रविवार, 3 अप्रैल 2022

कहानी पर बात

 



सूरजपाल चौहान की दो कहानियाँ

डॉ. दीपिका

          सूरजपाल चौहान का नाम हिन्दी दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षरों में लिया जाता है। कविता, कहानी, आत्मकथा आदि विधाओं पर लेखनी चलाने वाले इस साहित्यकार का हिन्दी दलित साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

          सूरजपाल चौहान का जन्म 20 अप्रैल, 1955 को उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ जिले के फुसावली नामक गाँव में एक बहुत गरीब दलित परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम श्री रोहनलाल तथा माता का नाम आशलिया देवी था। सूरजपाल चौहान ने बी.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की, स्कूल के समय से ही वह ‘नुक्कड कविताएँ’ लिखने लगे थे। लेकिन दलित साहित्य लिखने की प्रेरणा उनको डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के विचार व लेखन से मिली।


(सूरजपाल चौहान)

          दलित स्त्रियों के विद्रोह के संदर्भ में सूरजपाल चौहान की दो कहानियों - ‘अंगूरी’ और ‘टिल्लू का पोता’ का परिचय.....

(1) ‘अंगूरी’ -

          सूरजपाल चौहान की अंगूरी कहानी की नायिका अंगूरी का स्वरूपवान होना उसके लिए अभिशाप का कारण बन जाता है । दलित अंगूरी का यौवन और सुन्दरता गाँव के युवकों के साथ साथ बड़े-बूढ़े तक को आकर्षित करता था । अंगूरी का पति- गेंदा सवर्णों की बेगारी करता था । वह दिनभर के परिश्रम के बाद  केवल बदले में दो वक्त का भोजन ही जुटा पाता था । गरीब, लाचार और अशक्त गेंदा पत्नी के सम्मान के लिए सवर्णों का सामना करने में अपने आपको असमर्थ महसूस करता है। अंगूरी भी अब पति से शिकायत करके थक चुकी थी । उसका जीना हराम हो गया था । लोगों की छेड़-छाड और प्रणय निवेदन आदि हरकतों से वह परेशान हो जाती है । गाँव के मुखिया और उसका काला पहलवान अंगूरी को एक रात षडयंत्र रचकर दबोच लेते हैं और उसको दूर भेज दिया जाता है । मजबूरी में गेंदा को भी एक रात के लिए गाँव से बाहर भेज दिया जाता है । अब अंगूरी को यह षडयंत्र की भनक लग जाती है ।

          अंगूरी एक बहादुर स्त्री है वह अपने पति की गैरमौजूदगी में अपनी आत्मरक्षा करने के लिए तैयार थी । वह भूखे भेडियों को सबक सिखाने के लिए चौकन्नी हो जाती है । जैसे ही मुखिया आधी रात को अपना प्रणय प्रस्ताव लेकर अंगूरी के घर में प्रवेश करता है वैसे ही अंगूरी आत्मरक्षा करने हेतु हँसिया उठा लेती है और भूखी शेरनी बनकर उसके सीने पर खड़ी होकर उसे धमकाते हुए कहती है -

चल निकल यहाँ से । यदि जरा सी भी दरी लगाई,

तो तेरी अंतडियाँ निकालकर बाहर धर दूँगी ।

पोंगा पण्डित मैं अहिल्या ना हूँ, में अंगूरी हूँ, अंगूरी ।1

यहाँ अंगूरी की निडरता, साहस, आत्मविश्वास उसे सबला बना देते है। वह शोषण का विरोध करके अपनी रक्षा करती है। साथ ही शोषक को ऐसा सबक सीखाती है, जिससे वह कभी किसी को कमज़ोर समझकर उसका शोषण न कर सके ।

          इस कहानी की अंगूरी लाचार और बेबस अहिल्या नहीं है, जो निर्दोष होते हुए भी दंडित की जाय। आज अंगूरी जैसी महिलाएँ स्वयं की रक्षा करने में समर्थ है और उस पर अन्याय, अत्याचार करनेवाले को वह स्वयं दंड देती है । उसका पति गाँव, समाज, परंपरागत वातावरण एवं रीति-रिवाज, गरीबी भूखमरी, बेरोजगारी आदि के कारण अपने मुँह पर ताला लगा लेता है।

          प्रस्तुत कहानी की शुरुआत गेंदा की लाचारी से होती है, और अंगूरी के विद्रोह से कहानी पूरी होती है ।

(2) टिल्लू का पोता -

          प्रस्तुत कहानी में लेखक ने वर्तमान समय में भी गाँवों में अस्पृश्यता के कारण किस तरह दलितों का अपमान किया जाता है, उसका वर्णन किया है। हरीसिंह एक शिक्षित व्यक्ति है, जो दिल्ली में सरकारी नौकरी करता है। उसकी पत्नी कमला और दो बच्चे हैं। गाँव में किसी रिश्तेदारी में शादी होने से वे गाँव आता है रास्ते में पत्नी एवं बच्चों को प्यास लगती है। हरीसिंह गाँव के भेद-भाव, ऊँच-नीच के वातावरण को भूला नहीं था, इसलिए वे उन्हें थोड़ी देर इंतजार करने की सलाह देता है । कमला और बच्चे वहाँ चल रहे कुएँ और बाल्टी देखकर अपनी प्यास को रोक नहीं पाते । उन्हें अच्छे कपड़े पहने हुए देखकर सवर्ण किसान पहले पानी निकालकर पीने की अनुमति देता है । किन्तू जैसे ही उसे पता चलता है कि यह टिल्लू का पोता है उसका रूप बदल जाता है । वह उसके हाथ से बाल्टी खींचकर माँजने लगता है । कमला इस अस्पृश्यता के भाव को ताड़ नही पाती और प्यास से तडपती जैसे ही पानी पीने के लिए आगे बढ़ती है वह किसान उससे कहता है-

अरे भंगनिया नल पीछे कू हटके पानी पी,

यह शहर ना है गाँव है गाँव है

मारे लठिया के कमर तोड़ दी जायेगी ।

साले भंगिया-चमरा के सहर में जाकै नये नये लता (कपड़े) पहर के गाँव में आ जाता है । कुछ पतो न चलतु कि ये भंगिया चमार के हैं कि नाय (वही)2

          सभी वर्ण के लोगों को गाँव में अच्छे कपड़े अच्छे खान-पान रहन-सहन, स्वतंत्रता, मान-सम्मान मिलता था, सिवाय दलितों के । उन्हें सुखी रहने और सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार नहीं दिया गया था, क्योंकि सदियों से उन्हें दीन-हीन ही रहने पर विवश किया गया है । कमला को अपेक्षा से परे किसान का व्यवहार उसे आहत करता है । वह क्रोध से जल उठती है । उसकी आँखों से दहकते अंगारे निकलने लगते हैं और उस भेद-भाव और छुआ-छूत के भाव से दिए गए पानी को ग्रहण नहीं करती और कहती है-

चलो ये पानी नहीं जहर है । अपने घर जाकर पिएँगे...

नहीं चाहिए आपका मीठा पानी ।3

          पति के इशारे से कमला किसान के कड़वे शब्दों का जवाब बड़े सभ्य रूप में देती है । किन्तु किसान के लिए एक दलित स्त्री द्वारा ऐसे शब्द सुनना नई बात थी गाँव में दलित स्त्रियाँ लाज काढ़े सवर्णों के अपमान को सहती आई थी, कभी अपने अपमान का बदला या विद्रोह किसी ने नहीं किया था । कमला कुएँ के पानी का तिरस्कार करके सवर्ण किसान की बेइज्जती कर देती है । जो काम हरीसिंह नहीं कर पाता वह कमला करके दिखा देती है । शोषण करना यदि गलत है, तो शोषण सहना भी उतना गलत है । शोषण के सामने विद्रोह होगा तभी कुछ परिवर्तन हो सकता है।

संदर्भः-

(1)            ‘अंगूरी’ हैरी कब आयेगा सं. सूरजपाल चौहान, पृ. 47

(2)            ‘टिल्लू का पोता’ हैरी कब आयेगा सूरजपाल चौहान, पृ. 26

(3)            वही पृ. 26 

 



डॉ. दीपिका

गाँधीनगर, गुजरात

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