शुक्रवार, 10 जून 2022

पुस्तक-चर्चा

 



एक और नोआखली

(कहानी संग्रह-देवेन्द्र कुमार)

डॉ. हसमुख परमार

          वर्ष 2014 में प्रकाशित ‘एक और नोआखली’ पुस्तक में कहानीकार देवेन्द्र कुमार की कुल ग्यारह कहानियाँ संगृहीत है। यद्यपि लेखक का यह प्रथम कहानी संग्रह है तथापि उनकी कहानियों में एक परिपक्व कहानीपन की प्रतीति पाठक को अवश्य होती है। संग्रह से गुजरते हुए लेखक के व्यापक व वैविध्यपूर्ण जीवनानुभवों, साथ-ही उनकी सोदे्श्य रचनाधर्मिता को बखूबी देखा जा सकता है। कहानीकार के शब्दों में ‘‘बचपन से लेकर अब तक जिये हुए समय, समाज व जीवन की विविधता के जो दृश्य स्मृतियों में बने, उनमें बहुधा विस्मृत होते रहे पर कुछ ने मन को मथ डाला। जिन स्मृतियों ने मन मन्थन किया, विचार से नहीं उतरी, आसपास की दुनियावी जीवन स्थिति के साथ, कथा कहानियों के रूप में कागज पर उभर आईं।’’

          गाँव और शहर के अलग-अलग किरदारों, उन किरदारों के सामाजिक-पारिवारिक जीवन से संबद्ध विविध सत्यों को लेकर बुनी गई कहानियों की विषय वस्तु निश्चित ही लेखक को हिन्दी कथासाहित्य की यथार्थवादी परंपरा से जोडती है। ‘‘देवेन्द्र की कहानियों से गुजरते हुए लगता ही नहीं कि ये उनकी प्रारंभिक कहानियाँ है। प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, रामदरश मिश्र, शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय आदि की यथार्थवादी परंपरा के वे राही जान पडते हैं।’’ (पुस्तक के फ्लैप से)

          संग्रह की प्रथम कहानी ‘बटलोई’ में एक स्त्री का अपने मायके के प्रति विशेषतः अपने पिता के प्रति विशेष प्रेम व लगाव को व्यक्त किया है। हिन्दी प्रदेश में विवाह के समय माँ-बाप के घर से बेटी को ससुराल बिदा करते समय अन्य भेट-सौगाद के साथ विशेष रूप से ‘बटलोई’ देना एक रिवाज है। प्रस्तुत कहानी की मूल संवेदना इसी बटलोई से जुडी है। स्त्री के लिए यह बटलोई महज एक बरतन नहीं पर अपने पिता की यादें है।

          स्त्री के जीवन की सबसे बड़ी हकीकत यह है कि शादी के बाद ससुराल पक्ष के रिश्तों को अनिवार्य रूप से निभाने पड़ते हैं किंतु अपने मायके के प्रति उसके संबंध सूत्र कभी खत्म नहीं होते, जो स्वाभाविक है। मायके की चीजों को बड़ी जतन से सँभालना मायके के प्रति गहरी आत्मीयता का सूचक है। इस आत्मीयता की चरमसीमा कहानी में तब दिखाई देती जब बटलोई चोर से स्त्री कहती है- ‘‘बोल मेरी बटलोई कहाँ है तुम्हीं ने मेरी बटलोई बेची है। तुमने मेरे बाप के प्यार को बेचा, उनके पसीने को बेचा है। वह मेरे बाप के खून पसीने की कमाई थी। माँ-बाप के बाद नैहर में कोई रिश्ता नहीं बचता। भौजाइयों के आने के बाद भाई का भी नहीं। मेरे बाप की यादों और खून पसीने की यह निशानी थी।’’ (एक और नोआखली, पृ. 15)

          ‘चाह’ नामक स्त्री केन्द्रित कहानी एक अलग ही तरह की समस्या को दर्शाती है। एक स्त्री के लिए मातृत्व की चाह, एक सास के लिए अपने कुलदीपक की चाह बिल्कुल स्वाभाविक है। यहाँ तक तो ठीक है, परंतु संतान न होने पर हमेशा स्त्री को ही जिम्मेदार मानने की मानसिकता और यदि स्त्री का पति ही इसके लिए अक्षम हो तो सास को कुलदीपक की इतनी चाह कि वह अपनी बहू के सामने अन्य पुरुष से संतान पैदा करने की इच्छा व्यक्त करना पूरी तरह से अनैतिक है। एक स्त्री के सामने उसकी सास का इस तरह का प्रस्ताव कितना आघातजन्य होगा, यह तो भुक्तभोगी ही जान सकता है। प्रस्तुत कहानी में इसी स्थिति को लेखक ने बड़ी संजीदगी से रेखांकित किया है।

