साहित्य
और सिनेमा के अंतर्संबंधों का आख्यान है ‘सतह से उठता आदमी’
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
वैश्वीकरण व भूमंडलीकरण के दौर
में शिक्षण और मनोरंजन के लिए साहित्य और सिनेमा अलग-अलग दो ऐसी विधाएँ हैं, जो
मनुष्य के क्रिया व्यापार और जीवन-शैली को भिन्न-भिन्न माध्यमों से प्रस्तुत करने
का प्रयास करती हैं। जहाँ सिनेमा साहित्य को मूर्त यथार्थ रूप प्रदान करने का
माध्यम है वहीं साहित्य कल्पना और सृजनात्मकता के आधार पर मानव समाज की छवि
प्रस्तुत करने का माध्यम। यह ऐतिहासिक सत्य है कि साहित्य हमेशा से सिनेमा का
अभिन्न अंग रहा है, किंतु दोनों का अंतरंग संबंध होते हुए भी दोनों अलग-अलग माध्यम
है। साहित्य में जहाँ लेखक सर्वशक्तिमान होता है वहीं सिनेमा में उसकी भूमिका
रचनात्मक सहयोगी की होती है। सिनेमा के लिए साहित्य पटकथा के रूप में काम करता है।
सिनेमा को वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो दुनिया
की पहली फिल्म फोटोग्राफी की सामग्री बेचने वाले दो भाइयों आगस्ट और लुई-लुमियर ने
बनाई थी जिसे इन्होंने दिसंबर 1895 को फ्रांस की राजधानी पेरिस के एक रेस्तरां
ग्रैंडकैफ़े में प्रदर्शित किया। भारत में भी सिनेमा की शुरुआत इन्हीं लुमियर
बंधुओं ने जुलाई 1896 को की। जिसे इन्होंने मुंबई के एक होटल में छ:(६) फिल्मों की
श्रंखला दिखाई। भारत में पर्दे पर दिखाई जाने वाली यह पहली फिल्म मानी जाती हैं।
1901ई० के आसपास भारत मे भी इस क्षेत्र में प्रयास प्रारंभ हो गए जो लगभग 10-12 वर्षो
के अथक प्रयासों द्वारा मई 1913 को सार्थक सिद्ध हुए,
जब ‘घुंडीराज दादा फाल्के’ (दादा
साहब फाल्के) ने अपने द्वारा निर्मित फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ (3 मई 1913) का
प्रदर्शन किया। इस फिल्म को मुंबई के ‘कोटेनेशन थिएटर’ में दिखाया गया। भारत में
किसी भारतीय द्वारा निर्मित पहली यह पहली मूक फिल्म थी।
ऐसा माना जाता है साहित्य समाज का
मुकम्मल आईना होता है और इस आईने में दिखाई देने वाले समाज को सिनेमा अपने रुपहले
पर्दे पर उकेरता है। साहित्य को सिनेमा द्वारा इस रुपहले पर्दे पर उकेरने की
प्रक्रिया को ही साहित्य का सिनेमाई रूपांतरण कहा जाता है।
साहित्यिक कृतियों के सिनेमाई पाठ की
बात की जाए तो इसकी शुरुआत मूक सिनेमा के दौर से ही हो चुकी थी। धार्मिक पौराणिक
आख्यान को छोड़ दें तो साहित्यिक कृति पर बनने वाली पहली फिल्म नरेश मित्र के
निर्देशन में देवदास थी, जो बांग्ला साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचंद के
उपन्यास देवदास का सिनेमाई रूपांतरण थी। किंतु हिंदी सिनेमा साहित्य की ओर उस समय
उन्मुख हुआ जब 1931 में ‘आर्देशिर ईरानी’ के निर्देशन में ‘आलमआरा’ का सफल
प्रदर्शन हुआ, जो भारत की पहली सवाक फिल्म मानी जाती है। यद्यपि जिस समय सिनेमा आम
जन-जीवन में दस्तक दे रहा था उस समय साहित्य में प्रगतिशील विषयों व विचारों का
