९१ वर्षों का
हिन्दी फिल्म संगीत का सफ़र
रवि शर्मा
आज इस लेख में हम ९१ वर्षों के हिन्दी फ़िल्म संगीत के कुछ प्रमुख
प्रसिद्ध संगीतकारों के बारे में बातें करेंगे, जिन्होंने एक से बढ़कर एक नायाब गीत
दिये है । इन ९१ वर्षों में लगभग २०० से अधिक संगीतकारों ने भारत की और विश्व की
जनता के समक्ष अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है।भारतीय हिन्दी फिल्मी गीत और संगीत
का सफर सही मायने में १९३१ से शुरू होता है क्योंकि पहली बोलती फिल्म “आलम आरा” १४
मार्च १९३१ को मुंबई के मेजेस्टिक सिनेमा में प्रसारित हुई थी। मूक फिल्मों के दौर
में बड़े शहरों में स्क्रीन के पास ऑर्केस्ट्रा रहा करता था, जो पर्दे पर चल रही
कहानी के बदलते भावों के अनुकूल संगीत बजाया करता था । बोलती फिल्मों का दौर शुरू
होने पर प्रारम्भ के कई वर्षों तक फिल्माए जाने वाले गीत नायक और नायिका स्वयं
गाते थे । चूँकि नायक–नायिका कुशल गाने वाले नहीं होते थे । इसलिए स्वर-रचना
साधारण रहती थी और धीमी लय के गीत ही रचे जाते थे। १९३४ में अभिनेत्री के तौर पर “राजकुमारी”
की प्रथम फिल्म प्रदर्शित हुई थी, जिसमें राजकुमारी
ने अपने ऊपर फिल्माए गीत स्वयं गा कर धूम मचा दी थी, क्योंकि राजकुमारी अभिनेत्री
के साथ-साथ गायिका भी थीं । प्रसिद्ध अभिनेत्री नर्गिस की माँ जद्दन बाई न सिर्फ
कुशल गायिका थीं, बल्कि उन्होंने अपनी बनाई फिल्म “तलाश-ए-हक़” में संगीत देकर
फिल्म जगत की पहली महिला संगीतकार होने का गौरव भी प्राप्त किया था ।
लेकिन
हिन्दी फिल्मों में पार्श्व गायन को लाने का श्रेय श्री आर सी बोराल को जाता है ।
श्री बोराल जी ने ही कुन्दन लाल सहगल की प्रतिभा को पहचाना और निखारा था । १९३९
में प्रदर्शित फिल्म “कपाल कुंडला” के गीत “पिया मिलन को जाना” को श्री पंकज मलिक
की धुन पर सहगल जी ने गाया था । वह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि ८३ वर्षों के बाद आज
भी इस गीत को ख़ूब सुना जाता है । १९३९ से ही श्री
एस एन त्रिपाठी का भी संगीत सफ़र शुरू हुआ । पौराणिक फिल्मों में गीत-संगीत के
लिए निर्माताओं की पहली पसंद त्रिपाठी जी ही रहते थे। फ़िल्म “रानी रूपमति” और
“संगीत सम्राट तानसेन” के गीतों ने उन्हें नई ऊँचाइयाँ दिलाई । मुकेश जी के गाये अमर गीत “आ लौट के आजा
मेरे मीत” और “झूमती चली हवा” को आज भी ख़ूब पसंद किया जाता है । १९६० की फ़िल्म “लालकिला” में रफी साहब की गाई
बहादुर शाह जफर की लिखी गजल “न किसी की आँख का नूर हूँ ” को कौन नहीं जानता ?
१९३९ से
संगीतकार के रूप में श्री गुलाम हैदर
भी सफल माने गए । उन्होंने ही शमशाद बेगम, नूरजहाँ और लता की प्रतिभा को हम सबके सामने प्रस्तुत किया
। १९४४ में प्रदर्शित फ़िल्म “चल चल रे नौजवान” के गीतों ने भी ख़ूब धूम मचाई थी, नसीम और अशोक
कुमार के स्वरों में सुंदर बीट्स के साथ गीत “सुनो सजनिया” ख़ूब मशहूर रहा । इसके
बाद १९४९ में श्री खेमचंद प्रकाश ने “महल” फिल्म में लता दीदी से – “आएगा
आएगा,आएगा आनेवाला आएगा” गवा कर
लता दीदी को पार्श्व गायन का “स्टार स्टेटस’ दिलाकर रातों रात अन्य गायिकाओं की
तुलना में एक नंबर पर कर दिया था । यह गाना अमर होकर आज भी बहुत लोकप्रिय है ।
सुप्रसिद्ध बाँसुरी वादक श्री पन्नालाल घोष भी एक जमाने में संगीतकार थे । बाँसुरी
को लेकर कई प्रयोग भी उन्होंने किए । “बसंत-बहार” फ़िल्म के गीत – मैं पिया तेरी तू
माने या न माने” में घोष जी कि बाँसुरी लता जी से कम सुरीली नहीं लगती । इसके बाद
आए एक और संगीतकार “बुलो सी रानी” को १९५० में आई फ़िल्म – “जोगन” के गीत “घूँघट के
पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे” ने शीर्ष स्थान और प्रतिष्ठा दिलाई थी । १९४० से शुरू होकर २००५ तक लगभग ६५
वर्षों तक लम्बी पारी खेलते हुए अमर गीत और संगीत देने का श्रेय श्री नौशाद को
जाता है । उनके गीत - चाहे वे बैजू बावरा के हों, कोहिनूर के हों या मुगले आजम के हों - आज भी लाजवाब हैं ।
१९४१ से श्री रामचंद्र चितलकर यानी सी रामचन्द्र जी ने भी अपनी गायकी और
संगीत से ख़ूब ख्याति प्राप्त की । कवि
प्रदीप जी के लिखे अमर गीत – “ ऐ मेरे वतन के लोगों” की धुन सी रामचन्द्र जी ने ही
बनाई थी । सबसे पहले यह गीत २७ जनवरी १९६३ को नई दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में लता
जी ने लाईव गाया था । “अनारकली” (१९५३) फिल्म सी रामचन्द्र जी और लता जी के सुनहरे
सफर का मील का पत्थर साबित हुई थी । लता जी का गया हुआ गीत – “ये ज़िंदगी उसी की है, जो किसी का हो
गया” का जादू तो आज भी सिर चढ़ कर बोलता है । १९६२ की फ़िल्म “आज़ाद” में लता जी के
साथ –“कितना हसीं है मौसम” गाकर चितलकर जी के नाम से गायक भी बन गए । नवरंग (१९५८)
फ़िल्म के लिए इनके द्वारा रचे गए सभी गीत सुपर हिट रहे और आज भी सुपर हिट हैं – ‘अरे जा रे हट नटखट न छू
रे मेरा घूँघट’ गीत हो या ‘तू छुपी हैं कहाँ’ गीत हो, इन गीतों ने ही नवरंग फिल्म को कालजयी बनाया । सत्तर
के दशक में जब यह फिल्म दुबारा प्रदर्शित हुई थी, तब भी कई शहरों में इस फ़िल्म ने
सिल्वर जुबली मनाई था । १९४६ में “लेडी रॉबिनहुड” फ़िल्म से संगीत का सफर शुरू करने
वाले श्री चित्रगुप्त (श्रीवास्तव) को प्रारम्भ के वर्षों में मुख्यतः
स्टंट, काल्पनिक और
भक्ति वाली फिल्में ही मिलीं । उस समय सामाजिक और धार्मिक फिल्मों के लिए मशहूर
बैनर “एवीएम’ को इनका संगीत इतना पसंद
आया कि एवीएम बेनर की सभी फिल्मों के लिए चित्रगुप्त ही अनुबंधित रहते थे । सन्
