शनिवार, 11 सितंबर 2021

परिचय

 



(125 वीं जन्म जयंती)

गुजरात के मेधावी मेघाणी : जीवन और लेखन

रजनीकुमार जयंतीभाई परमार

 

अपने आप को मैं पहाड़ का बालक हूँ ऐसा कहने वाले झवेरचंद कालिदास मेघाणी का जन्म २८ अगस्त, १८९६ में सौराष्ट्र के चोटिला नामक गाँव में वणिक परिवार में हुआ था। मूल वतन बगसरा। मेघाणीजी की प्राथमिक-उच्चत्तम शिक्षा राजकोट, बगसरा, अमरेली जैसे सौराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई। यह शिक्षा मेघाणीजी ने घर से बाहर रह कर ली थी। छुट्टियों में जब वे अपने घर आते तब परिवार के साथ सौराष्ट्र के चौक, दाठा, चमारडी जैसे गीर क्षेत्रों में पहाड़ों और नदी वाले विस्तार में रहने का अवसर पाते। वही से मेघाणीजी विशेष तौरपर वनप्रकृति और जनप्रकृति के संपर्क मे आए। सन् १९१२ में मैट्रिक और १९१६ में अंग्रेजी-संस्कृत के साथ बी.ए. हुए। भावनगर की सनातनधर्म स्कूल में शिक्षक रहे। घर की कठिन परिस्थिति को संभालने के लिए अभ्यास छोडकर कोलकत्ता चले गए। वहाँ जीवनलाल की एल्यूमिनियम कंपनी में मंत्री के पद पर कार्य किया। बंगाली साहित्य-रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रभाव में आये। कंपनी के सहयोग के बल पर इंग्लैंड का प्रवास कर आये। पर कोलकत्ता छोड़कर सन् १९२१ में वापस सौराष्ट्र चले आये।

          अपने वतन बगसरा में रहे। दिशाशून्य थे। इन दिनों में हडाला के साहित्यप्रेमी वाजसूरवाला के परिचय में आये। उनके संस्पर्श से लोकसाहित्य के प्रति रुचि दृढ़ बनती चली और मेघाणीजी की कलम चलने लगी। मेघाणी जी ने सौराष्ट्र के लोकसाहित्य पर संशोधन आलेख तैयार किया। उचित लेखन के कारण उनको अमृतलाल शेठ के सौराष्ट्र नामक साप्ताहिक के तंत्रिमंडल में स्थान मिला। इस तरह उनकी कलम को पंख मिले और ऐसे ही लोकसाहित्य संशोधन-सम्पादन के साथ गुजराती साहित्यसर्जन भी लगातार चलता रहा। सन् १९२६ मे सौराष्ट्र साप्ताहिक में से निवृत्ति ली। सन् १९२८ में लोकसाहित्य संशोधन-सम्पादन के उनके उच्चतम कार्य को रणजितराम सुवर्णपदक से नवाजा गया।

          सन् १९३० के स्वतंत्रता संग्राम में मेघाणी जी का साहित्यिक हस्तक्षेप सविशेष रहा। बरवाला, राणपुर, धोलेरा जैसे सौराष्ट्र के क्षेत्रों पर नए स्वयं सेवकों को राष्ट्र के प्रति जाग्रत करने के लिए युद्धाभ्यासवर्ग चलते थे। मेघाणीजी वहाँ जाकर देश के जवानों को अपनी कविता का पठन-गान करके उन सभी में जोश कायम रखने का कार्य करते रहे। मेघाणी जी कहीं भी कोई आंदोलन-लड़त-रेली में सदेह दिखे नहीं पर उनकी कलम दूसरों को आंदोलन-लड़त-रेली के लिए तैयार करने का कार्य अवश्य करती थी। मेघाणीजी का स्वतंत्रता-संग्राम में रहा यह साहित्यकर्म अंग्रेज सरकार को काँटे की तरह चुभता था पर वो कुछ कर नहीं पाते थे। पर एक बार हुआ ऐसा कि २५ मार्च १९३० में मनुभाई जोधाणीने बरवाला में लोगों को अंग्रेज सरकार के कार्यों का पर्दाफाश करता हुआ सम्बोधन किया था। नाम की समानता के बहाने अंग्रेज सरकार ने जोधाणी के बजाय मेघाणीजी को गिरफ्तार कर लिया। धंधुका की अदालत में न्यायधीश पी. इसाणीने वोरंट जारी किया। बरवाला के हेड कॉन्स्टेबलने बयान दिया की २५ मार्च १९३० के दिन मेघाणीने करकारी क्षेत्र के बरवाला में नमक का कानून को लेकर लोगों को सरकार विरुद्ध बातें की है। मेघाणी ने सरकार का आभार मानते हुए इतना ही कहा कि जिस दिन की बात की जा रही हैं उस दिन में राणपुर के अपने घर में सो रहा था।मेघाणीजी ने कोई सबूत न देते हुए पी. इसाणी के द्वारा फरमाया गया दो साल की जेल का स्वीकार कर लिया। उनको साबरमती जेल में रक्खा गया। गांधीजी-इरविन समझौत के तहत सभी स्वतंत्रता संग्राम के कैदियों को मुक्ति मिली उसमें दस मास के अंदर मेघाणीजी की भी रिहाई हो गई।

