गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

किताब

 


भारतीय साहित्य और समाज का दृश्यांकन है 

‘भारतीय सिनेमा का सफ़रनामा’

कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

     वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो सिनेमा की शुरुआत फोटोग्राफी की सामग्री बेचने वाले दो सगे भाइयों ‘आगस्ट’ और ‘लुई लुमियर’ ने की। भारत में भी सिनेमा की शुरुआत का श्रेय इन्हीं लुमियर बंधुओं को जाता है। जिसे 1896 को इन्होंने मुंबई के होटल में छः (6) फिल्मों की शृंखला दिखाकर इसे प्रदर्शित किया। यहीं से शुरू होता है भारतीय सिनेमा का सफ़रनामा, जो अथक प्रयासों के साथ 1913 में पूर्णतया भारतीय रूप में फिल्मांकित होकर हमारे सामने दृश्यांकित होता है।

            भारतीय सिनेमा का सफ़रनामासंपादक द्वय पुनीत बिसारियाऔर राजनारायण शुक्लद्वारा संपादित भारतीय सिनेमा की अब तक संपादित पुस्तकों में से सबसे लोकप्रिय महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें उन्होंने लगभग सभी भारतीय भाषाओं के सिने जगत पर महत्वपूर्ण आलेखों को पुस्तक में संकलित कर हमें भारतीय सिनेमा की यथार्थता से रूबरू कराते हैं। पुस्तक की प्रस्तावना में पुनीत बिसारियाभारतीय सिनेमा के आरंभिक स्वरूप एवं इसके विकास की प्रक्रिया समाज पर इसके प्रभाव को बड़ी ही सजगता से उल्लिखित करते हुए प्रत्येक दशक में सिनेमा की क्या स्थिति रही है इसे बखूबी से प्रस्तुत करते हैं। साथ ही हिंदी सिनेमा में हो रहे नए प्रयोगों पुरानी फिल्मों के नवीनीकरण पर भी संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए भारतीय सिनेमा के सफ़रनामा की झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

         पुस्तक में समुद्रित पहला लेख कनुभाई पटेलका गुजराती सिनेमा पर है, जिसमें उन्होंने गुजराती सिनेमा पर बात करने से पहले सभी भाषाओं की फिल्मों पर एक दृष्टि डालते हुए सिनेमा के आरंभिक स्वरूप को उकेरते हुए बताते हैं कि किस प्रकार सिनेमा साहित्य के माध्यम से अपने नए पथ का निर्माण कर रहा था और उस समय गुजराती सिने निर्माता और निर्देशक किस प्रकार अन्य भाषाओं के कलाकारों के साथ तादात्म्य स्थापित कर विस्तारवादी नीति के तहत गुजराती फिल्मों का फिल्मांकन कर रहे थे। अपने इस आलेख में कनुभाई गुजराती सिनेमा के विकास और विस्तार के साथ सिने गुजराती निर्माता-निर्देशक, कलाकार, संगीत, लोक गायन, लोककथा और वर्तमान गुजराती सिनेमा की स्थिति से रूबरू कराते हैं। और अंत में इसके अवसान की स्थिति पर भी चिंता व्यक्त करते हुए इसके अग्रगामी विकास की संभावनाओं पर भी दृष्टि डालते हुए गुजराती सिनेमा के संरक्षण और शोध की बात करते हैं।

       पुस्तकीय लेख की अगली कड़ी में शैलजा महेश्वरीमराठी सिनेमा के उद्भव से लेकर उसके विकास विस्तार को बड़े ही सजगता से अंकन करती हैं और सिने जगत के आरंभिक स्वरूप पर दृष्टि डालते हुए  लिखती हैं मराठी सिनेमा का आरंभ पुराण कथाओं से हुआ है।साथ ही किस प्रकार मराठी सिनेमा में ऐतिहासिकता, ग्रामीण आंचलिकता, स्त्री शोषण हिन्दू-मुस्लिम एकता को चलचित्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है और मराठी साहित्य का सिने जगत में क्या योगदान है इसे बड़े ही बखूबी से इस आलेख में प्रस्तुत करती हैं। इतना ही नहीं शैलजा जी इसमें यथार्थ ग्रामीण जीवन तमाशा की सिने संसार में उपस्थित को भी दर्ज करती हैं। इन्हीं की भाँति एन०ललिताअपने आलेख तमिल सिनेमा का बदलता परिदृश्यमें कलाकारों का परिचय कराते हुए कॉलीवुड में किस प्रकार से फिल्में बनी, उसकी विकास प्रक्रिया और तमिल फिल्मों में दृश्यांकित भारतीय सभ्यता एवं ग्रामीण मजदूरों की दयनीय स्थिति से परिचय कराते हुए तमिल सिनेमा के बदलते स्वरूप (गाना, संगीत नृत्य) का संक्षिप्त खाका खींचती हैं। तमिल सिनेमा पर दूसरा अन्य आलेख ‘सी०आर०राजश्री’ का तमिल सिनेमा में वशीभूत तमिलवासीहै,  जिसमें इन्होंने भारतीय सिनेमा का विश्व सिनेमा से तुलना करते हुए सिने उद्योग से परिचय कराया है। साथ ही तमिल भाषा में निर्मित फिल्म कलाकारों, निर्देशक निर्माताओं से भी परिचय कराती हैं। तमिल सिनेमा पर ही पदमप्रियाका आलेख भी पुस्तक में संकलित है जिसमें उन्होंने आरंभिक तमिल सिनेमा के प्रदर्शन और दर्शकों के संबंध को बताते हुए राजनीति में तमिल कलाकारों के हस्तक्षेप और सिनेमा में समाज के अंतर्विरोध पर अपनी पैनी दृष्टि डालती हैं।