१९५७ में आई फ़िल्म “भाभी” के साथ चित्रगुप्त ने लोकप्रियता और गुणवत्ता दोनों ही
दृष्टि से एक विराट आयाम प्राप्त कर लिया था । ‘चल उड़ जा रे पंछी’ गीत हो या ‘चली चली रे पतंग मेरी चली रे’ हो आज भी खूब बजते हैं और मकर संक्रांति पर्व पर तो प्रति
वर्ष पतंग वाला गीत तो खूब बजता है । १९६५ में आई “आकाशदीप” फ़िल्म का गीत “दिल का दिया
जला के गया” मखमली धागों से बुनी यह धुन लता जी कि बेमिसाल कोमल गायकी कइयों की
नज़र में इसे लता के सर्वश्रेष्ठ गीतों में एक बनाती है । उनके पुत्रों – आनंद
और मिलिंद ने वर्ष १९८८ में “कयामत से
कयामत तक” फ़िल्म में – “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा” गीत रच कर चित्रगुप्त जी का
नाम और ऊँचा कर दिया।
१९४२ में
एक और संगीतकार बसंत देसाई का नाम उभर कर भारतीय जनता के समक्ष आया । उनकी
प्रतिभा को वी. शांताराम ने परखा और राजकमल कला मंदिर के बैनर तले कई फिल्मों का
उन्होंने संगीत रचकर एक से बढ़कर एक नायाब गीत दिये । उनकी हिट फिल्मों में प्रमुख
हैं - झनक झनक पायल बाजे, तूफान और दीया, दो आँखें बारह हाथ, गूंज उठी शहनाई, रामराज्य, आशीर्वाद और गुड्डी । इन फिल्मों के सदाबहार गीतों में
प्रमुख हैं - ऐ मालिक तेरे बंदे हम, नैन सो नैन नाहीं मिलाओ, जो तुम तोड़ो पिया, गिरधारी म्हाणे चाकर राखो जी, दिल का खिलौना हाय टूट गया, तेरे सुर और मेरे गीत, निर्बल से लड़ाई बलवान की ये कहानी है दीये की और तूफान की, बोल रे पपीहरा ।
१९४६ में
संगीतकार बनने मुंबई आए ख़ैयाम को स्वतंत्र रूप से फिल्मों में संगीत देने
का अवसर १९५३ में फ़िल्म “फुटपाथ” में मिला । इस फ़िल्म के लिए रचे गए गीतों में तलत
महमूद का गाया गीत “शामे ग़म की कसम” इतना हिट हुआ कि ख़ैयाम की गाड़ी दौड़ पड़ी ।
फुटपाथ से शुरू हुआ सफर १९८३ की फ़िल्म “रज़िया सुल्तान” तक जारी रहा । १९७६ में आई
फ़िल्म “कभी-कभी’ के गीत “कभी कभी मेरे दिल
में ख़याल आता है” और बाकी सब बेहतरीन गीतों ने इस फ़िल्म को बेमिसाल बना दिया । १९८१
में आई फ़िल्म “उमराव जान” के गीतों ने प्रसिद्धि में एक नया इतिहास रच दिया था, जिसके लिए इन्हें राष्ट्रीय
पुरस्कार भी मिला था । इस फ़िल्म के सभी गीत सुपर हिट रहे और आशा भोसले को भी इसी
फ़िल्म के गीतों ने सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाया - दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान
लीजिये, ये क्या जगह है दोस्तो, इस फ़िल्म के गीत
– “ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें” ने गजल गायक-तलत अज़ीज़ को भी एक नया
मुकाम दिया । रज़िया सुल्तान के गीत – ऐ दिल ए नादाँ (लता), ख़ुदा खैर करे, तेरा हिज्र मेरा नसीब है (कब्बन मिर्ज़ा) के तो क्या कहने! १९८२ में आई “बाज़ार” फ़िल्म
के गीत (देख लो आज हमको जी भर के, दिखाई दिये यूँ, करोगे बात तो हर बात याद आएगी) इस बात के प्रमाण है कि ख़ैयाम
जी गीत-संगीत की नायाब शैली रचने में माहिर थे । उनके कुछ अन्य कालजयी गीत हैं –
वो सुबहा कभी तो आएगी, आसमाँ पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम, परबतों के डेरों पर शाम का बसेरा है, ठहरिए होश में आ
लूँ तो चले जाइएगा, जीत ही लेंगे बाज़ी हम तुम, बहारों मेरा जीवन भी संवारों,आ जा रे नूरी ।
त्रिपुरा
के राज परिवार में जन्में सचिन देव बर्मन भी रजत पट पर अपनी किस्मत आजमाने
कलकत्ता होते हुये १९३३ में मुंबई आ गए । १४ वर्षों के संघर्ष के बाद १९४७ में आई
फिल्म “दो भाई” से उन्होंने सफलता का स्वाद चखा । इस फिल्म के गीत – “मेरा सुंदर
सपना बीत गया” से गीता दत्त और बर्मन दा दोनों चल निकले । देव आनंद और उनकी संस्था
“नवकेतन” से जुड़ने के बाद बर्मन दा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा । १९५० की फिल्म
“अफसर” और १९५१ की फिल्म “बाज़ी” ने दादा को संगीतकारों की अग्रिम पंक्ति में ला
दिया । सचिन दा बर्मन अच्छे गायक भी थे । उनकी अपनी फिल्मों में सामान्यतः उनका एक
गीत तो रहता ही था। सचिन दा के प्रसिद्ध गीतों की फेहरिस्त भी लंबी है । चुनिन्दा
लोकप्रिय गीतों में – तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले, सुनो गजर क्या गाये, ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ, तुम न जाने किस जहाँ में खो गए, माना जनाब ने पुकारा नहीं, छोड़ दो आँचल ज़माना क्या कहेगा, जीवन के सफ़र में राही, पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, पिया तोसे नैना लागे रे,आज फिर जीने की तमन्ना है, रात का समा झूमे चंद्रमा, हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए, जाने क्या तूने कही, अरे यार मेरी तुम भी हो गजब, मोरा गौरा रंग लई ले, ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या है, होंठों में ऐसी बात मैं दबा
के चली आई, रंगीला रे, दिल
आज शायर है, मीत न मिला रे
मन का, तेरी बिंदियाँ
रे, तेरे मेरे मिलन
की ये रैना, तेरे नैना तलाश
करे, पलकों के पीछे
से क्या तूने कह डाला, मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू, चिंगारी कोई भड़के, बड़ा नटखट है रे किशन कन्हैया, ओ मेरी शर्मीली और बड़ी सूनी सूनी है । १९७५ में दादा हम
सबको छोड़ कर चले गए। लेकिन उनके स्वर्गवास के बाद भी १९७६ में भी उनकी ३-४ फिल्में
आई थीं । यानी १९३३ से १९७५ तक बर्मन दादा ने संगीत का लंबा सफर तय किया था । दादा
के समान ही उनके पुत्र पंचम यानी राहुल देव बर्मन भी १९६१ में ही अपनी प्रतिभा से