          जेल से छूटने के बाद(मार्च, १९३१) कुछ महीने तक सौराष्ट्र साप्ताहिक में कार्य करते रहे। ७ सितम्बर १९३१ में होने वाली दूसरी गोलमेजी परिषद में गांधीजी जा रहे थे तब मेघाणी जी ने गांधीजी के लिए छेल्लो कटोरोनामक गुजराती विदाई गीत लिख कर भेजा था। गांधीजी यह काव्य को पढ़कर आनंदित हुए और महादेवभाई देसाई को कहेने लगे की ‘‘यह कवि हमारे साथ नहीं रहा फिर थी देश के प्रति मेरा जो संवेदन है इसका उन्हें पूरा परिचय है। वास्तव में झवेरचंद मेघाणी राष्ट्रीय शायर हैं।’’ इस तरह मेघाणी जी को राष्ट्रीय शायर की उपाधि मिली। यही राष्ट्रीय शायर माने जो समग्र राष्ट्र का कवि हैं, पंडित हैं वह।

          सौराष्ट्र साप्ताहिक बंध होने के बाद १९३२ मेघाणी जी ने फुलछाब वर्तमानपत्र में कार्य करना शूरू किया। ७ अप्रैल, १९३३ के दिन ने मेघाणी जी का दिल दहला दिया। १९२२ में जिनके साथ विवाह किया था वह दमयंतीबहन ने अग्निस्नान करके आत्महत्या कर ली। मेघाणीजी के जीवन की नींव ही हिल गई। अनेकों विडंबनाओ के साथ बंबई चले गए। वहाँ रबीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ मुलाकात हुई। शांति निकेतन आने का निमंत्रण भी पाया।

          १९३४ में बंबई से जन्मभूमि दैनिक शुरू हुआ उसके तंत्रीमण्डल में रहे और कलम अने किताब(कलम और किताब) नामक कॉलम से लिखने लगे। इसी साल में बंबई-स्थित नेपाल के चित्रादेवी के साथ परिचय हुआ और उसके साथ दूसरी शादी कर ली। सन् १९३६ में फुलछाब बंध होने वाला था तब मेघाणीजी बंबई छोड़कर राणपुर आ गए और फुलछाब का तंत्रीपद संभाल लिया। सन् १९४१ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निमंत्रण को मान देते हुए शांतिनिकेतन गए। वहाँ सैकड़ों विद्यार्थी-आचार्यों को लोकसाहित्य की बातें कहकर मंत्रमुग्ध कर दिया। सन् १९४३ में लोकसाहित्य के विषय पर बंबई यूनिवर्सिटी में ठक्कर वसन्जी माधवजी व्याख्यानमाला के अंतर्गत पाँच व्याख्यान दिए थे तब विशाल खंड में लोगों को बैठने की जगह कम पडी थी। कई लोगों ने मेघाणी जी को सुनने के लिए खिड़कियों के काँच तक तोड़ दिए थे।

