बुधवार, 4 मई 2022

संस्मरण

 



सफ़र : जाने से पहले आने के बाद

डॉ. पूर्वा शर्मा

आगरा ! एक ऐसा शहर जो संगमरमर की बेहद खूबसूरत इमारत ‘ताजमहल’ के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। इस शहर का दूसरा आकर्षण है वहाँ का ‘पेठा’। मंत्र-मुग्ध करने वाला प्रेम-सौन्दर्य का नायाब नमूना ताजमहल और स्वादिष्ट-रसीले पेठे पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र में रहे हैं। लेकिन मेरे लिए इन कारणों के अलावा इस शहर के आकर्षण का एक और विशेष कारण रहा है – वहाँ बसी एक साहित्यिक प्रतिभा।

ताजनगरी का गहरा संबंध हिन्दी की कई प्रमुख साहित्यिक हस्तियों जैसे – सूरदास, रहीम, बाबू गुलाब राय, डॉ. रामविलास शर्मा, रांगेय राघव आदि से रहा है। हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले आगरा के साहित्यकारों की सूची काफ़ी लंबी है। इस सूची में एक नाम है – ‘डॉ. गोपाल बाबू शर्मा’। प्रसिद्ध व्यंग्यकार, कवि, लघुकथाकार, निबंधकार, शोधकर्ता, समीक्षक .... और न जाने क्या-क्या? सही मायने में गोपाल बाबू एक सर्जक होने के साथ-साथ एक सरल हृदय एवं प्रभावी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति है।

पिछले ढाई-तीन वर्षों से गोपाल बाबू से मिलने जाने हेतु आगरा-यात्रा बार-बार स्थगित हुई, कभी कोरोना तो कभी कुछ अन्य कारण से। पिछले कुछ दिनों में भी यह प्लान तकरीबन दो बार बना और ध्वस्त भी हो चुका। इस बार कोई पूर्व तैयारी को चल पड़ना मुझे उचित लगा। कहते हैं न कि संयोग के बिना कुछ नहीं होता, लेकिन न जाने क्यों विश्वास होने लगा कि इस बार संयोग बनेगा ही और यह फिर टलेगा नहीं।

जिनसे आप आज तक कभी मिले न हो, पहली बार मिलने के लिए जा रहे हैं; इतना ही नहीं उनके बारे में कुछ अधिक जानकारी भी न हो। परंतु उनसे मिलने की उत्कंठा बहुत प्रबल हो। ऐसे में मन में एक विचित्र बेचैनी महसूस होती है। हाँलाकि कुछ वर्षों से उनके साथ  फोन पर संपर्क बना हुआ था जिसके कारण मुझे एक बात का विश्वास हो गया कि मुझे उनसे मिलने की जितनी उत्सुकता थी, उतनी ही या उससे ज्यादा उन्हें मुझसे मिलने की।

और फिर वह दिन आ ही गया जब मुझे आगरा के लिए निकलना था, बारह-पंद्रह घंटे का सफ़र तय करना था। अब मैंने जल्दी-जल्दी सफ़र पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। बस ! अब तो मेरे मन में उनकी कही बातें ही गूँज रही थीं – ‘मिलना जरूरी है.... मेरे पास वक्त बहुत कम है...पता नहीं मुलाकात हो पाएगी भी या नहीं....इत्यादि’। पूरे सफ़र में भी यही सारे विचार मन में चलते रहे। मन में उनसे मिलने की ख़ुशी तो थी ही, साथ में एक अजीब-सी बैचैनी भी थी। उत्सुकता बढ़ती जा रही थी,  मन में बस एक ही ख़याल कि जितनी जल्दी सफ़र पूरा हो उतनी जल्दी वहाँ पहुँच सकूँ और प्रतीक्षा की घड़ियाँ शीघ्र अति शीघ्र समाप्त हों।

सुबह, पहुँचने से कुछ घंटों पहले फोन बजा, दूसरी ओर उनकी आवाज़ थी कि – ‘कहाँ तक पहुँची? कितनी देर में आओगी? सफ़र में कोई तकलीफ़ तो नहीं ?’ मैंने जवाब में कहा कि – सब ठीक है, जल्दी ही आपसे मिलती हूँ।

फिर कुछ घंटों के बाद मैंने आगरा की हवा में साँस ली और कुछ देर में, मैं अपने उस आगरा के आकर्षण के समक्ष थी। फिर मुलाकात के वह अनमोल क्षण भी पलक झपकते ही बीत गए। और देखते ही देखते मैं इस शहर से विदा भी हो गई। वापसी में मेरी आँखों के सामने बीते हुए क्षण एक चलचित्र की तरह चलते चले जा रहे थे।

आदरणीय डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी से मेरा परिचय उन दिनों हुआ था जब मैं पीएच.डी. कर रही थी खैर ! पीएच.डी. तो पूरी हो गई लेकिन उससे ज्यादा सुखद बात यह रही कि उनसे संपर्क बना रहा। कई बार वे फ़ोन पर बात करते-करते भाषा-साहित्य संबंधी जानकारियाँ और सुझाव मुझे देते रहते।

मैं यात्रा से वापस लौट चुकी थी लेकिन मेरा मन तो अभी भी वहीं भ्रमण कर रहा था। आगरा की गलियों में घूमते हुए मैंने पुनः अपने आप को आदरणीय शर्मा जी के ड्राइंग रूम में उनके समक्ष पाया। और मुझे वहाँ पर घट रही सभी बातें स्मरण होने लगी। शर्मा जी के बारे में मैं आपको क्या बताऊँ! अपनी बढ़ती उम्र के चलते वे घर में भी कम ही घूम-फिर पाते हैं और सहारे से चलते हैं। लेकिन जैसे ही मेरे कदम उनके घर के गेट की तरफ बढ़े, दीवार के सहारे से धीरे-धीरे चलते हुए कोई घर के बाहर मुख्य द्वार तक आता हुआ दिखाई दिया... मैं समझ गई कि वे गोपाल बाबू ही है। मेरे लिए यह उनकी पहली झलक थी। शायद कोई टेलीपेथी ही रही होगी कि बिन किसी आहट के या बिन बेल बजाए उन्हें पता चल गया।

उनसे मिलने पर चहरे पर एक चमक स्वाभाविक ही थी। मन बेहद ख़ुशी का अनुभव कर रहा था और फिर उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। उन्होंने अपने कुछ पुराने किस्से सुनाने आरंभ किए, कुछ साहित्य की बातें, कुछ कॉलेज में पढ़ने-पढ़ाने की बातें और कुछ इधर-उधर की बातें। इस छोटी-सी मुलाकात में गोपाल बाबू के स्वाभाव एवं व्यवहार ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके लेखन से गुजरते हुए मैंने उनको जितना समझा उससे कहीं ज्यादा आज उनको जानने-पहचानने एवं समझने का अवसर मिला। अल्पकालीन संवाद गोष्ठी में इस साहित्यिक शख़्सियत की विचारधारा, सृजन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता एवं समर्पण भाव का, साथ ही उनकी ज्ञाननिष्ठा, विद्यानुराग एवं शिष्यवत्सलता आदि का बोध; बेशक मेरे जीवन के अविस्मरणीय क्षण रहेंगे।  

बातें करते-करते समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला और शाम होने लगी और मेरे जाने का समय भी हो गया। विदाई का वह क्षण मेरे लिए उतना ही मुश्किल रहा जितना कि उनके लिए।

 



डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 

 

 

8 टिप्‍पणियां:

  1. प्रभावी लेखन , पूर्वा मैडम

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  2. इस प्रकार की यात्राएं और प्रतिभाओं से मिलना एक अविस्मरणीय पल अपने मन पटल पर सदैव के लिए अंकित हो जाते है और हमेशा जहन में बसे रहते है । पूर्वा तुम्हारी लेखनी ने मुझे भी गोपाल बाबू जी के पास आगरा पहुँचा दिया । अति सुंदर वर्णन । आशीर्वाद ।

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  3. बहुत बढ़िया! हार्दिक बधाई!

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  4. संस्मरण में आदरणीय गोपालबाबू शर्मा की आत्मीयता की गंध घुली हुई है।अच्छा संस्मरण।

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  5. बढ़िया! संस्मरण है जी , हार्दिक बधाई !

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