युद्ध
और रिश्ते
रमेश
कुमार सोनी
कितना
सूना है
नानी
का गाँव
जब
रिश्ते उठ जाते हैं तो
उसके
साथ ही उड़ जाती हैं
गर्मी
की छुट्टियों की यादें
वर्ष
भर की प्रतीक्षा पर
फिर
जाता है पानी,
उनके
घर आने की खुशी
लौटने
पर विदाई के आशीर्वाद की आकांक्षा ।
जाने
कितने ऐसे लोग होंगे
जिनके
रिश्ते यूँ ही उठ जाते हैं
कुछ
रूठ जाते हैं
उनके
साथ ही रूठ जाती है
पूरी
कायनात
कभी
सोचता हूँ
जिसके
पास ये दौलत नहीं है
वो
कितना गरीब होता होगा।
आज
देखता हूँ
इन
शरणार्थियों को
जिन्हें
पता ही नहीं कि
वे
किसके गाँव जाएँगे?
किसे
अपना गाँव; देश कहेंगे
कहाँ
होगा उनका ठिया?
कहाँ
मिलेगी उन्हें
अपनी
धरती और आसमान।
रिश्ते
निभाने को दौड़ पड़ना चाहिए था
मानवता
के पैरोकारों को,
शांति
सेनाएँ शांत बैठी हैं
अपनों
की अकाल मृत्यु पर
दुःख
मनाना छोड़कर
नर्स-डॉक्टर
जुटे हैं
घायलों
की चिकित्सा में
ये
रिश्ता क्या कहलाता है?
हथियार
कभी नहीं देखते कि
ये
अस्पताल है या असलाखाना।
युद्ध
सब छीन लेता है लोगों से
उनकी
यादों को और हँसकर देखता है
किसी
मासूम की तरह
वाकई
ये कसूर तो
उन्हीं
के जैसे दिखने वालों का है
जो
नहीं चाहते कि
कहीं
कोई उम्मीद का पत्ता भी
उनके
बिना न खड़के
सब
चाहते हैं
कि
युद्ध न हो
लेकिन
कोई तो कहीं से यह चाहता है
कि
उसके तोप-गोली की फैक्ट्री चलती रहे
वही
कर रहा है चुगली-ऊँगली
और पहरेदारी लोगों की स्मृतियों और रिश्तों पर।
रमेश कुमार सोनी
कबीर
नगर -रायपुर
छत्तीसगढ़
बहुत भावपूर्ण , मर्मस्पर्शी रचना!
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