अपनी प्रतिभा से संगीत जगत में को परिचित करा चुके थे। प्रारम्भिक वर्षों में सचिन
दा के सहायक भी रहे पंचम और नायाब धुन देते रहे । सचिन दा की पत्नी मीरा बर्मन एक
जानी मानी गायिका और नृत्यांगना थीं । दादा की अनेक फिल्मों में उन्होंने सक्रिय
रूप से सहायक की भूमिका निभाई ।
१९४९ में
फिल्म “नेकी और बदी” से अपना कैरियर प्रारम्भ करने वाले रोशन मेलोडी युक्त
गीत बना कर बेहद रचनात्मक रूप और लोकप्रिय रूप से प्रस्तुत करते थे । मात्र ५०
वर्ष की आयु में ही वे हम सबको छोड़कर स्वर्ग चले गए । लेकिन अंतिम समय तक सुमधुर
मेलोडी युक्त गीत हम सबको देते रहे । उनके बाद उनके पुत्रों – राकेश ने अभिनय और
निर्देशन में अपना सिक्का जमाया, तो राजेश रोशन ने पिता की ही विधा को आगे बढ़ाते
हुये हमें एक से बढ़कर एक गीत दिये और अभी भी दे रहे हैं । उनके लोकप्रिय गीतों में
– सबसे पहले आता है १९५० में आई “बावरे नैन” फिल्म का गीत “तेरी दुनियाँ में दिल
लगता नहीं” आता है । १९६३ में आई फिल्म
“दिल ही तो है’ के गीत “लागा चुनरी में
दाग” रोशन-साहिर-मन्नाडे की तिकड़ी ने ऐसा रचा कि शास्त्रीय संगीत के मधुर मिश्रण
का ऐसा दूसरा गीत सुनने को शायद ही मिले । इसके बाद के गीतों की भी फेहरिस्त लंबी है, जिनमें प्रमुख है - ख़यालों
में किसी के इस तरह आया नहीं करते, बड़े अरमान से रक्खा है बलम, ए री मैं तो प्रेम दीवानी (१९६७ में लता दी ने इसे अपने दस
सर्वश्रेष्ठ गीतों में चुना था), जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, दिल जो न कह सका, बहारों ने मेरा चमन लूट कर, दुनियाँ में ऐसा कहाँ सबका नसीब है, हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक, ए सनम आज ये कसम खायें, ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, बहुत दिया देने
वाले ने तुझको, गरजत बरसत सावन
आयो रे, अब क्या मिसाल
दूँ, कभी तो मिलेगी
बहारों की मंज़िल राही, दुनियाँ करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, संसार से भागे फिरते हो, मन रे तू काहे न धीर धरे, उसको नहीं देखा हमने कभी, रहे न रहे हम, छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा, शराबी शराबी ये सावन का मौसम, महलों का राजा मिला, ओह रे ताल मिले नदी के जल में।
शंकर जयकिशन – ईश्वर
को जब कुछ नायाब तोहफ़े दुनियाँ को देने होते है, तो वह नदी के दो किनारों और
पूर्व-पश्चिम को भी मिला देता है । संगीत के दो पुजारी हैदराबाद के शंकर रघुवंशी
और बलसाड़ (गुजरात) के जयकिशन पंचोली संगीत के क्षेत्र में कुछ अनूठा करने को मुंबई
पहुँच गए । शंकर से जयकिशन उम्र में १० वर्ष छोटे थे । लेकिन दोनों की दोस्ती ने
हम सबको एक से बढ़कर एक मधुर गीत दिये और सुपर स्टारडम की मंज़िल पर पहुँच कर बरसों
तक छाए रहे । राजकपूर ने इनकी प्रतिभा को परखा और “बरसात” (१९४९) फ़िल्म के लिए
अनुबंधित कर लिया । इस शुरुआती फ़िल्म के गीतों ने इतनी धूम मचाई कि एस जे (शंकर
जयकिशन) आर के बैनर के स्थायी संगीतकार बन गये । इनकी संगीत टीम में ५० से १५० तक
वायलिन और विभिन्न वाद्य यंत्र बजाने वाले “ऑर्केस्ट्रा” के रूप में रहते थे ।
गीतकार जोड़ी के रूप में इन्हें शैलेंद्र और हसरत जयपुरी जैसे महान गीतकार भी मिल
गये । सही मायने में मेलोडी गीतों की शुरुआत एस जे ने ही प्रारम्भ की । राज कपूर
की फिल्मों को सुपर हिट बनाने में एस जे का महत्वपूर्ण योगदान रहा । राजकपूर की
फिल्में - आवारा, आह, चोरी चोरी, श्री ४२०, बूट पॉलिश, जिस देश में गंगा बहती है, अनाड़ी, कन्हैया, संगम, तीसरी कसम, दीवाना, दुनिया की सैर, कल आज और कल और मेरा नाम
जोकर सब एस जे के संगीत से सजी थीं। १९७१ में जयकिशन अल्पायु में ही इस जगत को छोड़
गये,
उनके जाने के बाद भी शंकर जी ने एस जे के नाम से १९८६ तक
फिल्मों में संगीत देते रहे । उनके कुछ लोकप्रिय गीत है – जिया बेकरार है छाई बहार
है, बरसात में हमसे मिले तुम सनम, मुझे किसी से प्यार हो गया, प्यार हुआ इकरार हुआ, ये रात भीगी भीगी, आवारा हूँ, मेरा जूता है जापानी, घर आया मेरा परदेसी,
रमइया वस्ता वैया, सजन रे झूठ मत बोलो, ओ मेरे सनम, बोल राधा बोल संगम होगा कि
नहीं, दीवाना मुझको लोग कहें, जाने कहाँ गये वो दिन, आ अब लौट चलें, तुम्हें याद करते करते,
तड़प ये दिन रात की, ये शाम की तन्हाइयाँ, राजा की आएगी बरात, तू प्यार का सागर है, ये वादा करो चाँद के सामने,
अजीब दास्ताँ है ये, दिल एक मंदिर है, तुमने पुकारा और हम चले आए, आसमान से आया फरिश्ता, दोस्त दोस्त ना रहा, लिखे जो ख़त तुझे।
मदन मोहन – १९२४ में
बगदाद में जन्में मदन मोहन की शिक्षा मुंबई में ही हुई थी । फिल्मों में १९५० से
१९७५ तक (अपनी असामयिक मृत्यु तक) वे फिल्मों में संगीत देते रहे । उनके साथ गीतकार
के रूप में लंबे समय तक काम करने वाले राजा मेहँदी अली खाँ, राजेंद्र कृष्ण, साहिर, कैफी आज़मी थे, जिंहोने गजल-गीतों को
मकबूलियत दी और मदन मोहन जी को गज़ल सम्राट के नाम से नवाजा । मदन मोहन जी के पास
हजारों धुनों का संग्रह था, जिनका इस्तेमाल होना था । लेकिन वे संसार बहुत जल्दी छोड़
गये थे । यश चोपड़ा ने उनके पुत्र नरेंद्र कोहली से पिता की संग्रहीत धुनों में से
कुछ धुनें चुन कर वीर जारा (२००४) फ़िल्म के लिए संगीत देने का अनुरोध किया, तो
उनके पुत्र सहर्ष तैयार हो गये । उनके अमर गीत में से कुछ गीत ये है – वो चुप रहें
