शुक्रवार, 4 मार्च 2022

किताब

 केसर (क्षणिका संग्रह – कंचन अपराजिता)



मन की खूबसूरती से रंगी- केसर

सत्या शर्मा कीर्ति

मेरे लेखन के कैनवास पर बिखरे चुटकी भर केसर आपके मन को भी रंग दे, बस यही कामना है।  कंचन अपराजिता

हम यहाँ बात कर रहे हैं कंचन जी के सद्य प्रकाशित संग्रह ‘केसर’  के बारे में।

जब आप ‘केसर’ पढ़ते हैं तब  वो न सिर्फ आपके मन को रंगती है बल्कि अपनी सुगन्ध से आपको सुगंधित भी करती है ।

यूँ तो कंचन जी एक पत्रकार रही हैं, किन्तु उनके मन में छुपा साहित्य का बीज वक्त के साथ धीर-धीरे पल्लवित एवं पुष्पित होता रहा । जिसका सुखद परिणाम है कि आज वो सभी विधाओं में न सिर्फ लिख रही हैं बल्कि अपने सृजन के साथ-साथ  दो ई-पत्रिकाएँ ‘शब्द चितेरे’ एवं ‘कचनार’ का संपादन भी कर रही हैं ।

उन्होंने आज सभी विधाओं में अपनी एक अलग पहचान बनाई हैं। चाहे वो लघुकथा हो या कविता, कहानी हो या हाइकु ।

क्षणिकाओं में तो उनकी विशेष पकड़ है । जब कोई इतने शिद्दत से साहित्य से जुड़ा हो तो निःसन्देह ही उसकी कृति केसर-सी महकती रहेगी ।

केसर की भूमिका आदरणीय शैलेश गुप्त वीरजी ने लिखी है ।उन्होंने क्षणिका को परिभाषित करते हुए लिखा है – “मेरी दृष्टि में ‘केंद्रित विषय वस्तु के साथ व्यापक अर्थ-भाव- बोध की कविता क्षणिका है , जो अपने विशेष शिल्प में न्यूनतम शब्दों में अधिकतम बात कहने का सामर्थ्य रखती है ।’ यह एक ऐसी विधा है, जिसकी अनुगूँज पाठक या श्रोता के मस्तिष्क में बहुत लंबे समय तक बनी रहती है ।”

इस विधा में लिखना निःसन्देह सरल नहीं है । लम्बी कविताओं में आपके पास पूरी आजादी होती है अपनी भावनाओं को विस्तार देने की । किन्तु चंद शब्दों में अपनी पूरी बात को कह देना तो भावों की गहनता और समझ की परिपक्वता से ही संभव है ।

छोटी-छोटी क्षणिकाओं से सजे इस संग्रह में कंचन जी के विचारों की विविधता दिखती है।

संग्रह की पहली क्षणिका कंचन जी ईश्वर को समर्पित करती हैं –

जो रुह के तारों को

झंकृत कर दे

हे ईश!

तू मुझे ऐसे भाव भरे

अक्षर दे ...

चंद शब्दों में सिमटा हो जैसे सम्पूर्ण बह्मांड । एक साहित्यकार के लिए इससे अच्छी प्रार्थना भला क्या हो सकती है ?

जैसे गागर में सागर ।

यूँ तो संग्रह में पार्यप्त विषय वैविध्य मिलता है, किंतु प्रस्तुत संग्रह में प्रेम विषयक रचनाओं की संख्या अधिक है । सच में, प्रेम ही तो जीवन की सबसे सुखद अनुभूतियों में सर्वोपरि है । कंचन जी की कविताओं में हम प्रेम को जीते हैं, महसूस करते हैं और उसकी सुखद अनुभूति से भर जाते हैं।

तुमने मेरे लिए,

जो अनगिनत

दुआयें माँगी है

उसका असर ये हुआ,

मेरे राह के काँटे भी

फूल बन गए।

कितनी सुंदर अभिव्यक्ति ! कितना विश्वास !

सच ही तो है सच्चे मन से की गई दुआएँ  ,जीवन की राहों के काँटों को भी फूल में बदल देती हैं।

जब हमारा प्रेम हमारे साथ हो तो कठिन से कठिन कार्य भी सहज और सरल हो जाते हैं। उसकी शुभेच्छा हमारी परेशानियों को भी खुशियों में बदल देती है।

कंचन जी आगे लिखती हैं-

प्रेम में मिलन

ओस सदृश्य

होता है

जिससे प्यास नहीं बुझती।।

प्रेम तो वो प्यास है जो जन्म-जन्मांतर बनी रहती है । प्रेम में भीग कर भी मन अतृप्त ही रह जाता है ।

इसलिए क्षण भर के साथ को वो नकारती हैं । उनके लिए तो हर क्षण ही प्रेम में डूबा हुआ है। उनके लिए प्रेम में मीरा-सी हो जाना ही सम्पूर्णता है । तभी तो वो आगे लिखती हैं--

मैं जिह्वा पर

क्यों तेरा नाम लूँ?