दौर था। साहित्यकार समाजवादी और पूँजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अपनी
लेखनी के माध्यम से आंदोलनरत थे। वे मजदूर, किसान, दलित और उपेक्षित जन को
मुख्यधारा में लाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे, जिसमें सिनेमा ने अपनी महत्वपूर्ण
भूमिका सिनेमा अदा की। अर्थात साहित्य और सिनेमा शीघ्र ही आम आदमी के जीवन का
दर्पण बन गए।
प्रारंभिक दौर में हिंदी साहित्यिक कृतियाँ
भारतीय सिनेमा से दूर रहीं, किंतु यह दूरी
ज्यादा दिनों तक नहीं रही आलमआरा के आने के महज 2 वर्ष बाद ही हिंदी के महान
कथा-शिल्पी ‘प्रेमचंद’ अपनी साहित्यिक कृतियों के साथ सिनेमा जगत में पदार्पण करते
हैं। यहीं से हिंदी सिनेमा और साहित्य के करीब आने की शुरुआत होती है। यह कहा जा
सकता है कि हिंदी साहित्यिक कृतियों के सिनेमाई पाठ की शुरुआत प्रेमचंद की
कहानियों से आरंभ होती है। सर्वप्रथम ‘अजंता मूवीटोन’ के निर्देशक ‘मोहन भावनानी’
के निर्देशन में प्रेमचंद की कहानी ‘मिल मजदूर’ का सिने-रूपांतरण ‘मजदूर’ नाम से
किया जाता है। प्रेमचंद की यह कहानी पूर्व लिखित या प्रकाशित नहीं थी बल्कि फ़िल्म
के लिए ही विशेष तौर पर लिखी थी। किंतु वे कोई बंधुवा लेखक नही थे जिस कारण वे
ज्यादा दिनों तक सिनेमा जगत में टिक नहीं सके। प्रेमचंद की मृत्यु के पश्चात इन के
लगभग इनके संपूर्ण उपन्यासों व कहानियों का सिनेमाई रूपांतरण होता है।
आजादी के बाद साहित्यिक कृतियों के
सिनेमाई पाठ का स्वर्ण युग प्रारंभ होता है। यह वह दौर था जब साहित्य और सिनेमा एक
साथ आम-जन को प्रभावित करते हैं। बांग्ला साहित्यकार ‘विभूतिनारायण बंदोपाध्याय’
की कृति ‘पथेर पांचाली’ (सत्यजीत राय) से लेकर हिंदी साहित्यकार ‘काशीनाथ सिंह’ के
‘काशी का अस्सी’ (चंद्रप्रकाश द्विवेदी) तक साहित्यिक कृतियों की एक लंबी सूची है
जिनका सिनेमाई रूपांतरण हुआ है। इनके साथ ही समानांतर सिनेमा के दौर में अनेक
निर्देशकों ने हिंदी साहित्यिक कृतियों पर बेहतर सिनेमा देने के प्रयास में अपनी
अभिरुचि व समझ से अच्छी फिल्मों का निर्माण किया है। इसमें मुक्तिबोध की कृति ‘सतह
से उठता आदमी’ जिस पर फिल्म निर्देशक मणिकौल ने 1981 में इसी नाम से फिल्म
निर्देशित कर मुक्तिबोध के संपूर्ण साहित्य को रुपहले पर्दे पर उतार दिया।
‘सतह से उठता आदमी’ के फिल्मांकन में
फिल्म निर्देशक ‘मणिकौल’ ने मुक्तिबोध की कविता, कहानी, डायरी का अद्भुत इस्तेमाल
करते हुए 1981 में इसी नाम से (सतह से उठता आदमी) फिल्म बनाते हैं। यह फिल्म
इन्होंने ‘इनफ्राकीनो फिल्म प्रोडक्शन’ द्वारा ‘मध्य प्रदेश कला परिषद’ के लिए
निर्मित की। वस्तुतः मुक्तिबोध के लेखन पर फिल्म ऐसे वातावरण की माँग करती है, जो
बौद्धिक हो! विचार मूलक हो! इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए मणिकौल ने इनके
मध्यवर्गीय त्रास पर विचार किया है, जिसमें इनकी कविताओं और कहानियों के माध्यम से
