराश करो मन को (मैथिलीशरण
गुप्त)
कुछ
काम करो,
कुछ काम करो
जग
में रह कर कुछ नाम करो
यह
जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो
जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ
तो उपयुक्त करो तन को
नर
हो,
न निराश करो मन को
संभलों कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो
मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को
निज़ गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो
मन को
प्रभु
ने तुमको दान किए
सब
वांछित वस्तु विधान किए
तुम
प्राप्त करो उनको न अहो
फिर
है यह किसका दोष कहो
समझो
न अलभ्य किसी धन को
नर
हो,
न निराश करो मन को
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो
मन को
करके विधि वाद न खेद करो
निज़ लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो
मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
2.
काव्यांश (कामायनी से)
कामायनी
के पहले सर्ग का नाम है - चिंता।
चिंता
सर्ग का आरंभ इन पंक्तियों से होता है -
हिमगिरि
के उत्तुंग शिखर पर
बैठ
शिला की शीतल छाँह।
एक
पुरुष भीगे नयनों से
देख
रहा था प्रलय प्रवाह।।
इन
पंक्तियों का अर्थ बहुत सरल है -
हिमगिरि
अर्थात् हिमालय के ऊँचे या सबसे ऊँचे शिखर पर शिला के शीतल छाँव में बैठा एक पुरुष
भीगे नयनों से अर्थात् आँसू भरी आँखों से प्रलय का प्रवाह देख रहा था।
यहाँ
पाठक के मन में प्रश्न उठना या जिज्ञासा जगना स्वाभाविक है कि वह पुरुष कौन है?
वह हिमालय के ऊँचे शिखर पर क्यों बैठा है? उसके
नयन क्यों भीगे है? वह प्रलय कैसा है, जिसे
वह भीगे नयनों से देख रहा है?
ये
सभी जिज्ञासाएँ पाठक को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी ही।
आगे
की पंक्तियाँ हैं -
नीचे
जल था ऊपर हिम था
एक
तरल था एक सघन।
एक
तत्त्व की ही प्रधानता
कहो
उसे जड़ या चेतन।।
इन
पंक्तियों का अर्थ भी सरल है -
नीचे
जल था और ऊपर हिम था। उनमें से एक यानी जल तरल था तथा दूसरा यानी हिम सघन अर्थात्
ठोस था। दोनों में एक ही तत्त्व की प्रधानता थी। अर्थात् दोनों में एक ही तत्त्व
विद्यमान था। उन्हें क्रमशः चेतन तथा जड़ कहा जा सकता है।
जल
और हिम दोनों वास्तव में एक ही हैं। हिम (बर्फ) जल का रूपांतरण भर है। शीत की
अतिशयता के कारण जल हिम में रूपांतरित हो जाता है।
परंतु
इस रूपांतरण का परिणाम यह होता है कि तरल और गतिशील जल सघन,
ठोस और गतिहीन बन जाता है।
यहाँ
एक और बात ध्यान देने योग्य है। कवि ने जल की तरलता (गतिशीलता) को चेतना से तथा
हिम की सघनता (गतिहीनता) को जड़ता से जोड़ दिया है।
अपने
जीवन में ही यदि देखें तो दुख की अतिशयता से व्यक्ति की चेतना जड़ीभूत हो जाती है।
निश्चेष्ट और गतिहीन हो जाती है।
इस
प्रकार हिम जड़ीभूत चेतना का प्रतीक बन गया है।
इस
तरह यहाँ दर्शन का प्रवेश लक्षित होता है। यह सृष्टि या जगत दो तत्त्वों से बना है
- जड़ और चेतन । ऐसा हमारे दर्शन मानते हैं।
जड़
तत्त्व गतिहीन होता है तथा चेतन तत्त्व गतिशील होता है। उसी को हमारे दर्शन में
परुष और प्रकृति कहा गया है। पुरुष चेतन यानी चेतना युक्त है तथा प्रकृति जड़ है।
आरंभ
में कवि ने जिसे पुरुष कहा है, विद्वान उसे
दर्शन के उसी पुरुष से जोड़ते हैं और आरंभ से ही इस रचना को दर्शन का स्वरूप देते
हैं।
*****
नारी
तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास
रजत नभ पग तल में
पीयूष
स्रोत सी बहा करो
जीवन
के सुन्दर समतल में ।
(लज्जा
सर्ग)
'कामायनी' महाकाव्य जहाँ एक ओर मानव सभ्यता के विकास
की कहानी कहता है, वहीं मानव मन के ऊर्ध्वगमन की गाथा को भी
व्यंजित करता है।
'कामायनी' के सभी पात्र मनुष्य के मनोभाव या
मनोवृत्तियाँ हैं। सभी पात्र प्रतीकात्मक हैं। उनमें प्रमुख तीन पात्र हैं - मनु,
श्रद्धा तथा ईड़ा।
मनु
मन का प्रतीक, श्रद्धा हृदय का प्रतीक तथा ईड़ा
बुद्धि का प्रतीक।
जीवन
में सुख-समृद्धि तथा शांति बनाए रखने के लिए मन, बुद्धि और हृदय की समरसता (संतुलन) परम आवश्यक है।
इन
तीनों की समरसता भंग होने पर जीवन में कलह, संघर्ष
तथा विप्लव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
महाकवि
प्रसाद ने 'कामायनी' में
यही प्रतिपादित किया है। इसी लिए कामायनी के दर्शन को समरसतावादी दर्शन कहा गया
है।
जीवन
में समरसता की स्थिति पैदा करने तथा उसे बनाए रखने में सबसे बड़ी भूमिका विश्वास
की है।
प्रकृति
ने नारी को विश्वास से परिपूर्ण बनाया है। इसी लिए नारी को श्रद्धा और विश्वास की
प्रतिमूर्ति कहा जाता है।
पुरुष
का मन स्वभावतः चंचल होता है। उसका विश्वास खंडित होता है।
नारी
का अखंड विश्वास उसे नियंत्रित करता है।
कामायनी
का मनु अपने खंडित विश्वास के कारण ही अनेकानेक दुख झेलता है। परंतु अंत में
श्रद्धा का अखंड विश्वास उसे सँभाल लेता है।
इसी
आधार भूमि पर आ. पांडेय जी द्वारा उद्धृत कामायनी की पंक्तियों का आशय समझते हैं।
ये
पंक्तियाँ कामायनी के लज्जा सर्ग की हैं।
मेरी
समझ से लज्जा सर्ग कामायनी का सर्वोत्कृष्ट सर्ग है। कारण कि इस सर्ग में प्रसाद
जी ने नारी के सूक्ष्म (आंतरिक) सौंदर्य का जैसा मार्मिक और विशद अंकन किया है,
विद्वान ऐसा मानते हैं कि वैसा शायद ही कहीं हुआ हो।
साहित्य
में नारी के मांसल यानी शारीरिक सौंदर्य
के चित्रण की ही परंपरा रही है और आज भी है।
प्रसाद
जी ऐसा मानते हैं- और हमारी परंपरा भी यही कहती है कि लज्जा नारी का आभूषण है।
लज्जा से विरहित नारी आकर्षणहीन हो जाती है।
कामायनी
के लज्जा सर्ग में लज्जा यही बात श्रद्धा को समझाती है।
विविध
प्रतीकों तथा उपमानों द्वारा लज्जा श्रद्धा को नारी के सहज गुणों का स्मरण कराती
है।
लज्जा
कहती है -
हे
नारी,
तुम केवल श्रद्धा (विश्वामयी) हो। बाह्याभ्यंतर तुम श्रद्धामय हो।
श्रद्धा से ही तुम्हारा निर्माण हुआ है। इसलिए तुम जीवन को सुखमय बनाने के लिए
विश्वास रूपी रजत नग के पगतल में पीयूष स्रोत (जीवनदीयिनी सरिता की धारा) के समान
निरंतर बहा करो।
समझना
यहाँ यह है कि रजत नग क्या है?
रजत
नग यानी हिमाच्छादित पर्वत।
हिम
भी श्वेत होता है और रजत भी श्वेत होता है।
इसीलिए
प्रसाद जी जैसे कुशल कवि ने हिमाच्छादित नग न कहकर रजत नग कहा है।
सरिता हिमाच्छादित पर्वत से ही निकलती है।
जब
तक पर्वत हिमाच्छादित रहेगा, तभी तक उसमें से
सरिता प्रवाहित होती रहेगी।
जीवन
में जब तक नारी के अंदर हिमाच्छादित पर्वत जैसा विश्वास विद्यमान रहेगा,
तब तक जीवन में सुख-शांति बनी रहेगी।
हिम
रूपी विश्वास के रिक्त होते ही सरिता सूख जाएगी और जीवन मरुभूमि बन जाएगा।
डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र
40, साईं पार्क सोसाइटी
बाकरोल – 388315
जिला आणंद (गुजरात)
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