तो मेरे दिल के दाग जलते हैं, आपकी नज़रों ने समझा, ज़रा-सी आहट होती है, कर चले हम फ़िदा, बेताब दिल की तमन्ना यही है,
तुम जो मिल गये हो, आज सोचा तो आँसू भर आए, नैना बरसे रिमझिम, माई री मैं का से कहूँ, हम हैं मता ए कूचा, भूली हुई यादों, तू प्यार करे या ठुकराये, सिमटी-सी शरमाई-सी, हुस्न हाजिर है मोहब्बत की
सजा पाने को, मिलो न तुम तो जी घबराये, हर तरफ अब यही अफसाने हैं, ये दुनियाँ ये महफिल मेरे
काम की नहीं, रस्में उलफत को निभाए तो
निभाए कैसे।
हेमंत कुमार - हेमंत
कुमार बंगाली थे । हालाँकि उनका जन्म बनारस में हुआ था । शुरू में वे पत्रिकाओं के
लिए कहानियाँ लिखते थे । उनकी गायकी को शुरू शुरू में असफल करार दे दिया गया था । उस
समय के संगीतकार कमलदास गुप्ता ने उनकी गायकी प्रतिभा को जाना और “निमाई संन्यास”
(१९४४ ) फ़िल्म में गाने का मौका मिला । १९४५ से उन्हें स्वतंत्र रूप से संगीत देने
का अवसर भी मिला । लेकिन उन्हें पहचान मिली १९५१ में । “आनंद मठ” (१९५२) के गीत –
वंदे मातरम् से उनकी लोकप्रियता में इजाफ़ा हुआ और १९५२ में ही आई (सचिन दा के
संगीत निर्देशन में) जाल फ़िल्म के गीत – “
ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ” ने पार्श्व गायक के रूप में भी स्थापित कर दिया । १९५४
की फ़िल्म “शर्त” के संगीत ने उन्हें प्रतिष्ठा दिलाई तो “नागिन” (१९५४) ने उन्हें
शीर्ष पर पहुँचा दिया । उनके लोकप्रिय गीतों में शामिल हैं – है अपना दिल तो आवारा, आ नीले गगन तले प्यार हम
करें, मन डोले मेरा तन डोले, मेरा दिल ये पुकारे आ जा, जादूगर सैंया छोड़ मोरी बइँया, वृंदावन का किशन कन्हैया, बेकरार करके हमें यूँ न जाइए, कहीं दीप जले कहीं दिल, न जाओ सैंया छुड़ा के बइँया, भँवरा बड़ा नादान, ये नयन डरे डरे, तुम पुकार लो, वो शाम कुछ अजीब थी, धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार
। हेमंत दा १९८८ तक गीत-संगीत देते रहे ।
ओ पी नैयर - ओ पी नैयर
यानी ओंकार प्रसाद नैयर । अपनी शर्तों पर काम करने वाले ऐसे संगीतकार हुए, जिन्होंने
न सिर्फ़ बहुत लंबा समय बिताया, बल्कि एक अलग स्टाइल में घोड़ों की टापों को रचा बसा
कर और पंजाबी लोक शैली की थिरकन का तड़का लगा कर अनेक नायाब गीत दिये । वे भी बगैर
लता जी से एक भी गीत गवाए । आशा भोंसले उनकी पसंदीदा गायिका रहीं । जितने भी मादक
पुट वाले गीत उन्होंने रचे, उन्हें आशा ने ऐसा गाया कि वे और मादक हो गये । नशा
सिर चढ़ कर बोलता था उनके गीतों का । सर्वाधिक गीत रफ़ी–आशा को ही मिले । कुछ गीत
मुकेश, महेंद्र कपूर और किशोर कुमार
को भी मिले। १९५२ से नैयर जी ने संगीत देना शुरू किया था । लेकिन “आर-पार” (१९५४ )
और मिस्टर एंड मिसेस ५५ (१९५५) के गीतों ने जनता को ऐसा नशा पिला कि जनता ओ पी
नैयर के गीतों की दीवानी हो गई । ओ पी मतलब – सुपर हिट गीत । साथ ही वे गुरुदत्त
के भी पसंदीदा संगीतकार हो गये । “कश्मीर की कली” के सभी गीतों ने तो इतिहास बदल
दिया। फ़िल्म भी सुपर हिट और गाने भी सुपर हिट । इनके पसंदीदा गीतकार एस एच बिहारी
थे,
जिनके साथ सर्वाधिक गीत बने। १९७३ की फ़िल्म “प्राण जाये पर वचन
न जाये” के बाद भी १९९३ तक वे संगीत देते रहे ।
लेकिन
१९७३ के बाद की फिल्मों के गीत उनके नाम के अनुरूप चमत्कार नहीं दिखा पाये। इनके
सदाबहार गीतों में शामिल हैं – ले के पहला पहला प्यार, उड़े जब जब ज़ुल्फें तेरी, इशारों इशारों में दिल लेने
वाले, ये चाँद सा रोशन चेहरा, हुजूरे वाला, हमदम मेरे, ये है रेशमी ज़ुल्फों का
अंधेरा, है दुनियाँ उसी की,
वो हसीन दर्द दे दो, यही वो जगह है, आँखों ही आँखों में इशारा, रात भर का है मेहमाँ अंधेरा, आओ हुज़ूर तुमको, कजरा मोहब्बत वाला, आईये महरबा, कभी आर कभी पार, ज़रा हौले हौले चलो मोरे
साजना, पिया पिया मोरा जिया पुकारे, रातों को चोरी चोरी बोले
मोरा कंगना, फिर वही दिल लाया हूँ,
तुम सा नहीं देखा, आप यूँ ही अगर हमसे मिलते रहे, बाबूजी धीरे चलना।
सलिल चौधरी (१९४९-१९९४) - सलिल दा ऐसे बुद्धजीवी संगीतकार रहे, जो न सिर्फ विलक्षण कम्पोजर थे, बल्कि बांग्ला के बहुत अच्छे कवि, गीतकार और समीक्षक भी थे । बांग्ला फ़िल्म ‘परिवर्तन’ से शुरू हुये संगीत के सफर में हिन्दी फ़िल्म “दो बीघा ज़मीन” (१९५३) के गीत – ‘धरती कहे पुकार के’ ने उन्हें स्थापित कर दिया । “मधुमती” (१९५८) के गीत इतने लोकप्रिय हुये कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी मिल गया । ५ सितम्बर, १९९५, को वे हम सब से दूर ईश्वर को संगीत सुनाने चले गए । उनके कुछ प्रसिद्ध गीत हैं – ऐ मेरे प्यारे वतन, टूटे हुये ख्वाबों ने, मैंने तेरे लिए, कहीं दूर जब दिन, आ जा रे परदेसी, घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के, कोई होता जिसको अपना, रजनीगंधा फूल तुम्हारे, कई बार यूँ भी देखा है, ये दिन क्या आए, न जाने क्यूँ होता है ये जिंदगी के साथ, सुहाना सफर और ये मौसम हँसी, साथी रे तुझ बिन जिया उदास, तस्वीर तेरी दिल में’ और टज़िंदगी ख़्वाब है’।
रवि (१९५४-१९९१) – ३ मार्च, १९२६, को जन्में रवि शंकर शर्मा
बनना चाहते थे गायक और किस्मत ने बना दिया – संगीतकार । शुरुआती दौर में रवि ने
हेमंत कुमार के सहायक के रूप में कार्य किया । निर्माता देवेंद्र गोयल ने उनकी
प्रतिभा को पहचाना और “वचन” (१९५५) फ़िल्म के संगीत की ज़िम्मेदारी सौंप दी, जिस पर ये खरे उतरे और
देवेंद्र गोयल की फिल्मों के स्थायी संगीत कार हो गए । इनके गीतों से प्रभावित होकर बी आर चोपड़ा ने भी
उन्हें अपनी फिल्मों का स्थायी संगीतकार बना लिया । १९९१ में प्रदर्शित फ़िल्म “वो