निम्न मध्यवर्गीय लेखक के अपने परिवेश की सतह से उठने के प्रयास और उसकी लगभग
अपरिहार्य विफलता पर जो चिंतन संभव किया है वह दुनिया की किसी और फिल्म में नहीं
है।
संदर्भित फिल्म ‘सतह से उठता आदमी’
अपने चरित्रों के अभ्यंतर यानी मनुष्य तत्व की ओर जाकर पहले उस प्रकृति की ओर
मुड़ती है जिससे मुक्तिबोध बार-बार तादात्म्य स्थापित किया होगा, मूक संवाद
स्थापित किया होगा, आत्म साक्षात्कार के क्षण कायम किए होंगे। मुक्तिबोध की
संवेदना को निम्न संवाद से स्पष्ट किया जा सकता है... “मुझे लगता है मन एक रहस्य
लोक हैं, उसमें अंधेरा है, अंधेरे में सीढ़ियाँ हैं, सबसे निचली सीढ़ी पानी में
डूबी हुई है। वहां अथाह काला जल है। इस अथाह काले जल से स्वयं को ही डर लगता है।
इस अथाह जल में कोई बैठा है। शायद वह मैं ही हूँ।” इस संवाद से पहले फ़िल्म
मुक्तिबोध इतिहास बोध का परिचय देती है जो इनकी कहानी में भी दृष्टव है ...”मुझे
लगता है भूमि के गर्भ में कोई प्राचीन सरोवर है, उसके किनारे पर डरावने घाट,
आतंकवादी मूर्तियाँ और रहस्यपूर्ण गर्भकक्षों वाले पुराने मंदिर। इतिहास ने इन
सबको दबा दिया है। मिट्टी की तह पर तह चट्टानों पर चट्टानें छा गयीं हैं। सारा दृश्य
भूमि में पड़ गया है और...और इन्हीं बगलों में रहने लगा है मेरा मित्र केशव, जिसने
शायद पिछले जन्म इसी गर्भस्थ सरोवर का जल पिया होगा! वहाँ विचरण किया होगा।”
मुक्तिबोध के साहित्य का यह महत्वपूर्ण भाग है जो छूट जाता तो शायद फिल्म को भारी
क्षति पहुँचती।
फिल्म के नायकों का चरित्र-चित्रण भी
मुक्तिबोध के कथानुरूप है। प्रधान पात्र वही हैं जो मुक्तिबोध के कहानी के हैं।
प्रधान चरित्रों में रमेश, केशव और माधव तथा गौण पात्रों में रामस्वरूप, तिवारी,
रामनारायण व श्यामला है। यह पात्र आधार सामग्री के रूप में किसी कहानी या निबंध के
चरित्र नहीं रह जाते रुपहले पर्दे पर सांकेतिक अभिव्यक्ति का माध्यम जितने रमेश और
माधव बने हैं उतना केशव नहीं। किंतु सांकेतिक संदर्भ में केशव जहाँ आता है वहाँ
उसकी अपनी पहचान कायम रहती है। रमेश, केशव व माधव जागरूक पुरुष हैं, विचारक हैं,
प्रतिबद्ध है, समाज के प्रति इसीलिए उनकी निजी परिस्थितियाँ उन पर हावी नहीं है।
कहानी और फिल्म दोनों माध्यमों से इसके गौण पात्र तिवारी का आत्मविरोध व उसकी छद्म
में बुद्धिजीवी, रामनारायण और उसका घंटा बने कृष्णस्वरूप व उस जैसे युवकों का
उद्देश्य किस तरह स्खलित होता है स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। फिल्मकार केशव,
माधव और खास तौर से रमेश के जीवन की घटनाओं, प्रसंगों को व्यक्तिगत नहीं रहने
देता। वह बार-बार हमारा ध्यान उनकी ओर से समाज की ओर ले जाता है। मुक्तिबोध की
दिनचर्या सहित हम रमेश में मुक्तिबोध की छाया देखतें हैं।
संदर्भित फिल्म की इसी भाषा में
मुसलमान चरित्र के रूप में आए एक व्यक्ति के बारे में फिल्म के आलेख में द्रष्टव्य