जब मेरी धड़कन,

हर स्पंदन में

तेरे नाम के

मनके जपती है।

कभी-कभी कोई इंतजार ताउम्र बना रह जाती है । हम उसके लिए वहीं रुके रह जाते हैं जहाँ पुनः आने को कहकर वह गया था।

उम्र अपनी सारी

मैंने खैरात में बाँट दी

तेरे प्यार का

एक क्षण मिले

इस दुआ के कबूल होने के लिए....

प्रेम की पराकाष्ठा ही तो है जब प्रेमी खुद को शून्य मान  लेता है। उसके लिए उसका प्रिय ही सब कुछ होता है । वह स्वयं को प्रिय का एक अंश मात्र ही समझता  है। इसे कंचन जी ने बखूबी उकेरा है

तुम आकाश कुसुम हो

**

मैं स्वयं को उसका

एक अंश मान लेती हूँ ।

प्रेम पर होने वाले समाजिक कटाक्षों को वो एक सिरे से नकारती हुई लिखती है--

मैं प्रेम में

नाचती हुई

नायिका की तरह

बस मदहोश हूँ

व्यर्थ है समाजिक जिरह।

वो मानती है कि प्रेम को समेटने के यही एक पल ही नहीं है, पूरी उम्र है, जब प्रेम के नए अनुभवों को वो तहे लगा अपने मन के आलमारी में संजोती रहेंगी

क्षण भर नहीं जा जीवन

**

अभी संजोना नवीन विशेष है।

एक जगह उनके मन में मासूम सा ख्याल आया  है-

धरा ने गहरी धुंध की

चादर फैला दी है

सोचती हूँ

उसे लपेट

तुमसे मिलने आ जाऊँ।

प्रेम में डूबकर वो लिखती हैं

मैं इस संपूर्ण

ब्रह्मांड का एक कण मात्र हूँ

तुम इस कण में

अपना पूरा ब्रह्मांड तलाश लिए

शायद यही प्यार है।।

ऐसा नहीं है कि कंचन जी ने सिर्फ प्रेम पर ही लिखा है । इस संग्रह में आध्यात्म, समाजिक परिवेश औऱ मन की कुछ बातें भी हैं जैसे –

कोई वाक्य

पूर्णतः सत्य

व पूर्णतः असत्य नहीं होता

वक्त और परिस्थितियाँ

तय करती हैं

उसकी सत्यता की परख।

इस क्षणिका के माध्यम से उन्होंने जीवन दर्शन को प्रस्तुत है । सच में एक ही बात समय और परिस्थिति के अनुसार बदल जाती है, उसके अर्थ बदल हैं। जीवन को देखने का उनका नजरिया उनकी क्षणिकाओं में स्पष्ट दिखाई देता है –

रिश्तों में कभी

शक की धुंध

मत रखना

अपना हाथ भी

गैर का दिख जाता है।

**

किसी की भी बद्दुआ

बन जाएगी दुआ

एक माँ की दुआओं

के कवच

का वो असर है..

माँ के आशीष के सामने तो स्वयं ईश्वर भी सर झुकाते हैं। बच्चों को माँ के प्रेम के साथ माँ के विश्वास की भी बहुत जरूरत होती है । माता-पिता का विश्वास ही बच्चों को आसमान में पहुँचता है।

तेज बहती हवा में

जब उसे हथेली को

**

मुझे यकीन है

वो आसमान को

मुठ्ठी में जरूर भर लेगी।

स्वभाव से मस्त कंचन जी का जिंदगी के प्रति नजरिया भी मस्त ही है । वो जीवन को एक नदी-सा मानती है जिसमें बहते जाना ही जीवन की सार्थकता है।

कुछ आवारगी

जरूरी है जिंदगी के लिए

**

एक नदी ही तो है

ये जिंदगी।।

कुछ क्षणिकाएँ

आज मन

खामोश है

लगता है आज

तेज बारिश आएगी ।।

**

गजब करते हो

तेज आँधियों में

पक्षियों से पूछते हो

क्या होती है

नीड़ की कीमत।

**

सुख के चादर पर

दुख के पैबंद है

जिंदगानी किसी की भी

मखमली नहीं है।।

**

बावरा मन

अमावस में

ढूँढ रहा है

चाँद को..।

**

जुलाहे ने

टूटे धागे से

बना दिये वस्त्र

बस

न बना पाई चिड़ियाँ

एक बार बनकर

बिखरे तिनकों से

फिर घर।।

चंद शब्दों में पूरे भाव को व्यक्त कर देना कंचन जी की ख़ासियत है, कला है। इन्होंने क्षणिकाओं में सुंदर बिम्ब और प्रतीकों का खूबसूरती से प्रयोग किया है और यही इनकी रचनाशीलता को एक नया मुकाम देता है।

आपकी लेखनी यूँ ही चलती रहे, आप सतत रचनाशील बनी रहें यही माँ सरस्वती से प्रार्थना है।

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कृति : केसर (क्षणिका संग्रह), कवयित्री : कंचन अपराजिता, समीक्षक - सत्या शर्मा कीर्ति, मूल्य : 150 /-, पृष्ठ : 132, संस्करण : 2021, प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर   

 


सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

राँची


1 टिप्पणी:

  1. संतुलित समीक्षा।केसर पढ़ने की उत्सुकता जाग्रत करती समीक्षा।बधाई सत्या शर्मा'कीर्ति'जी।

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