        पुस्तक में संकलित अगले आलेख कन्नड़ सिनेमा का सुहाना सफ़रमें राजशेखर उमेश जाधवकन्नड़ फिल्मों में निर्मित आवक् सवाक् फिल्मों के दौर और उस दौर के निर्माता, निर्देशक कलाकारों से रूबरू कराते हुए कन्नड़ सिनेमा की आरंभिक दशा गुब्बी वीरण्णाके योगदान को याद करते हैं। जाधव जी अपने आलेख में कन्नड़ साहित्य का सिनेमा में योगदान समाज पर इसके प्रभाव को उल्लिखित करते हुए राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत करते हैं।

      भारतीय सिनेमा के सफ़र की बात करें तो संपादित पुस्तक में संपादक द्वय द्वारा प्रत्येक भाषा के सिने संसार को ममर्ग विचारको के लेखों द्वारा एक जगह संकलित कर उससे परिचय कराने का अविस्मरणीय कार्य किया है। पुस्तक में समुद्रित सभी लेख महत्वपूर्ण है किंतु सब पर विस्तार से बात करना पाना यहाँ संभव नहीं है, फिर भी आपको इन आलेखों और उनके लेखकों से परिचय कराएं बिना भी नहीं छोड़ा जा सकता। संकलित आलेखों में जहाँ दोड्डा शेष बाबू शासक बनाता तेलुगू सिनेमामें विश्व के तमाम कलाकारों का परिचय देते हुए कलाकारों का शासन सत्ता में हस्तक्षेप पर प्रकाश डालते हैं, वहीं एन० ललिता ‘मलयालम सिनेमा पर एक नजर’ डालते हुए मलयाली सिने जगत से परिचय कराती हैं। संकलित पुस्तकीय आलेखों में ...’राजनारायण शुक्ल का भारतीय सिनेमा और पथेर पांचाली, वीरेंद्र सिंह यादव का इतिहास के आईने में भोजपुरी सिनेमा, सृष्टि माथुर का भारतीय फिल्म संगीत में शास्त्रीय संगीत-गायन के विशेष संदर्भ में, अश्विनी कुमार शुक्ल का वैश्वीकरण की अवधारणा प्रक्रिया और मूल्यबोध, दया दीक्षित का फिल्में और हम, अमरेंद्र सिंह सेंगर का फिल्म यात्रा अबोल से सबोल, सबोल से वाचाल, मुद्रित चंद्रा का सफल सिनेमा की कसौटी, दिनेश शर्मा का रीतिकाल पर भारी फिल्में, नीरज कुमार शर्मा समता सिंह का भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष, दीपक पाठक का भारतीय सिनेमा पर पौराणिकता का प्रभाव, केदार सिंह का हिंदी सिनेमा में गीत एवं संगीत प्रियंका सिंह का हिंदी सिनेमा में वंचित चित्रणमहत्वपूर्ण आलेख  है जिसमें इन लेखकों ने सूक्ष्मता से दृष्टि डालते हुए अपनी पैनी कलम से सिने संसार की खामियाँ और खूबियों को उकेरते हैं।

          पुस्तक में समुद्रित इन आलेखों के साथ दयाशंकर जी अपने आलेख समाज, साहित्य और सिनेमामें साहित्य सर्जन और फिल्म-निर्माण का समाज में क्या अवदान है, पर विस्तार से बताते हुए तमाम खामियों के साथ ही दोनों को (साहित्य और सिनेमा) समाज सापेक्ष प्रस्तुत करते हैं। साथ ही साहित्य के साथ सिनेमा भी समाज को सार्थक दिशा प्रदान करता है, पर भी विस्तार से चर्चा करते हैं। इसी प्रकार विजय वेदांलकर (हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता में सिनेमा की भूमिका) हेमा देवरानी (हिंदी के प्रचार प्रसार में सिनेमा की भूमिका) में हिंदी साहित्य सिनेमा के अंतर्संबंधों और इसके विघटन को दृष्टित करते हुए सिनेमा की हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में महती भूमिका को उल्लिखित करते हैं। इन्हीं आलेखों में गायत्री सिनेमा और रेडियो के माध्यम से हिंदी रोजगार की उपलब्धतामें सिने जगत में रोजगार की संभावनाओं पर भी दृष्टि डालती हैं। और पुस्तक के अंत में सिनेमा में पिघलती जिंदगी.... और जिंदगी में विलीन सिनेमामहत्वपूर्ण साक्षात्कार है। जिसमें अडूर गोपालकृष्णन से के०एन० बीना की बातचीत है और बबीता के० इसे हिंदी में रूपांतरित कर बड़े ही सहजता से बातों को स्प्ष्ट करती हैं।

        अंततः हम कह सकते हैं कि सिनेमा का सफ़रनामा संपादक द्वय (बिसरिया जी और राजनारायण शुक्ल) की महत्वपूर्ण पुस्तक है जो अपने नाम की सार्थकता के साथ पाठकों के बीच उपलब्ध है। पुस्तक अपने मुख्य पृष्ठ से ही हमे अपनी ओर आकर्षित करती है जिसका प्रकाशन दिल्ली के ख्यातिलब्ध प्रकाशक एटलांटिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर (प्रा.) लि. से हुआ है।

 


कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’

पीएच.डी. शोधछात्र

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय,

वल्लभ विद्यानगर

 

5 टिप्‍पणियां:

अप्रैल 2024, अंक 46

  शब्द-सृष्टि अप्रैल 202 4, अंक 46 आपके समक्ष कुछ नयेपन के साथ... खण्ड -1 अंबेडकर जयंती के अवसर पर विशेष....... विचार बिंदु – डॉ. अंबेडक...