          २३ साल के सुदीर्घ पत्रकारत्व के बाद सन् १९४५ में मेघाणीजी ने फुलछाब में से भी इस्तिफा दे दिया। साहित्यिक प्रवृत्तियाँ चलती रही। सन् १९४६ में राजकोट में हुए गुजराती साहित्य परिषद के १६ वें अधिवेशन में साहित्य विभाग के प्रमुख रहकर प्रवचन दिया था। इसी साल में ही उनकी रविशंकर महाराज के जीवन को कहानी में प्रस्तुत करती हुई पुस्तक मणसाईना दीवा को १९४६ की साल के श्रेष्ठ पुस्तक का महिडा पारितोषिक मिला। भारत माँ को आजाद होने में अब कुछ महीने ही बाकी रह गए हैं तब ९ मार्च, १९४७ में माँ भारती का यह संतान दिल का दौरा पड़ने के कारण कायम के लिए मातृभूमि की गोद(बोटाद) में सो गया।

          कविता, कहानी, उपन्यास, विवेचन आदि साहित्य स्वरूपों में कलम चलाने वाले मेघाणी जी का चिरंजीव प्रदान लोकसाहित्य में ही रहा हैं। उनके पहले भी लोकसाहित्य की सामग्री का चयन हुआ था पर मेघाणी जी ने इस कार्य में अपनी जान ही डाल दी। इसीलिए लोकसाहित्य और मेघाणीजी अभी भी अभिन्न लगते हैं। लोकसाहित्यक्षेत्र में उनकी लगातार कार्यसाधना के परिणाम स्वरूप १६ लोककथा संग्रह, १० लोकगीत संग्रह और ५ लोकसाहित्य के विवेचनग्रंथ हमको मिले हैं। मेघाणीजी के इस प्रयास से सौराष्ट्रक्षेत्र की लोकसामग्री चिरकाल तक जीवंत हो चुकी है।

          लोकसाहित्य संशोधन-सम्पादन के साथ मेघाणी जी की साहित्ययात्रा भी आगे बढ़ती रही हैं। वेणीना फूल’, ‘किल्लोल’, ‘युगवंदनाजैसे ६ काव्यसंग्रह; ‘सत्यनी शोधमाँ’, ‘सोरठ, तारा वाहेतां पाणी’, ‘वेविशा’, ‘गुजरातनो जय’, ‘तुलसी क्यारोजैसे १४ उपन्यास; ‘दरियापारना बहारवटिया’, ‘माणसाईना दीवाजैसे ८ कहानीसंग्रह, ४ नाटकसंचय, ९ जीवनकथन, ३ आत्मकथन, ६ इतिहासग्रंथ, २ प्रवासग्रंथ और साहित्य विवेचन के ५ ग्रंथ मिलते हैं। ऐसे ही मेघाणीजी का लोकसाहित्य एवं साहित्यिक प्रदान ८८ ग्रंथ की संख्या तक पहुँचता हैं। इन ग्रंथों  में बंगाली या अन्य भाषा की रचनाओं का अनुवाद एवं अनुकरणात्मक रचनाएँ भी शामिल है।

          मेघाणी जी भौगोलिक तौर पर सौराष्ट्र और साहित्यिक प्रवृत्ति में गांधीयुग के प्रभाव पाकर आगे बढ़े हैं। उसी के कारण उनका लेखन क्लिष्ट ना बनकर सभी लोगों का बना रहा। उनके साहित्य में व्यक्ति, प्रकृति, संस्कृति का वास्तविक रूप दिखाई देता है जो वाचक को अपनी ही बात यहाँ पर हुई है ऐसा अहसास कराता है। लोकसाहित्य की सामग्री जहाँ से एकत्र की उसी ही समाज को संपादित करके वापस दी तब अज्ञात वर्ग को अपनी ही संस्कृति का परिचय होने के कारण उनका जीवन दृष्टिकोण बदल जाता है। मेघाणी जी के साहित्य की बड़ी खासियत यह हैं की उनके साहित्य के द्वारा शिक्षित-अशिक्षितों के बीच रहे भेदों को मिटाने का कार्य हुआ है। उच्च-निम्न का ख्याल हटकर सब लोग एकजुट हो कर चले ऐसी समरसता लोगों में आ बसी। मेघाणी जी की लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि वह लोगों के दिल की बात को कलम की ताकत देकर फिर उन लोगों के पास ही ले जाते थे। इस तरह लोगों के हृदय तक पहुँचने वाले राष्ट्रकवि को मेरा शत-शत प्रणाम।

 


रजनीकुमार जयंतीभाई परमार

रिचर्च फेलो

गुजराती विभाग,

सरदार पटेल विश्वविद्यालय,

वल्लभ विद्यानगर

    

 

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