वही
पगली
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
दीवार
में लगीं पेंटिंगें
उभार
देतीं मन में कई आकृतियाँ
विचलित
मन
बढ़ता
रक्तचाप
क्षितिज
का स्याह रंग
उड़ता
उन्मुक्त पक्षियों का झुंड
गोली
की आवाज़
और
ज़मींदोस्त हो जाते
दो
फड़फड़ाते कबूतर
बिल्कुल
तुम्हारी तरह।
पेंसिल
सादा कागज
रंग
और कूँची
मन
में उभरती आकृति
जो
तुम सोचती थी
वही
पगली
बड़ी-बड़ी
आँखों से
देखती
है टुकुर-टुकुर
उत्पाती
बच्चे
मार
रहे पत्थर
किसी
दूसरी पगली को।
तुम्हारे
एक-एक शब्द रात भर
मचाते
रहे उत्पात
मेरे
कर्णपट पर
बिल्कुल
वैसे ही
जैसे
पिछली कई रातों से
नींद
और आँखों के बीच
लम्बी
तकरार छिड़ी है
जो
आज भी सुलह नहीं हुई।
मैंने
पेंसिल तोड़ दी
रंग
को सादे कागज पर ऊँड़ेल दिया
और
कूँची से उसे समेटने का
असफल
प्रयास करता रहा
बिल्कुल
तुम्हारी जिंदगी की तरह।
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
पीएच.डी. शोधछात्र
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय,
वल्लभ विद्यानगर
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