सोमवार, 4 अप्रैल 2022

कविता


युद्ध और रिश्ते

रमेश कुमार सोनी

कितना सूना है

नानी का गाँव

जब रिश्ते उठ जाते हैं तो

उसके साथ ही उड़ जाती हैं

गर्मी की छुट्टियों की यादें

वर्ष भर की प्रतीक्षा पर

फिर जाता है पानी,

उनके घर आने की खुशी

लौटने पर विदाई के आशीर्वाद की आकांक्षा ।

जाने कितने ऐसे लोग होंगे

जिनके रिश्ते यूँ ही उठ जाते हैं

कुछ रूठ जाते हैं

उनके साथ ही रूठ जाती है

पूरी कायनात

कभी सोचता हूँ

जिसके पास ये दौलत नहीं है

वो कितना गरीब होता होगा।

आज देखता हूँ

इन शरणार्थियों को

जिन्हें पता ही नहीं कि

वे किसके गाँव जाएँगे?

किसे अपना गाँव; देश कहेंगे

कहाँ होगा उनका ठिया?

कहाँ मिलेगी उन्हें

अपनी धरती और आसमान।

रिश्ते निभाने को दौड़ पड़ना चाहिए था

मानवता के पैरोकारों को,

शांति सेनाएँ शांत बैठी हैं

अपनों की अकाल मृत्यु पर

दुःख मनाना छोड़कर

नर्स-डॉक्टर जुटे हैं

घायलों की चिकित्सा में

ये रिश्ता क्या कहलाता है?

हथियार कभी नहीं देखते कि

ये अस्पताल है या असलाखाना।

युद्ध सब छीन लेता है लोगों से

उनकी यादों को और हँसकर देखता है

किसी मासूम की तरह

वाकई ये कसूर तो

उन्हीं के जैसे दिखने वालों का है

जो नहीं चाहते कि

कहीं कोई उम्मीद का पत्ता भी

उनके बिना न खड़के

सब चाहते हैं

कि युद्ध न हो

लेकिन कोई तो कहीं से यह चाहता है

कि उसके तोप-गोली की फैक्ट्री चलती रहे

वही कर रहा है चुगली-ऊँगली

और पहरेदारी लोगों की स्मृतियों और रिश्तों पर।




रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर -रायपुर

छत्तीसगढ़

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