है- “एक बुजुर्ग और बेकसूर, चेहरा भोला, चेहरे पर सफेद रेशमी दाढ़ी, सिर पर काली टोपी, टोपी के बाहर
झूलते काले बाल, सफेद कुर्ता और कंधे पर चार खाने का रुमाल! यह मौलवी है।” सतह से
उठता आदमी फिल्म के इसी छाया क्रम में सैयद होटल का भी जिक्र आता है, जिसके माध्यम
से मुक्तिबोध और मणिकौल दोनों स्पष्ट करते हैं कि ‘असुरक्षा की आशंका ने मुसलमानों
को न जाने कितने स्तरों में बाँट रखा है।’
मुक्तिबोध की ‘कला के तीन क्षण’
की अवधारणा को भी मणिकौल फिल्म में वैसे ही आरंभ करते हैं जैसे दो मित्रों के बीच
कोई साधारण सी बात कभी भी आरंभ हो सकती है और यह बात रमेश और केशव के बीच खाना
खाते वक्त आरंभ होती है, जब रमेश कहता है मेरे ख्याल से महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘कला
के तीन क्षण, होते हैं- ‘पहला क्षण जीवन का उत्कट अनुभव, दूसरा क्षण
अनुभव का अपने कसकते दुखते मूलों से पृथक
हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो फैंटेसी अभी आंखों के सामने
खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस शब्द बध्द होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस
प्रक्रिया की परिपूर्ण अवस्था तक की गतिमयता।’
अंततः कह सकते हैं कि सतह से उठता
आदमी फिल्म का जैसा कथ्य है वैसा ही कैथार्सिस है। वैचारिक स्तर का इसमें तीसरा क्षण, एक लंबी
कविता का लेख अंधेरे में, एक चौड़े टीले पर (कविताएँ) जिंदगी की कतरन, पंक्षी और
दीमक, सतह से उठता आदमी और चाबुक एक ही प्रवाह में आ गए हैं। मणिकौल ने फिल्म को
शब्दों के दृश्याकरण से हटाकर गूढ़तम विचारों और अनुभूतियों का माध्यम बनाने के
प्रयास में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है।
संदर्भ-
1. मुक्तिबोध, गजानन माधव, (2014). सतह से उठता आदमी : नई दिल्ली, भारतीय
ज्ञानपीठ
2.
कुमार, हरीश, सिनेमा और साहित्य :
नई दिल्ली, संजय प्रकाशन
3.
पारिख, जवरीमल्ल, हिंदी सिनेमा का
समाजशास्त्र : नई दिल्ली, श्याम बिहारी राय ग्रंथ शिल्पी
4.
मृत्युंजय, हिंदी सिनेमा का सच :
कलकत्ता, समकालीन सृजन
5.
बिसरिया, पुनीत, हिंदी सिनेमा का
सफरनामा : नई दिल्ली, एटलांटिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर
6.
सहगल, डॉ० राजेन्द्र, सिनेमा वक्त के
आइने में : नई दिल्ली, संजय प्रकाशन.
7.
श्रीवास्तव, संजीव, हिंदी सिनेमा का इतिहास : नई दिल्ली, प्रकाशन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय
8.
मंडलोई, लीलाधर (जनवरी-2017), नया
ज्ञानोदय, नई दिल्ली
9.
यादव, राजेन्द्र (फरवरी- 2013), हंस
: नई दिल्ली अक्षर प्रकाशन
10.
सिंह, कुसुमलता (जनवरी-2017), परिंदे
: नई दिल्ली, परिंदे प्रकाशन
कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’
पीएच.डी. शोधछात्र
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय,
वल्लभ विद्यानगर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें