शुक्रवार, 10 जून 2022

आलेख

 


राष्ट्रभाषा हिंदी और गाँधी

                                                     कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

                        

       आजादी के सात दशक बाद भी आज जब हम राष्ट्रभाषा के संदर्भ में विचार करते हैं तो गाँधी जी का वक्तव्य हमें बार-बार याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है', तो क्या आज हमारे पास अपनी कोई राष्ट्रभाषा है या कोई ऐसी भाषा नीति जिससे हम गर्व से कह सकें कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। दर्जनों समृद्ध भाषाओं वाले इस देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक और न्याय व्यवस्था से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था तक सब कार्य पराई भाषा में होता है और फिर भी हम विश्व गुरु होने का दावा ठोक देते हैं

राष्ट्रभाषा हिंदी के संदर्भ में जब हम गाँधी जी की बात करते हैं तो हम पाते हैं कि गाँधी जी ने सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि स्वतंत्रता के लिए जन-जागरण के साथ-साथ राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को भी स्थापित करने का भरसक प्रयास किया। अपनी पहली सत्याग्रह यात्रा (चंपारण 1917) के दौरान 3 जून, 1917 को उन्होंने एक परिपत्र निकाला था जिसमें हिंदी की महत्ता के संदर्भ में लिखा था कि 'हिंदी जल्दी से जल्दी अंग्रेजी का स्थान ले ले यह ईश्वरी संकेत जान पड़ता है। हिंदी शिक्षित वर्गों के बीच समान माध्यम ही नहीं बल्कि जनसाधारण के हृदय तक पहुँचने का द्वार बन सकती है। इस दिशा में कोई देशी भाषा इसकी समानता नहीं कर सकती अंग्रेजी तो बिलकुल भी नहीं कर सकती।’

          विदित है कि गाँधी जी हिंदी को जन-साधारण के हृदय तक पहुँचने का द्वार मानते थे और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के हिमायती थे। गाँधी जी सिर्फ इतना ही नहीं कहते कि 'हिंदी ही हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी भी चाहिए' बल्कि वह जोर देकर कहते हैं कि 'अगर हिंदुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या ना माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है।'

          गाँधी जी के इन वक्तव्यों को जब हम आज स्मरण करते हैं तो हमें गहरा दुःख पहुँचता है क्योंकि आज भी हम हिंदी को वह प्रतिष्ठा नहीं प्रदान कर सकें जिसका सपना गाँधी जी ने देखा था। हम गाँधी जी के सपनों का भारत गढ़ने की लाख कवायदें कर लें किंतु हमारी एक निश्चित राष्ट्रभाषा होने से उसका कोई मतलब नहीं। क्योंकि गाँधी जी ने प्रारंभ में ही कहा था कि 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा होता है'

          गाँधीजी केवल हिंदी का मौखिक प्रचार करके ही राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी महत्ता और प्रतिष्ठा बताकर शांत नहीं रहे बल्कि उन्होंने अंग्रेजी वर्चस्व के दौरान भी 1918 में दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने की व्यवस्था की।  इंदौर में गाँधीजी की अध्यक्षता में हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया और एक प्रस्ताव के माध्यम से हिंदी को राष्ट्रभाषा माना गया और साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' की स्थापना की गई। किंतु खेद है कि संविधान सभा में होने वाली बहस के पहले ही गाँधी जी की हत्या हो गई, देश का विभाजन भी हो गया और पाकिस्तान ने अपनी राष्ट्रभाषा उर्दू घोषित कर दी। इन परिस्थितियों का भी प्रभाव संविधान सभा की बहसों और होने वाले निर्णयों पर पड़ा। हिंदुस्तानी और हिंदी को लेकर सदन दो खेमों में बँट गया बहुमत हिंदी के पक्ष में था किंतु यहाँ भी संविधान सभा ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में दर्जा देकर हिंदी को संघ की राजभाषा तय कर दिया। आज सात दशक बाद जब हम संविधान सभा के उस निर्णय का मूल्यांकन करते हैं तो हम पाते हैं कि हिंदी को इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। साथ ही दक्षिण के हिंदी विरोध का यही कारण भी है , जो लोग गाँधीजी के प्रभाव में आकर हिंदी का प्रचार प्रसार कर रहे थे वह भी बाद में हिंदी के विरोधी हो गए।