          दलित चेतना तथा पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था में स्त्री की सामाजिक स्थिति को ‘उड़द’ कहानी में चित्रित किया गया है। प्रतीकात्मक शैली की इस कहानी में उड़द और अरहर दोनों दलहन, जो दलित तथा सवर्ण समाज को संकेतित करते हैं। इसी के साथ-साथ पुरुषप्रधान समाज, चाहे दलित हो या सवर्ण, इस व्यवस्था में स्त्री की नियति को भी बखूबी स्पष्ट किया है। ‘‘औरत की कौनो जात नहीं होती। जात तो सब सालों मरदों की होती है। जाने कहाँ से आये, बड़का बाभन बने हैं। औरत तो खेत होती है, खेत, जो बोया जाता है वही पैदा करती है। ऊँचे तो इ बाभन हैं, औरत तो हमेशा दलित ही है।’’....... ‘‘हम तो औरत हैं, बाभन के यहाँ जायेंगे तो बाभन, दलित के यहाँ दलित-मुसलमान ले गया तो मुसलमन्नी। जाति तुम मर्दों की है।’’ (एक और नोआखली, पृ. 60) ‘महुये का पेड़’ भी एक प्रतीकात्मक कहानी है जिसमें जातिगत भेदभाव, विशेषतः एक ही जाति में पाई जाने वाली उपजातियों में भी ऊँच-नीच के भेद तथा दहेज के मुद्दे को प्रस्तुत किया है।

          सांप्रदायिकता को केन्द्र में रखकर लिखी गई ‘एक और नोआखली’ कहानी के नाम पर ही संग्रह का नामकरण है। नोआखली को याद करते हुए लेखक यह दिखाना चाहते है कि अगर दोनों (हिन्दू-मुस्लिम) संप्रदाय के लोग समझदारी से काम लें तो हमेशा से चला आ रहा सांप्रदायिक संघर्ष टल सकता है। नई पढ़ी के समझदार लोगों ने आपसी भाईचारा और सौहार्द को कायम रखते हुए अपने गाँव को एक और नोआखली बनने से बचा लिया।

          ‘श्रद्धांजलि’ बदलते हुए समय व मूल्य को रेखांकित करने वाली कहानी है। इसी तरह आधुनिक संवेदनहीनता के इर्द गिर्द बुनी गई ‘मरि है संसारा’ थी संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। ‘फोरलेन’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने समाज से लेकर सत्ता तक में व्याप्त भ्रष्टाचार को बड़े विस्तार से दिखाया है। कहानीकार ने विकास के नाम पर मची अंधाधुंधी को भी अपनी कहानी के दायरे में लिया है। ‘गाँव, पिछौरी और सुल्तान डाकू’ विस्थापन से उत्पन्न व्यक्ति की पीड़ा को उभारने वाली कहानी है।

          स्त्री जीवन की विविध समस्याओं के साथ-साथ बेरोजगारी, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि मुद्दों को लेकर सांप्रत समय की लिखी कहानियाँ ‘एक और नोआखली’ संग्रह में संगृहीत हैं। कहानियों की संवेदना व विषयवस्तु के अनुरूप भाषा का प्रयोग तथा शैलीगत वैविध्य को स्पष्ट देखा जा सकता है। सामाजिक यथार्थ को निरूपित करती इन कहानियों में लेखक ने समाज के ‘सु’ और ‘कु’ दोनों पक्षों को लिया है। यथार्थवादी तथा प्रगतिशील विचारधारा के इस कहानीकार ने अन्याय, अत्याचार, जातिगत भेदभाव, सांप्रदायिक वैमनस्य, भ्रष्टाचार, उत्तर आधुनिकता के दौर में मनुष्य में खत्म हो रही संवेदना, रिश्तों में महज औपचारिकता, चारित्रिक दुर्बलताएँ आदि विषय बिंदुओं के साथ-साथ रिश्तों की अहमियत, आत्मीयता, मनुष्यता, भाईचारा, सांप्रदायिक सद्भाव, चारित्रिक सबलता जैसे जीवन के उज्ज्वल पक्षों को भी अपनी कहानियों में रेखांकित किया है।

 



डॉ. हसमुख परमार

एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

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