डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
1
'ही'
अव्यय है।
इसे
अवधारणामूलक अव्यय कहा जाता है।
किसी शब्द पर
या किसी बात पर बल देने के लिए इसका उपयोग किया जाता है।
बहुत
निश्चयपूर्वक अपनी बात कहने के लिए अवधारणामूलक
'ही' का प्रयोग किया जाता है।
किसी व्यक्ति,
वस्तु या कार्य की अनिवार्यता दिखाने के लिए 'ही'
का प्रयोग किया जाता है।
संज्ञा,
सर्वनाम, विशेषण, क्रिया,
अव्यय सभी प्रकार के शब्दों के साथ 'ही'
का प्रयोग होता है।
१. मोहन ही
यह काम कर सकता है। (संज्ञा)
२. मैं ही
वहाँ जाऊँगा। (सर्वनाम)
३. कौआ काला
ही होता है। (विशेषण)
४. मैं आपके
पीछे ही खड़ा था। (अव्यय)
५. सुशील
रात-दिन पढ़ता ही रहता है।
2
अक्षर
शब्द के दो संदर्भ हैं।
एक संदर्भ
उच्चारण का है तथा दूसरा संदर्भ लेखन का है।
१.
भाषाविज्ञान में अक्षर अंग्रेजी के सिलैबिल शब्द का पर्याय है।
एक स्वर तथा
एक स्वर के साथ एक या एक से अधिक व्यंजन, जिनका
उच्चारण एक इकाई के रूप में होता है, सिलैबिल या अक्षर कहा
जाता है।
सिलैबिल का
संबंध उच्चारण से है।
२. व्याकरण
में अक्षर शब्द एक स्तर पर वर्ण का पर्याय है।
जैसे - अ आ इ
.... क ख ग .... आदि को हम वर्ण भी कहते हैं तथा अक्षर भी कहते हैं।
दूसरे स्तर
पर अक्षर स्वर युक्त व्यंजन वर्ण को कहते हैं।
इस स्तर पर क
का कि की कु कू ... आदि सभी अक्षर हैं।
परंतु ये
वर्ण नहीं हैं।
आपने पूछा है
- भारत शब्द में कितने अक्षर हैं?
उच्चारण के
स्तर पर भारत शब्द में दो अक्षर हैं -
भा+रत।
लेखन के स्तर
पर भारत शब्द में तीन अक्षर हैं -
भा+र+त
भा स्वर
युक्त व्यंजन है।
लेकिन जब
इसका वर्ण-विच्छेद करेंगे तो होगा -
भ्+आ+र्+अ+त्+अ।
3
शब्द
और पद
स्कूली
व्याकरणों में शब्द और पद को अलग-अलग बताया जाता है।
शब्द तो शब्द
है ही।
लेकिन पद की
व्याख्या या परिभाषा स्कूली व्याकरण लेखक इस प्रकार करते हैं -
१. शब्द जब
वाक्य में प्रयुक्त होता है, तब वह पद बन जाता
है।
२. वाक्य में
प्रयुक्त शब्द पद कहलाता है।
यह निहायत
गलत धारणा है। यह संस्कृत व्याकरण की अवधारणा को हिंदी में लागू करने का गलत
प्रयास है।
संस्कृत
व्याकरण में शब्द के मूल रूप को प्रातिपदिक कहा जाता है। प्रातिपदिक का न कोई लिंग
होता है,
न वचन होता है। उसकी कोई व्याकरणिक हैसियत नहीं होती।
इसी लिए
संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रातिपदिक का वाक्य में प्रयोग नहीं होता।
प्रातिपदिक
जब पद बनता है, तभी उसका वाक्य में प्रयोग होता
है - अपदाः न प्रयुक्तव्याः।
प्रातिपदिकों
को पद में रूपांतरित करने के लिए उनके साथ सुप् नामक विभक्तियाँ जोड़ी जाती हैं।
लेकिन यह
संस्कृत की व्यवस्था है। हिंदी की नहीं।
हिंदी में तो
विभक्ति जैसा कुछ है ही नहीं।
हिंदी में
शब्द ही पद है। पद ही शब्द है। आप उसे पद कहिए या शब्द कहिए। एक ही बात है।
संस्कृत तथा
हिंदी की आंतरिक संरचना बिलकुल भिन्न है। संस्कृत योगात्मक भाषा है,
जिसमें रूपों की भरमार है। संस्कृत में शब्दों (यानी प्रातिपदिकों)
के जो तरह-तरह के रूप बनते हैं, उन्हीं को पद कहा जाता है।
उसके विपरीत
हिंदी वियोगात्मक भाषा है, जिसमें शब्दों के
अत्यल्प रूप होते हैं।
हिन्दी में
शब्द ही वाक्य में प्रयुक्त होते हैं।
हिन्दी में
शब्द और पद समानार्थक हैं। संज्ञा शब्द कहिए या संज्ञा पद कहिए। क्रिया शब्द कहिए
या क्रिया पद कहिए, एक ही बात है।
जो लोग
संस्कृत व्याकरण के साँचे में हिंदी व्याकरण को ढालना चाहते हैं,
यह उनकी देन है।
व्याकरण में
रुचि रखने वाले लोग स्वविवेक से स्वयं विचार करें कि हिंदी में शब्द और पद का यह
भेद क्या जरूरी है?
डॉ.
योगेन्द्रनाथ मिश्र
40,
साईं पार्क सोसाइटी
बाकरोल
– 388315
जिला
आणंद (गुजरात)
Excellent explanation and so clear.
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