सुबह कभी तो आएगी” उनकी आख़री फ़िल्म थी । ७ मार्च, २०१२, को वे इस फ़ानी दुनियाँ से
कूच कर गए। उनके कुछ प्रसिद्ध गीत हैं – चन्दा मामा दूर के, दर्शन दो घनश्याम नाथ,
चौदवीं का चाँद हो, मिली खाक में मुहब्बत, रहा गर्दिशों में हरदम, बड़ी देर भई नंदलाला, तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं
मेरी पूजा, ये वादियाँ ये फिज़ाएँ, चलो इक बार फिर से अजनबी बन
जायें, ये रातें ये मौसम नदी का
किनारा, ये मौसम रंगीन समा, ज़रा सुन हसीना ए नाज़नी, आज की मुलाक़ात बस इतनी, लो आ गई उनकी याद, सौ बार जनम लेंगे, हम भी अगर बच्चे होते, ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं, आगे भी जाने ना तू, तुम अगर साथ देने का वादा
करो, नीले गगन के तले, संसार की हर शै का, तोरा मन दर्पण कहलाए, छू लेने दो नाज़ुक होंठों को, मेरे भैया मेरा चंदा, गरीबों की सुनो वो तुम्हारी
सुनेगा, मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत
कभी कभी, बाबुल की दुआएँ लेती जा, तुझको पुकारे मेरा प्यार, तुम्हारी नज़र क्यों खफा हो
गई, बच्चे मन के सच्चे, दिल की ये आरज़ू थी कोई
दिलरुबा मिले और दिल के अरमा आँसुओं में बह गए।
जयदेव (१९५५-१९८६) – “अभी ना जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं”, वाकई जयदेव जी के गीत इतने मधुर हैं कि उन्हें छोड़ने
का मन आज भी नहीं होता। शास्त्रीय पुट देकर मेलोडी कैसे रची जाती है, यह जयदेव जी
से लोग अक्सर पूछते थे। प्रारम्भ के वर्षों में वे अली अकबर खान और सचिन दा के
सहायक रहे । १९५५ में चेतन आनंद ने “जोरू का भाई” के संगीत के लिए जयदेव जी को
अनुबंधित किया। १९६१ में नवकेतन के ही बैनर तले “हम दोनों” के संगीत ने ऐसी धूम
मचाई कि जयदेव जी छा गये। बच्चन की मधुशाला को मन्नाडे से गवाने वाले भी जयदेव ही
थे। १९८५ में प्रदर्शित “अनकही” पूरी तरह शास्त्रीय संगीत पर आधारित थी। मुझको भी
राधा बना ले नंदलाल और कौनु ठगवा नगरिया लूटल हो भक्ति गीत आशा जी ने गाये थे,
तो पंडित भीमसेन जोशी ने इस फ़िल्म के लिए
“रघुवर तुम को मेरी लाज” भजन गाया था। इन्हें तीन बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का
राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे – रेशमा और शेरा, गमन और अनकही फिल्मों के लिए।
६ जनवरी, १९८७, को वे हम सब से दूर चले गये। उनके सदाबहार कुछ गीत हैं – अल्ला
तेरो नाम, हम बेखुदी में तुमको पुकारे
चले गये, तू चंदा मैं चाँदनी, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये, नदी नारे न जाव श्याम, ये दिल और उनकी निगाहों के
साये, आपकी याद आती रही रात भर, मेरे घर आना जिंदगी, रात भी है कुछ भीगी भीगी, दो दीवाने शहर में, तुम्हें हो न हो, सीने मे जलन और ज़िंदगी में
जब तुम्हारे गम नहीं थे।
कल्याण जी आनंद जी (१९५८-१९९४) – आठवें दशक के सबसे लोकप्रिय संगीतकारों में कल्याण जी आनंद जी और
लक्ष्मीकांत प्यारेलाल सबसे ऊपर रहे ।
कल्याण जी के छोटे भाई थी आनंद जी । दोनों कच्छ गुजरात से थे । बचपन से संगीत का
शौक इन दोनों को ही था। स्वतंत्र रूप से
फ़िल्म- “पोस्ट बॉक्स ९९” १९५८ से अपना कारवां शुरू करने वाले वीर जी भाइयों
को “सट्टा बाज़ार” (१९५९) ने खूब सफलता दिलाई। प्रारम्भ के वर्षों में हेमंत दा के
सहायक के रूप में इन्होंने फिल्मी दुनियाँ में कदम रखा नागिन की मन डोले की धुन
आनंद जी ने ही क्ले वायलिन पर बीन के रूप में बजाई थी। १९८९ की फ़िल्म “त्रिदेव” ने
भी खूब धूम मचाई थी – ओए ओए तिरछी टोपी वाले, सात समंदर पार मैं तेरे,
गीतों ने खूब धूम मचाई। मुकेश ने सर्वाधिक गमगीन गीत इन्हीं
के निर्देशन में गाये हैं। इनके गीतकार साथी रहे –इंदीवर, क़मर जलाला बादी, गुलशन बावरा, आनंद बक्षी और अंजान। मनोज
कुमार की फिल्मों के ये स्थाई संगीतकार थे। इनके प्रसिद्ध गीतों में शामिल हैं –
तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे, नींद न मुझको आए, हमने तुझको प्यार किया है जितना, तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के, छोड़ दे सारी दुनिया किसी के
लिए, चंदन सा बदन, एक तू ना मिला,
गंगा मैया में जब तक ये पानी रहे, मैं तो भूल चली बाबुल का देस, रूठे रूठे पिया मनाऊ कैसे, मेय जीवन कोरा कागज़, क्या खूब लगती हो, ज़िंदगी का सफर, हम थे जिनके सहारे, नैना है जादू भरे, मेरे टूटे हुये दिल से कोई
तो आज ये पूछे, प्यासे पंछी नील गगन में, अकेले हैं चले आओ, ओ साथी रे तेरे बिना भी क्या
जीना, वो मुकद्दर का सिकंदर जाने
मन कहलाएगा, चाँद सी महबूबा हो, जो प्यार तूने मुझको दिया था, मेरे देश की धरती सोना उगले, कसमें वादे प्यार वफा सब,
भारत का रहने वाला हूँ, कभी रात दिन हम दूर थे, चाँदी की दीवार न तोड़ी, आँखों आँखों में हम तुम, कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, बाबुल प्यारे, पल भर के लिए कोई हमें प्यार
कर ले, पल पल दिल के पास, रामचन्द्र कह गये सिया से, किसी राह में किसी मोड़ पे, मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम
सँवार दो, तेरे चेहरे में वो जादू है, मैं प्यासा तुम सावन और यारी
है ईमान मेरा और नीले नीले अम्बर पे।
उषा खन्ना
(१९५९-१९९९) – ४० वर्षों तक लगातार
फ़िल्म जगत में संगीत देने वाली एकमात्र महिला संगीतकार के रूप में एक ही नाम आता
है वो है “उषा खन्ना” का। बड़े बड़े महारथी संगीतकारों के होते हुये अपनी प्रतिभा के
बल पर ही इन्होंने इतना लंबा सफर तय किया। “दिल देके देखो” फ़िल्म से १९५९ में अपना
सफर शुरू करने वाली उषा खन्ना का इस फ़िल्म में संगीत बिलकुल नैयर स्टाइल में था।
शम्मी कपूर के अभिनय वाली इस फ़िल्म के सभी गीत सुपर हिट रहे थे – ‘दिल देके देखो’ टाइटल गीत आज भी बहुत सुना
जाता है। फ़िल्म निर्माता और गीतकार सावन कुमार टाँक की जीवन संगिनी बनीं उषा जी ने
सावन कुमार की सभी फिल्मों में संगीत देकर सावन कुमार को भी प्रसिद्ध कर दिया।
१९९९ में प्रदर्शित “खूनी महल” उनकी अंतिम फ़िल्म थी। इनके प्रसिद्ध गीतों में है –
एक सुनहरी शाम थी, चाँद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर, हम और तुम और ये समा, मैंने रक्खा है मुहब्बत अपने
दीवाने का नाम, हम तुमसे जुदा होके मर जाएँगे
रो रो के, हाय तबस्सुम तेरा, बरखा रानी ज़रा जम के बरसों, शायद मेरी शादी का खयाल, भीगे हुये आँचल में समेटो न
बदन को, दिल के टुकड़े टुकड़े कर के, मधुबन खुशबू देता है, तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी
में शामिल है, बिन फेरे हम तेरे, बूँदें नहीं सितारे टपके हैं
कहकशा से और प्यार करते है हम तुम्हें इतना।
लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल
(१९६३-१९९६) – लक्ष्मीकांत प्यारेलाल भी
शंकर जयकिशन की तरह पहली ही फ़िल्म में सभी हिट गाने देने वाले संगीतकारों में
शुमार रहे हैं। लक्ष्मीकान्त का बचपन मुफ़लिसी में गुज़रा था । अपने हम उम्र कलाकार
“प्यारेलाल” को एक कार्यक्रम में वाइलीन बजाते हुये सुनने पर इतने प्रभावित हुये
कि उन्हें अपना साथी बना लिया। इस तरह जोड़ी बनी - लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की। प्रारम्भ के वर्षों में रोशन, कल्याण जी आनंद जी के साथ
सहायक के रूप में कार्य किया। १९६३ में बाबू भाई मिस्त्री ने अपनी फ़िल्म “पारसमणि” में स्वतंत्र रूप से
संगीत देने का अवसर दिया। “हंसता हुआ नूरानी चेहरा”, रोशन तुम्हीं से दुनिया, चोरी चोरी जो तुमसे मिली, ऊई माँ ऊई माँ ये क्या हो
गया, वो जब याद आए बहुत याद आए।
इन गीतों ने ऐसी धूम मचाई कि इन दोनों ने फिर पलट कर नहीं देखा। उसके बाद १९६४ में
आई “दोस्ती” फ़िल्म के भी सभी गीत सुपर हिट हुये थे। इनके संगीत से प्रभावित होकर
१९७४ में राज कपूर ने उन्हें “बॉबी” फ़िल्म के संगीत की ज़िम्मेदारी सौंपी और बॉबी
के गीतों ने भी इतिहास रच दिया – हम तुम एक कमरे में बंद हों, झूठ बोले कौवा काटे, मैं शायर तो नहीं, ना माँगू सोना चाँदी - गीतों
ने गजब की धूम मचाई। दाग, अमीर-गरीब, इम्तिहान, आशा, रोटी कपड़ा और मकान, एक दूजे के लिए,
सरगम, कर्ज़, उत्सव सहित सुपर हिट फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है एल पी के
साथ।
राहुल देव बर्मन
(१९६१-१९९४) – २७ जून, १९३९, को कलकत्ता
में सचिन दा के पुत्र राहुल देव का जन्म हुआ। राहुल को बचपन से ही धुनें बनाने का
शौक था। छोटे राहुल अक्सर “प” पर अटक जाते थे । इसलिए मजाक मजाक में उनका नाम
‘पंचम” हो गया। सचिन दा की कई फिल्मों की धुनें राहुल ही बनाते थे । जैसे – आँखों
में क्या जी, अरे यार मेरी तुम भी हो गज़ब।
माउथ ऑर्गन बजाने का शौक भी इन्हें बचपन से ही था । है अपना दिल है आवारा गाने में
और दोस्ती फ़िल्म में बजाया गया माउथ ऑर्गन राहुल की कलाकारी थी । हास्य कलाकार, निर्माता और निर्देशक महमूद
ने उनकी प्रतिभा को पहचान कर “छोटे नवाब” (१९६१) फिल्म में संगीत देने का अवसर
दिया । फिल्म का संगीत हिट रहा और महमूद की फिल्मों के स्थाई संगीतकार हो गये ।
संगीत में आधुनिकता की लहर लाने का श्रेय पंचम को ही जाता है । आशा के स्वर को ओ
पी नैयर और पंचम ने नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं । १९८० में पंचम ने आशा भोसले को अपनी
जीवन संगिनी के रूप में भी चुन लिया । अल्पायु में ४ जनवरी, १९९४, को वे स्वर्ग
सिधार गए । इनकी प्रमुख फ़िल्में हैं – अमर प्रेम, शोले, कटी पतंग, तीसरी मंजिल, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, आँधी, पड़ोसन, महबूबा, सागर, मासूम, हरे राम हरे कृष्ण, दुनियां, सत्ते पे सत्ता, जवानी दीवानी, शान, कसम, अजनबी, कारवाँ, अनामिका, घर, अगर तुम न होते, मंज़िल, कुदरत, बेताब, पुकार, इजाज़त, लवस्टोरी, गोलमाल, परिचय, रॉकी,
अपना देश, नमक हराम, खुशबू,
महान, खुबसूरत, शालीमार, बुड्ढा मिल गया, खुशबू, द ग्रेट गैम्बलर, आ गले लग जा, प्यार का मौसम, कालिया, खेल खेल में, बेमिसाल, बहारों के सपने और १९४२ ए लव स्टोरी। इन सभी फिल्मों के गीत
एक से बढ़कर एक हैं और आज भी सबसे ज़्यादा सुने जाते हैं।
रवीन्द्र जैन (१९७५-१९९१) – अलीगढ़ के रहने वाले रवीन्द्र जैन जन्म से ही आँखों से कमजोर थे। इसलिए बचपन
से ही साहित्यकारों की कृतियाँ अपने भाई के मुख से सुनते रहे। इस सुनने की कला से
वे सफल गीतकार भी बने। बचपन से ही संगीत
का शौक रखने वाले रवीन्द्र जैन ने पहला गीत बांग्ला भाषा में रिकॉर्ड करवाया था।
१९६९ में राधेश्याम झुनझुन वाला रवीद्र जैन को मुंबई ले आए फ़िल्म “लोरी” में संगीत
देने के लिए । लेकिन वह फ़िल्म नहीं बन पाई। १९७० में “काँच और हीरा” में संगीत
देने का अवसर मिला – इस फ़िल्म का गीत था - “नज़र आती नहीं मंज़िल” जो रफ़ी और चंद्राणी
मुखर्जी ने गाया था। गीत सुपर हिट हुआ और रवीन्द्र जैन को मंज़िल नज़र भी आ गई और
मिल भी गई। राजश्री प्रॉडक्शन ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर अपने बैनर का