          हिंदी के लिए इतना अतुलनीय योगदान देने वाले गाँधी जी स्वयं गुजराती भाषी थे और अपने आंदोलन के दौरान खुद बहुत जतन से उन्होंने हिंदी सीखी थी। स्वतंत्रता आंदोलन से पूर्व गाँधी जी पूरे देश का भ्रमण करते हैं और पाते हैं कि हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जो पूरे देश को जोड़ सकती है। इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही। आजादी के बाद जब देश का  बँटवारा हुआ तो किसी विदेशी पत्रकार ने गाँधी जी से दुनिया को संदेश देने की बात कही तो गाँधीजी बड़े ही मार्मिक शब्दों में जवाब देते हुए कहते हैं कि 'कह दो दुनिया को कि गाँधी को अंग्रेजी नहीं आती' भले ही इसके पीछे बँटवारे को लेकर उनका क्षोभ रहा हो लेकिन यह स्पष्ट है कि गाँधी जी ने पूरे आंदोलन को हिंदी से जोड़ दिया था और यही कारण है कि वह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखते हैं।

           महात्मा गाँधी पहले ऐसे राजनेता माने जाते हैं जिन्होंने राष्ट्रहित के लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तुत किया। यंग इंडिया में प्रकाशित अपने लेख में गाँधी जी ने स्पष्ट किया था कि 'भारत में हिंदी का भावनात्मक एवं राष्ट्रीय महत्व है और भारत की स्वतंत्रता के लिए समस्त राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को हिंदी सीखना आवश्यक होगा जिससे राष्ट्र की सभी कार्यवाहियाँ हिंदी में ही की जा सके' उन्होंने इसके लिए पूरे देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। आज भी यह आवश्यकता है कि भारत की भी अपनी एक राष्ट्रभाषा होना अनिवार्य है, ताकि भारत अपनी बात बोल सके। आज भी शायद हिंदी ही पूरे भारत में एकमात्र ऐसी भाषा है जिसे आपसी सहयोग, साहचर्य एवं प्रेम की भाषा कहा जा सकता है। यही कारण रहा है कि सामाजिक राजनीतिक कार्य के अलावा गाँधी जी हिंदी में छिपी भारतीय मूल की परंपराओं के संवर्धन तथा आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की क्षमता को परखते हुए भारत की स्वतंत्रता के लिए इसको ढाल बनाया।

          गाँधी जी का हिंदी के प्रति प्रेम तथा इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के संदर्भ में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री अरविंद घोष जी लिखते हैं कि गाँधी जी ने आठवें साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता के उपरांत अपने सार्वजनिक उद्बोधन में आह्वान किया था कि 'हिंदी को ही भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए' विदित है कि गाँधी जी जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की अपील की तब देश गुलामी की गुलामी के बंधनों से आजाद होने के लिए संघर्ष कर रहा था। उस दौर में इस मार्मिक अपील ने देशवासियों के हृदय को छू लिया था और उनके भीतर मातृभूमि की स्वतंत्रता की साझी भावना बलवती हो गई थी। स्पष्ट है कि हिंदी भाषा का ही इतना गहरा प्रभाव था कि जिसकी अभिव्यक्ति ने लोगों के हृदय  को छू लिया। गाँधी जी यह भली-भाँति जानते थे कि हिंदी देश की वह भाषा है जिसे देश के अधिकतर लोग बोलते हैं और पूरे देश के लोग इसे आसानी से समझ लेते हैं। गाँधी जी यह भी बखूबी जानते थे कि हिंदी ही ऐसी भाषा है जो कि देश के अधिकांश प्रदेशों की भाषा है भले ही यह फारसी मिश्रित रूप में ही क्यों बोली जाती हो पर भाषा की दृष्टि से उन्होंने हिंदी को ही समृद्ध पाया और जब तक जीवित रहे इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयासरत रहें 

          गाँधी जी हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में थोथले रूप में प्रतिष्ठित करना नहीं चाहते थे। हिंदी को और अधिक समृद्धशाली बनाने के लिए वह हिंदीतर क्षेत्रों के लोगों को भी हिंदी से जोड़ने के लिए इन्होंने इसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु आठवें हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान ही पाँच दूतों की नियुक्ति की और उन्हें देश के उन राज्यों में भेजा जहाँ उस वक्त हिंदी का ज्यादा प्रचलन नहीं था। हिंदी के उन पाँच दूतों में स्वयं गाँधीजी के सबसे छोटे बेटे देवदास गाँधी भी थे। अपने एक वक्तव्य में गाँधी जी हिंदी के बारे में कहते हैं कि, "जैसे अंग्रेज मदारी जबान यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।"

           गाँधी जी देश की गंगा-जमुनी संस्कृति  से पूर्णत: परिचित थे और यह भी भली-भाँति जानते थे कि एक वर्ग ऐसा भी है जो उर्दू का हिमायती है और उर्दू को ही अव्वल दर्जे की भाषा बनाए रखना चाहता है। इस संदर्भ में भी वह कहते हैं कि हिंदी वह भाषा है इसे हिंदू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है, "यह हिंदी संस्कृतमयी नहीं है ही वह एकदम फारसी अल्फ़ाज़ से लदी हुई है।" गाँधीजी स्पष्ट रूप में कहते हैं कि "यह कदापि समझा जाए कि हिंदी सिर्फ हिंदुओं की भाषा है और संस्कृतमयी है, बल्कि हिंदी फारसी और हिंदुस्तानी का मिश्रित रूप है।"

          गाँधी जी ने आम बोलचाल के साथ न्यायिक व्यवस्था प्रशासनिक क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग पर विशेष बल दिया। उन्होंने कहा था, "हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलने चाहिए, जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक प्रजा को राजनीतिक कार्यों में ठीक तालीम नहीं मिलती है। हमारी अदालतों में भी राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषाओं का जरूर प्रचार होना चाहिए।"

          हिंदी के साथ-साथ प्रांतीय भाषाओं के महत्व को भी महात्मा गाँधी जी बखूबी जानते थे। वह हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करना अवश्य चाहते थे किंतु प्रांतीय भाषाओं को बिना उपेक्षित किए। वह चाहते थे कि हिंदी प्रांतीय भाषाओं के सहयोग से राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण के अंतिम वक्तव्य में कहा था कि, 'मेरा नम्र, लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिंदी को राष्ट्रीय दर्जा और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे तब तक स्वराज की सब बातें निरर्थक है'

           हिंदी के प्रति गाँधी जी का प्रेम यूँ ही नहीं जगा था और ना ही वह एकाएक हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर हुए थे बल्कि हिंदी के कवियों और लेखकों के साथ भी गाँधी जी के गहरे संबंध थे। महाकवि निराला और गाँधीजी के बीच संबंध का एक रोचक किस्सा प्रचलित है कि जब गाँधी जी ने कहा था कि हिंदी में कोई टैगोर नहीं है तो निराला जी भड़क गए और गाँधी जी से प्रतिवाद किया और गाँधी जी भी अपनी भूल स्वीकार की। ऐसा कुछ किस्सा पांडे बेचन शर्मा उग्र जी के साथ भी हुआ,  उनकी किताब चॉकलेट पर जब बनारसीदास चतुर्वेदी ने घासलेटी साहित्य कह कर अश्लीलता का आरोप लगाया ,और यह मामला गाँधी जी तक भी पहुँचा। गाँधी जी ने किताब पढ़ी और उग्र जी को इससे बरी करते हुए उसे समाज के हित में बताया और अपने पत्र हरिजन में बाकायदा उस पर एक लेख भी लिखा साथ ही हिंदी लेखकों पर उनका क्या प्रभाव रहा इसे समझने के लिए प्रेमचंद की रचनाएँ पढ़ी जानी चाहिए

          राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रश्न को जब हम गाँधीजी के परिप्रेक्ष्य में उठाते हैं, आजादी के पूर्व से अब तक देखते हैं तो शायद कोई भी ऐसा व्यक्ति या संस्था नहीं है जिसने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए इतनी हिमायत की है। आज के दौर में भले ही हिंदी की बात जोरों से उठाई जा रही है किंतु आज के नेताओं की भाषा में हिंदी की चाटुकारिता का थोथलापन बखूबी से दिखाई देता है। गाँधी जी सहज, सरल हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करना चाहते थे कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी को। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि 'राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए आवश्यक है।'

           गाँधी जी भाषा के प्रश्न को स्वराज से जोड़ते हैं और देश के करोड़ों भूखे, अनपढ़ और दलित जैसे आम भारतीयों की भाषा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने पर बल देते हैं। वह कहते हैं कि 'हिंदी का प्रश्न स्वराज का प्रश्न है' वह यह भी कहते हैं कि 'उत्तर से दक्षिण के मेल के लिए भारत में मजदूर वर्ग से लेकर अभिजात्य वर्ग तक के प्रत्येक भारतीय को प्रांतीयता की संकुचित भावना से परे हटकर राष्ट्रीयता की विस्तृत भावना को देखना चाहिए'

          गाँधी जी ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से लोगों को यह समझाने का भरसक प्रयास किया कि 'अगर हमने अपनी मातृभाषा उन्नत नहीं की और इसके पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे कि अंग्रेजी के माध्यम से ही हम अपने उच्च विचार प्रकट कर सकते हैं तो निसंदेह भारतीय सदा के लिए गुलाम बन कर रह जाएँगे'

          यह बहुत बड़ी विडंबना है कि आज भी यह सवाल वैसा का वैसा ही है और देखा जाए तो आज भी हम अंग्रेजी की दासता से मुक्ति नहीं पा सके हैं। हम आज भी अंग्रेजों ना सही उनकी भाषा के तो गुलाम हम आज भी हैं। हिंदी की दयनीय स्थिति जितनी आज है उतनी शायद अंग्रेजों के समय भी रही होगी। एक तबके का व्यक्ति आज के दौर में भी हिंदी में बात करना हीनता समझता है। इतना ही नहीं विश्व हिंदी दिवस पर भी हमारे बहुत से ऐसे महानुभाव हैं जो अंग्रेजी में लंबा चौड़ा भाषण देकर हिंदी की हिमायत करते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक कुलपति महोदय जी के हिंदी दिवस के एक भाषण का मैं भी साक्षी रहा हूँ इसमें उन्होंने चंद शब्द हिंदी में बोलकर बाकी पूरा वक्तव्य अंग्रेजी में देकर हिंदी की महत्ता के पुल बाँध दिए

          मेरे जहन में भी अनेक सवाल उठते हैं। क्या गाँधी जी ने हिंदी को लेकर यही सपना देखा था जो आज हिंदी की स्थिति है ? क्या कारण है कि हम आज भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिला पाए, जबकि देश में सबसे अधिक प्रदेशों की मूल भाषा एवं बहुसंख्यक लोगों की बोली हमारी हिंदी ही है।


 

कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

पीएच.डी. शोधछात्र

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय,

वल्लभ विद्यानगर

                                                                                                                                                  

2 टिप्‍पणियां:

  1. तथ्यपरक,महत्त्वपूर्ण आलेख।कुलदीप कुमार 'आशकिरण' जी को बधाई।

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  2. हिंदी प्रेमी पाठक/लेखक भी किसी नए हिंदी लेखक की किताब नहीं खरीदते हैं. हिंदी की किताब बिकेगी नहीं तो युवा हिंदी को कैरियर कैसे बनाएंगे... मंच पर भाषण देने और व्याख्यान लिखने के लिए हिंदी ठीक है... किंतु जब तक हम सब हिंदी पुस्तकें /पत्रिकाओं को खरीदने का संकल्प नहीं लेंगे... तब तक हिंदी का मार्ग व्यवसायिक रूप से प्रशस्त नहीं होगा.

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