गुज़र जाते हैं मन पसंद मौसम (डॉ.
सुधा गुप्ता)
डॉ. पूर्वा शर्मा
अनुभूतियों का भंडार मानव मन प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ अनुभव करता है । पल भर
में खुशियों की लहर उठती है तो अगले ही पल दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है, कभी अति उत्साही
मन असंभव प्रतीत होने वाले कार्य को करने सहज दौड़ ही पड़ता है, तो कभी घोर निराशा की
बदली एक कदम भी उठाने नहीं देती; पर मन तो मन है, कुछ भी, किसी भी भाव को महसूस कर
सकता है । मन की अपनी पसंद है, वह अपनी पसंदीदा वस्तुओं / व्यक्तियों के साथ ही समय
व्यतीत करना चाहता है । यह सच है कि दुःख की घड़ी में एक-एक क्षण भी एक-एक वर्ष
जैसा प्रतीत होता है लेकिन मन को आनंद देने वाले, ख़ुशी वाले क्षण झट से बीत जाते
हैं । इस मनभावन क्षण की अवधि चाहे क्षणभर की हो या फिर कुछ दिन या माह या भले ही वर्षों
की, कहाँ बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता ।
ऐसे मनभावन क्षण हमारे मन पसंद सुहावने मौसम की तरह बड़ी शीघ्रता-तत्परता से गुज़र
जाते हैं । ‘गुज़र जाते हैं
मन पसंद मौसम’ इन्हीं क्षणों का चित्रण प्रतीत हुआ ।
प्रस्तुत कविता में शीर्षक के नीचे की पंक्ति में लिखा है – ‘दुनिया
की हर एक माँ के लिये एक कविता’ । दरअसल
यह कविता आपकी निज अनुभूति तो है ही, लेकिन अपने आस-पास नज़र घुमाने के पश्चात् शायद
आपको इस बात का अहसास हुआ कि यह सिर्फ आपका ही नहीं वरन यह तो प्रत्येक माँ का
अनुभव है । दुनिया की हरेक माँ इससे प्रभावित है, कोई कम तो कोई ज्यादा ।
‘जिनमें तुम्हारी जान बसती थी.... / जिनके
आने वाले बसंत के एक-एक दिन की गिनती करती तुम्हारी अंगुलियाँ / ख़ुशी से लरजती थीं’
– बच्चों में तो सदा माँ की जान ही बसती है, यह पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गई । नारी
का सार तत्व माँ है, इससे ज्यादा सुख का अनुभव किसी भी नारी को कोई भी अवस्था में प्राप्त
नहीं हो सकता ।
‘तुम्हारे अकेलेपन का संदेश लाये हैं’/ तुम्हें एकदम फ़िज़ूल –बेकार की चीज़.....
– माँ को इस बात का अंदेशा हो चुका है कि जो कुछ भी हो रहा अब उसे अकेले ही गुज़र-बसर
करना है । शायद वह यह बात पहले से ही जानती है । माँ को फ़िज़ूल – बेकार की चीज़ कहकर
बच्चे यह साबित करना चाहते हैं कि अब उन्हें किसी भी कार्य में माँ की आवश्यकता
नहीं है । वे याद नहीं करना चाहते कि उनके लालन-पालन में, उनके सभी कार्य करने में
माँ की कितनी भाग-दौड़ रहती थी । माँ तो फ़्लैश बैक में अपने बच्चे के जन्म से लेकर अभी
तक का सफ़र देखते हुए सोच रही कि उसने बच्चे के जीवन में बहुत ही अहम भूमिका निभाई
है । लेकिन अब ये किशोर / किशोरी माँ को
धकियाते हुए स्कूल की दीवार फाँदकर कॉलेज में गुम हो गए । दरअसल यह स्कूल की नहीं, माँ के आँचल और उसके
प्यार की दीवार फाँदकर; उसके सुरक्षा कवच से दूर हो जाना चाहते हैं । अब उन्हें तुम्हारे
साथ नहीं बल्कि अपने हम उम्र वालों के साथ ही समय व्यतीत करना पसंद है ।
अब माँ को अपने दुलारे का बचपन याद आ रहा है कि वह किस तरह एक पल भी उसे नहीं
छोड़ता था, बस चिपका रहता था । पर यह बात तो अब पुरानी, बहुत पुरानी-सी लगती है । उस
समय लगता था कि वह तुम्हें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दे तो तुम कुछ देर चैन की