संगीतकार बना लिया। फिर तो सुपर हिट फिल्मों का सिलसिला चल पड़ा – सौदागर, दो जासूस, नदिया के पार, तपस्या, चोर मचाये शोर, चितचोर, फकीरा, सलाखें, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, सुनैना, पति पत्नी और वो, गोपाल कृष्ण, अबोध, विवाह और राम तेरी गंगा मैली
इनकी लोकप्रिय फिल्में रहीं। इनके सदा बहार कुछ गीतों में शामिल हैं – सजना है
मुझे सजना के लिए, तेरा मेरा साथ रहे, गीत गाता चल ओ साथी, मंगल भवन अमंगल हारी, एक डाल पर तोता बोले, तोता मैना की कहानी, ले जाएँगे दिल वाले
दुलहनियाँ ले जाएँगे, जो राह चुनी तूने, गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा, फकीरा चल चला चल, खुशियाँ ही खुशियाँ हों दामन
में जिसके, अँखियों के झरोखों से, सुनयना, गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा, आज से पहले आज से ज़्यादा, राम तेरी गंगा मैली हो गई, मैं देर करता नहीं देर हो
जाती है, सुन साहिबा सुन और श्याम
तेरी बंसी। रमानन्द सागर के तत्समय दूरदर्शन पर प्रसारित “रामायण” के संगीत ने
रवीन्द्र जैन को लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया था।
राजेश रोशन (१९७५ से अब तक) – रोशन के पुत्र राजेश ने पिता जी की प्रतिभा को आगे पहुँचाते हुये एक से बढ़
कर एक गीत दिये। उनकी प्रतिभा पहचान कर यश चोपड़ा, देव आनंद सहित अनेक
निर्माताओं ने इन्हें अनेक फिल्मों में संगीत देने का अवसर दिया। भाई राकेश रोशन
के बैनर “फ़िल्म क्राफ्ट” के तो प्रारम्भ से ही संगीतकार रहे हैं और आज भी सक्रिय
हैं। राजेश रोशन के गीतों की रेंज लंबी और ऊँची रहती है। पिताजी के संगीत से इनका
संगीत अलग हट के रहा। हालाँकि रसिक श्रोता इनके गीत सुनकर पहचान जाते हैं कि ये
गाना राजेश रोशन का कम्पोज़ किया होगा। प्रारम्भ की दो फिल्में – कुँवारा बाप और
जूली इन्हें शिखर पर पहुँचाने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुईं। इनकी अन्य सुपर हिट
फिल्में है – काला पत्थर, स्वामी, देस परदेस, लूटमार, मनपसंद, खुद्दार, बातों बातों में, दो और दो पाँच, प्रियतमा, दूसरा आदमी, कामचोर, खट्टा मीठा, मि॰ नटवरलाल, इंकार, स्वर्ग-नर्क, जनता हवलदार, स्वयंवर, खुदगर्ज़, खून भरी माँग, किंग अंकल, डैडी, कहो ना प्यार है, कोई मिल गया, करण अर्जुन, कोयला, क्या कहना, काइटस, याराना और क्रिष। सुपर हिट कुछ गीत हैं – इक रास्ता है ज़िंदगी, पल भर में ये क्या हो गया, कोई रोको ना, देस-परदेस, सुमन सुधा,
जब छाए मेरा जादू, छू कर मेरे मन को, सारा ज़माना हसीनों का दीवाना, कहो ना प्यार है, क्यूँ चलती है पवन, कोई मिल गया, जादू-जादू, तेरे बिन कैसे दिन बीते सजना, कोई रोको ना, खट्टा-मीठा, बातों बातों में प्यार हो
जाएगा, देखा तुझे तो, न तुम जानो न हम, चाँद सितारे फूल और खुशबू, वो कहते है हमसे, मैं तेरी हूँ जानम, क्या कहना और दिल तू ही बता।
बप्पी लाहिड़ी (१९७३से अब तक) – बप्पी लाहिड़ी के माता और पिता दोनों ही शास्त्रीय संगीत के अच्छे गायक थे।
बप्पी चार साल की उम्र से ही तबला बजाने लगे थे। १९७१ में मात्र १६ वर्ष की उम्र
में उन्होने बंगाली फ़िल्म “दादू” का संगीत देकर सबको चकित कर दिया था। हिन्दी में
पहली फ़िल्म मिली – १९७३ में “नन्हा शिकारी”। १९७५ की फ़िल्म “ज़ख्मी” ने उन्हें हिट
गीत बनाने वाले बप्पी दा के रूप में पहचान दी। फिर आई –“चलते-चलते” इस फ़िल्म के
बाद तो बप्पी दा चले नहीं, बल्कि दौड़ने लगे। सुरक्षा, प्यारा दुश्मन, डिस्को डांसर के डिस्को गीत
इतने लोकप्रिय हुये कि बप्पी दा शिखर पर पहुँच गए। फिर तो साउथ की हिन्दी सामाजिक
फिल्मों के भी वे पसंदीदा संगीतकार हो गए। आज भी बप्पी दा सक्रिय है। इनके कुछ
प्रसिद्ध गीत हैं – गाओ मेरे मन, अभी अभी थी दुश्मनी अभी है दोस्ती, चलते-चलते मेरे ये गीत याद
रखना, जाना कहाँ है प्यार यहाँ है, प्यार में कभी कभी ऐसा हो
जाता है, प्यार माँगा है तुम्हीं से, हाँ पहली बार, सपनों के शहर, कोई यहाँ नाचे नाचे, रंभा हो संभा हो, डिस्को दीवाने,तम्मा तम्मा लोगे,रास्ते अपनी जगह है,इंतहा हो गई इंतज़ार की,दे दे प्यार दे, पग घुँघरू बाँध, तोहफा तोहफा, किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है, तूने मारी एंट्रियाँ, याद आ रहा है, ओह ला ला, यार बिना चैन कहाँ रे, बंबई से आया मेरा दोस्त और
रात बाकी बात बाकी।
अनु मलिक (१९७७ से
अब तक) – प्रसिद्ध संगीतकार सरदार मलिक के पुत्र अनु मलिक ने १९७७
में फ़िल्म “हंटरवाली” से फिल्मों में संगीत देने की शुरुआत की थी। सोहनी महिवाल और
एक जान हैं हम फिल्मों के बाद इन्हें कुछ प्रसिद्धि मिली । लेकिन सफलता अभी दूर थी,
जो इन्हें जाकर १९९१ में मिली । फ़िल्म थी – फिर तेरी कहानी याद आई और हिट गीत था –
“तेरे दर पे सनम हम चले आए”, बाज़ीगर फ़िल्म के सभी गीत सुपर हिट रहे। दम लगा के हईशा, हर दिल जो प्यार करेगा, जुड़वा,
चाइनागेट, दिलजले, सोल्जर, बार्डर, जोश, डुप्लीकेट, जहर, इश्क़, अजनबी, चोरी चोरी चुपके चुपके, अशोका द ग्रेट, मैं हूँ ना, अकेले हम अकेले तुम, बादल, आरज़ू, खुद्दार, अजनबी, उमराव जान,नो एंट्री, खिलाड़ियों के खिलाड़ी, बीवी नंबर १, रिफ़्यूजी, मर्डर, बादशाह, विजयपथ, यादें, फिदा, मर्द और मन अन्नु की
प्रसिद्ध फिल्मों में हैं। कुछ प्रसिद्ध गीत हैं – मोह मोह के धागे, संदेसे आते हैं, पंछी नदिया पवन के झोंके, बोले दो मीठे बोल सोणिया, सन सनन सन, चोरी चोरी चुपके चुपके, सोल्जर सोल्जर, बाज़ीगर मैं बाज़ीगर, जुली जुली, ये काली काली आँखें, हाय मेरा दिल, मेरे महबूब मेरे सनम, तारे है बाराती, ढोल बजने लगा, नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम, अगर तुम मिल जाओ और भीगे
होंठ तेरे।
नदीम श्रवण (१९९०
से २००२) – “आशिक़ी” फ़िल्म से ज़बरदस्त गीतों के साथ १९९० में नदीम और
श्रवण ने धमाकेदार दस्तक दी। गीतों से ‘मेलोडी’ जो सत्तर के दशक से लुप्त होने की
कगार पर थी, उसे नदीम और श्रवण ने फिर से स्थापित कर दिया। गीतकार अंजान के पुत्र
“समीर” ने नदीम–श्रवण के साथ लोकप्रिय गीतों की झड़ी लगा दी थी। कुमार सानु, अलका याज्ञिक,सोनू निगम, उदित नारायण और अनुराधा पोडवाल को सुपर हिट सिंगर के रूप
में स्थापित करने वाले नदीम श्रवण ही रहे। १९९७ में गुलशन कुमार हत्याकांड में
नदीम का नाम आने से इस जोड़ी को ग्रहण लगना शुरू हो गया। नदीम लंदन चले गए और वहाँ
से धुने बना कर श्रवण को भेजते रहे। २००५ में इनकी जोड़ी टूट गई। इनकी अन्य हिट
फिल्में है – फूल और काँटे, सड़क, साजन, सनम, साथी, कल की आवाज़, राजा, दामिनी, परदेस, धड़कन, कसूर, दिल है तुम्हारा, राजा हिंदुस्तानी और दीवाना। इनके प्रसिद्ध गीतों में है –
ऐसी दीवानगी,सोचेंगे तुम्हें प्यार करे के नहीं,तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार,मेरा दिल भी कितना पागल है,दिल है के मानता नहीं,कितना प्यारा तुझे रब ने बनाया,बहुत प्यार करते है तुमको सनम,आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के,दिल चुरा लिया,दूल्हे का सेहरा,धड़कन धड़कन,तेरे दर्द से दिल आबाद रहा,दो दिल मिल रहे है,आपके प्यार में हम सँवरने लगे,जो भी कसमें खाई,हम तेरे बिन कहीं,तुम्हें अपना
बनाने की,तू प्यार है किसी और का, ओ साहिबा और दिल ने ये कहा है दिल से।
ए आर रहमान (१९७७
से अब तक ) – समकालीन संगीतकारों में सबसे चर्चित नाम ए आर रहमान का
आता है। मूलतः दक्षिण भारतीय इस संगीतकार ने हिन्दी फ़िल्म संगीत फ़लक पर सर्वथा नई
संगीत ध्वनियों को लाकर उसे एक नई दिशा दी। शुरुआती फ़िल्म मणिरत्नम की “रोजा” के
गीत जब जनता ने सुने तो वो मानो दूसरे लोक में पहुँच गये – रोजा जाने मन, ये हसीं वादियाँ। इसके बाद
आई ‘बॉम्बे’ फ़िल्म के गीत- तू ही रे, एक हो गये हम और तुम, आवारा भँवरे जैसे गीत अद्भुत रचे गये। इसके बाद रहमान
ने पलट कर नहीं देखा। “आस्कर” पुरस्कार से सम्मानित रहमान भारत के पहले संगीतकार
बने। गीत था – “आ जा आ जा नीले शामियाने के तले”। “दिल से” फ़िल्म के गीत – चल छईंया
छईंया, जिया जले जाँ जले, ए अजनबी तू भी कभी, सतरंगी रे ने भी खूब धूम
मचाई। रहमान के संगीत में कई बार सूफियाना रंग भी उभरता है, ”जोधा अकबर” का संगीत इसका अच्छा उदाहरण है। “लगान” फ़िल्म का भी संगीत बेमिसाल
रहा। काले मेघा काले मेघा पानी तो बरसा रे, ओ पालन हारे।
प्रीतम (२००४ से अब तक) - १९७१ में जन्में बाबू मोशाय प्रीतम चक्रवर्ती की प्रतिभा को आदित्य चोपड़ा ने
परखा और २००४ में “धूम” फ़िल्म में अवसर दिया। धूम के गानों ने इतनी धूम मचाई कि
स्थापित संगीतकार बना दिया। अब तक वे ५० से अधिक फिल्मों में संगीत दे चुके हैं। हाल ही में २०२२ में इनकी
फ़िल्म “ब्रह्मास्त्र” प्रदर्शित हुई है। इनके लोकप्रिय गीतों में शामिल है – धूम
मचा ले, दिलबरा, शिकदुम, आओगे जब तुम बालमा, बुलैया, ज़रा सा, रंग दे मुझे गेरुआ, धतींग नाच,
पहली नज़र में, बदतमीज दिल, बलम पिचकारी, कबीरा, इन दिनों दिल मेरा, ओ मेरी जान, मेहरबा और ज़िंदगी कुछ तो बता।
जितने भी महान संगीतकार हुये हैं, उन्हें बहुत
अच्छे गीतकार मिले, बहुत अच्छे गायक-गायिका मिले, बहुत अच्छे निर्माता, निर्देशक, कहानी लेखक मिले, जिनके सहयोग से ही कालजयी
रचनाएँ जन्म ले सकीं। कई संगीतकार ऐसे भी रहे हैं, जिन्होंने प्रारम्भ की १-२
फिल्मों में ही बहुत मधुर और सुपर हिट गीत दिये । लेकिन उनकी गाड़ी आगे न बढ़ सकी।
कुछ संगीतकारों की जोड़ियाँ टूटने के बाद अकेला साथी वो कमाल नहीं दिखा पाया। जैसे
– जतिन ललित। पचास से नब्बे के दशक तक के
प्रसिद्ध रहे। अधिकांश संगीतकारों द्वारा गीतों में वाद्यों की ऐसी शैली इस्तेमाल
की जाती रही है, जो सुधि श्रोता गाने सुनते
ही यह पकड़ कर लेते थे कि ये गीत रोशन का है। ये गीत ओ पी नैयर या ये गीत-श्रवण का
है। समय के साथ साथ संगीत और गायकी भी परिवर्तित होती गई। प्रारम्भ के वर्षों में
अत्यंत धीमे गीत हुआ करते थे । पचास के दशक से गानों की गति में परिवर्तन हुआ । संगीतकार, गायक और गायिकाओं के साथ गीतकारों ने भी ख़ूब मेहनत कर ऐसे मेलोडियस गीत रचे,
जो अमर हो गए। फास्ट फूड, कम्प्युटर, लेप-टॉप, स्मार्ट फोन आने के बाद संगीत भी फास्ट और जंक फूड, भेल पूरी जैसा हो गया। गाने
आते हैं कुछ दिनों धूम मचाने के बाद दोबारा पलट कर नहीं आते हैं। हालाँकि नई पीढ़ी नए गीत ही गुनगुनाती है । भले ही कुछ दिनों
बाद भूल जाए। जनता के मानस पटल पर आज भी १९५० से २००० तक के ही गीत रचे और बसे
हुये हैं। १९३१ से २०२२ तक के सभी गीतों को “विविध भारती” ने सहेज कर रखा है । आज
भी पुराने फिल्मी गीत प्रसारित करने में रेडियो क्षेत्र में विविध भारती नंबर एक
है। किसी भी फिल्मी हस्ती के जन्म दिन और अवसान दिवस पर उनके गीत श्रोताओं को
सुनाकर विविध भारती उन्हें याद करता है और हमें अतीत में ले जाने पर मजबूर कर देता
है।
संदर्भ –
• धुनों की यात्रा, पंकज राग, राजकमल
प्रकाशन
• गूगल
रवि शर्मा
इंदौर
बहुत बढ़िया आलेख.... हार्दिक बधाई!
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