साँस ले सको, किसी से बात कर सको । तो ये लो अब उसने तुम्हें अकेला.... बिल्कुल
अकेला छोड़ दिया । तुम ही तो चाहती थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए और तुम्हारे
पल्लू को छोड़ दें, तो उसने वही किया ।
अब तुम्हें टाइम-पास के लिए पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों को जबरदस्ती पढ़ना होगा ।
उसका इंतज़ार व्यर्थ है, अब उसे तुम्हारी बात या तकलीफ़ सुनने में कोई रुचि नहीं ।
तुम उसकी आँखों में यह बात पढ़कर चुप रह जाती हो और अपने आँसूओं को भी उससे छिपा
लेती हो । तुम्हारा बुदबुदाना इस बात का संकेत हैं कि तुम्हें अब भी वही मौसम पसंद
है जो बीत चुका है । लेकिन तुम यह बात अच्छे से जानती हो कि जो मौसम एक बार बीत
जाए फिर लौटकर नहीं आता (क्या तुम्हें पछतावा है कि अब तुम्हारा नन्हा बड़ा हो गया
?) । तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा कि अब उसे तुम्हारी जरूरत नहीं ।
पूरी कविता पढ़ने के पश्चात् एक बात और मन में आई कि जिन माँओं ने अपना कैरियर,
अपने सपने आदि, सब कुछ किनारे रख कर जी जान लगाकर इन नन्हें बिरवों को ऊँचा वृक्ष
बनाने में अपना जीवन लुटा दिया जब उन्हें अकेलेपन का उपहार मिला तो उनके लिए वह
घड़ी कितनी कष्टदायक रही होगी । उम्र के उस पड़ाव पर नितांत अकेली ठगी-सी खड़ी रह गई
होगी । क्योंकि सब कुछ तो छोड़ दिया था इनकी देखभाल में, अब कुछ और आता भी नहीं कि
कोई दूजा काम कर सके । कभी ईश्वर के भजन या इधर-उधर ज़माने की बातें करके अपना मन
बहलाने का प्रयास करती रही होंगी । कुछ को तो डिप्रेशन का शिकार होते भी देखा गया ।
लेकिन हाँ, जिन्होंने आपकी तरह सृजन या किसी नौकरी अथवा अन्य कार्य में अपने आप को
जुटा रखा हो, उनके लिए यह अपने आप को व्यस्त रखने का अच्छा तरीका है । यह तो नहीं
कह सकते कि व्यस्त हो जाने से पीड़ा खत्म हो जाएगी पर इससे थोड़ी राहत अवश्य मिली
होगी । कितनी अजीब बात है ना, हम चाहते हैं कि बच्चा बड़ा हो जाए और आत्मनिर्भर हो
जाए लेकिन आज जब वह इस अवस्था में पहुँच गया तो हमें कितनी तकलीफ़ हो रही है, शायद
उसके प्रति अथाह प्रेम इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर रहा । हमें लगता है कि माँ
को अपने आप को इस बात के लिए थोड़ा तैयार कर लेना चाहिए कि जब बच्चा इस उम्र में आए
तो वह उसे और खुद को एक स्पेस दे सकें । इस नये परिवर्तन, इस नये सफ़र के लिए स्वयं
को तैयार कर सके और बच्चे को भी । आख़िरकार कब तक आपकी पसंद के मौसम ही जीवन में बने
रहेंगे, यही कहना मुनासिब होगा कि - ‘गुज़र जाते हैं
मन पसंद मौसम’ ।
(‘गुज़र जाते हैं मन पसंद मौसम’ कविता डॉ. सुधा गुप्ता के काव्य संग्रह – बूढ़ी सदी और डैने टूटा आदमी से साभार)
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
माँ की व्यथा एक माँ ही व्यक्त कर सकती है । बहुत अच्छी रचना और उसकी व्याख्या पूर्वा ने करके इन रचनाओं को और ऊँचाई तक पहुंचा दिया । मन आनंदमय हो गया । साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंपढ़कर मन में जैसी टीस उठी. आज का सत्य यही है. किसी माँ का काम तो किसी का ज़्यादा। क्या कहूँ, निःशब्द हूँ. सुधा जी की लेखनी सीधे मन में उतरती है. आपने बहुत अच्छी व्याख्या की है. शुभकामनाएँ।
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