सरहद के पार : हिन्दी हाइकुकार
डॉ. पूर्वा शर्मा
कोई भी सरहद साहित्य अथवा साहित्य के प्रति प्रेम को बाँधकर
नहीं रख सकती। यह बात भारतीय प्रवासी साहित्यकारों ने सिद्ध की है। हिन्दी साहित्य
में बहुत से ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अपने देश की मिट्टी से दूर रहकर भी, हिन्दी
में उत्कृष्ट साहित्य रचना कर, साहित्य में अपना योगदान दिया है। निर्मल वर्मा, तेजेंद्र शर्मा, उषा
प्रियंवदा, पूर्णिमा वर्मन, दिव्या माथुर आदि बहुत से ऐसे प्रवासी साहित्यकार है, जिन्होंने उच्च कोटि की रचनाओं का सृजन करके हिन्दी
साहित्य को समृद्ध बनाया है। कविता हो या कहानी या फिर उपन्यास, साहित्य की सभी
विधाओं पर प्रवासी साहित्यकारों ने अपनी लेखनी चलाकर अपना बहुमूल्य योगदान दिया है।
आज हिन्दी-हाइकु काव्य भी एक प्रतिष्ठित विधा के रूप में लोगों के दिलों को छू रहा
है और इस काव्य को समृद्ध बनाने में प्रवासी हाइकुकारों का भी बहुत योगदान रहा है।
गत कुछ वर्षों में जापान से आयातित इस नन्हें काव्य हाइकु ने, हिन्दी
साहित्य में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। विश्व की कई भाषाओं में हाइकु काव्य सृजन
हो रहा है। हिन्दी में हाइकु काव्य काफी फल-फूल रहा है। हाइकु एक त्रिपदी काव्य है
जिसमें ५-७-५ वर्णक्रम का निर्वाह होता है। हाइकु को समृद्ध बनाने में कई हाइकुकारों
का योगदान रहा है, लेकिन कुछ ऐसे प्रवासी हाइकुकार है जिन्होंने अपने वतन से दूर
रहकर भी साहित्य को अपने दिल से दूर नहीं होने दिया। इनके हाइकु हमें उपहार स्वरूप
प्राप्त होते रहे हैं।
हाइकु के नाम पर कुछ लोगों ने तीन पंक्ति में अर्थहीन सपाट
बयानी को परोसा है, जिसमें कहीं-कहीं तो ५-७-५ वर्णक्रम का निर्वाह भी नहीं हो रहा
और यदि कहीं हो भी रहा है तो उसमें काव्यत्व की कमी है। कद की दृष्टि से हाइकु एक
नन्हीं विधा जरूर है लेकिन इसका सृजन कोई आसान काम नहीं है। नन्हा-सा दिखने वाला
हाइकु भावों, कल्पना और विचारों की अभिव्यक्ति में किसी बड़ी रचना से कम नहीं है।
लेकिन इस नन्हें-से हाइकु में प्राण फूँक देने वाले हाइकुकारों की संख्या कम है। ऐसे
कुछ प्रवासी हाइकुकारों में एक नाम है - डॉ. भावना कुँअर। ऑस्ट्रेलिया (सिडनी) में निवासित भावना जी
एक ऐसी हाइकुकार है जिनका पहला हाइकु-संग्रह ‘तारों की चूनर’(२००७ में प्रकाशित) पाठकों
द्वारा बहुत प्रशंसा बटोरकर ले गया। ‘तारों की चूनर’ एक श्रेष्ठ कृति सिद्ध हुई और
इनका दूसरा हाइकु-संग्रह ‘धूप के खरगोश’ (२०१२ में प्रकाशित) है। भावना जी के
हाइकु की भाषा तो सशक्त है ही, साथ ही प्रकृति-चित्रण और मानव मन के अन्तःकरण में फलीभूत
होने वाले विभिन्न भावों का चित्रण भी अप्रतीम है। १७ वर्णीय लघु हाइकु में किसी
बड़ी कविता का-सा एहसास इनके हाइकु में झलकता है। भावना जी के हाइकु को पढ़ते ही
पाठक का हृदय भावों की चाशनी में डूबकर गोते लगाता नज़र आने लगता है, यथा –
दुल्हन झील / तारों की चूनर / घूँघट काढ़े। - डॉ. भावना कुँअर
२०१३ में एक और सशक्त हाइकुकार डॉ. हरदीप कौर सन्धु जी का हाइकु
संग्रह ‘ख़्वाबों की खुशबू’ प्रकाशित हुआ। भावना जी की तरह हरदीप जी भी ऑस्ट्रेलिया
(सिडनी) में निवासित है। हरदीप जी ने
हिन्दी और पंजाबी दोनों भाषाओं में हाइकु सृजन किया है। हिन्दी हाइकु के
पंजाबी अनुवाद इनकी विशेष उपलब्धि है। डॉ. सुधा गुप्ता जी के एक हिन्दी हाइकु का
पंजाबी अनुवाद देखिए –
“रात होते ही / कोहरे से लिपट / सोया शहर। - डॉ. सुधा
गुप्ता
रात हुंदियाँ /
कोहरे ‘च लिपट / सुत्ता शहर।”१ (अनुवाद : डॉ. हरदीप कौर सन्धु )
उपर्युक्त हाइकु का पंजाबी अनुवाद मूल जैसा ही प्रतीत होता
है। अपने मौलिक हाइकु में हरदीप जी ने भावों को बड़ी ही सहजता एवं सादगी से
प्रस्तुत किया है। ‘ख़्वाबों की ख़ुशबू’ में हरदीप जी ने जीवन के हर रंग प्रस्तुत
करने के साथ भारतीय संस्कृति एवं ग्रामीण सभ्यता को को बहुत सुन्दर चित्रित किया
है। यथा –
कात रे मन / संसार त्रिंजण में / मोह का धागा। - डॉ. हरदीप कौर सन्धु
(त्रिंजण - सामूहिक रूप से चर्खा कातने वाली लड़कियों की टोली को ‘त्रिंजण’
कहा जाता था। इस तरह के सांस्कृतिक शब्दों के अर्थ और मूल्य को हम शहरीकरण में
खोकर भूलते जा रहे हैं।)
प्रवासी हाइकुकारों की श्रेणी में एक और नाम जुड़ा है - रचना
श्रीवास्तव। ‘मन के द्वार हज़ार’ (२०१३ में प्रकाशित) शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक
में केलिफोर्निया निवासित रचना जी ने ३४ हाइकुकारों के ५४२ हाइकु अवधी में अनूदित
कर इतिहास रचा है। यथा -
“कुतर रहे /देश का संविधान/ संसदी चूहे। - डॉ. भगवतशरण
अग्रवाल
कुतरत बा / देस कै संबिधान / संसदी मूस।”२ - (अवधी अनुवाद : रचना श्रीवास्तव )
अवधी में अनूदित सभी हाइकु अपने मूल भाव को ज्यों का त्यों
रखने में समर्थ हुए है। रचना जी ने अनुवाद करते हुए हाइकु के शिल्प को भी सुरक्षित
रखा है। रचना जी का मौलिक हाइकु संग्रह ‘भोर की मुस्कान’ २०१४ में प्रकाशित हुआ। इनके हाइकु सहज अनुभूति को व्यक्त करते हैं। ‘भोर
की मुस्कान’ में आकर्षक विषय-वैविध्य के साथ शिल्प-पक्ष भी सशक्त है।
लक्षणा शब्द शक्ति का एक उदाहरण प्रस्तुत है –
मुड़ा पड़ा था / जंग लगे बक्से में / पुराना वक्त। - रचना
श्रीवास्तव
रचना जी के बारे में डॉ. सुधा गुप्ता कहती है - “संवेदनशील
हाइकुकारों के रूप में तेजी से उभरता एक नाम - रचना श्रीवास्तव। कई जापानी
काव्य-विधाओं में सृजन, हाइकु विशेष प्रिय। रचना का हाइकु संसार एक ‘सम्पूर्ण
स्त्री’का ऐसा संसार है, जिसमें गृहस्थ जीवन, परिवार की खुशबू, रिश्तों की ऊष्मा
और सहज स्वाभाविक प्रेम की उच्छल तरंगें विछालती रहती हैं। विषय-वैविध्य आकर्षक है।
प्रकृति की नाना छवियाँ सँजोई गई हैं। रचना की शब्द चयन क्षमता श्लाघ्य है।”३
कृष्णा वर्मा जी का नाम भी इन प्रवासी हाइकुकारों की श्रेणी
में है। कृष्णा जी का प्रथम हाइकु संग्रह ‘अम्बर बाँचे पाती’ २०१४ में प्रकाशित
हुआ। कृष्णा जी के हाइकु में भारत एवं कैनेडा, दोनों ही स्थानों का प्राकृतिक
सौन्दर्य दृष्टिगत होता है। डॉ. सुधा गुप्ता जी कहती है – “इनके हाइकु में ताज़गी
है, ‘एहसास’की धरती पर अंकुरित, आँखों देखे यथार्थ का अंकन प्रभावी है, प्रकृति से
जुड़ाव और मौलिक उद्भावनाओं के प्रसूत बिम्ब मनोहारी हैं ।” ४ मानवीकरण
का एक सुन्दर उदाहरण देखिए -
खेलें सितारे / नदिया की छाती पे / आँख-मिचौनी। - कृष्णा
वर्मा
किसी भी साहित्यकार को परदेस में अपने देश की याद रह-रहकर
सताती है। यह बात इन सभी हाइकुकारों के
काव्य में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। अपने देश की मिट्टी की ख़ुशबू इन हाइकुकारों
को बार-बार अपनी ओर आकृष्ट करती है। भले ही देश से दूर परदेश में बसे हैं लेकिन आज
भी वे अपने गाँव और वहाँ व्यतीत किये गये हर पल को भूल नहीं पाये हैं। ये अतीत की
स्मृतियाँ परदेस में मीठी याद बनकर इनके साथ रहती है और इन्हें सुकून देती है। ग्राम्य
जीवन का वर्णन और वहाँ पर होने वाली विविध गतिविधियाँ जैसे- गाँव में नानी, दादी
और तमाम रिश्तेदारों के संग समय बिताना, वहाँ पर प्रचलित रीती-रिवाज़, लोक नृत्य,
खेल आदि ,कुएँ का मीठा पानी, चूल्हें पर बने
खाने का स्वाद, मटके का ठंडा पानी, पीपल के नीचे डेरा जमाते बाबा, बड़ा
परिवार, लस्सी और मठरी का स्वाद एवं बचपन की मीठी-मीठी स्मृतियाँ आदि को
हाइकुकारों ने अपने हाइकु में व्यक्त किया है। यथा -
नीम की छाँव / मीठे कुएँ का पानी / वो मेरा गाँव। -
डॉ. भावना कुँअर
गाँव से आया / ख़त में गूँथकर / रंगीला प्यार। - हरदीप कौर सन्धु
हरदीप जी के ‘ख़्वाबों की ख़ुशबू’ संग्रह में ‘गाँव वो मेरा’
शीर्षक के सभी हाइकु में ग्राम्य जीवन का वर्णन बहुत ही गहराई और सूक्ष्मता से
किया गया है। इनके हाइकु इतने सुन्दर बन पड़े हैं कि पढ़ते-पढ़ते पाठक गाँव की सैर पर
निकल जाते है। डॉ. भावना कुँवर ने लिखा है – “इनके इस संग्रह में गाँव की मिट्टी
की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू बसी है। संस्कारों की नदी बह रही है और मधुर यादें, जो कहीं
संदूक में बंद पड़ी दिखती हैं, तो कहीं हवा का झोंका बन सामने आ खड़ी होती हैं।”५
गाँव की ये मधुर स्मृतियाँ हरदीप जी
को अपनी ओर खींच रही है, यथा –
पीपल नीचे / खीचें चक्र खेलते / वे डण्डा डुक।
दादी बनाती /जोड़-जोड़ उपले / बड़ा गुहरा। - डॉ.
हरदीप कौर सन्धु
ऐसा प्रतीत होता है कि भावना जी ने ग्रामीण जीवन को बहुत
नज़दीक से देखा है , गाँव की याद उन्हें भी बहुत सताती है। ग्राम्य जीवन उन्हें
बहुत लुभाता है। यथा -
होलों के गुच्छे / भून-भून के खाना / बीता ज़माना।
गाँव की छत / नर्म धूप-बिछौना / खेतों में सोना।- डॉ. भावना
कुँअर
लेकिन आज फिर से गाँव जाकर वह पुराना गाँव नज़र नहीं आ रहा
है। शहरीकरण ने इस प्यारे से गाँव में होने वाली गतिविधियों को समाप्त कर दिया है।
अब पीपल ने नीचे डेरा ज़माने वाले बाबा दिखाई नहीं देते और कलई करते हुए ठठेरा भी
दिखाई नहीं दे रहा है। पानी की कमी के कारण मटके भी खाली पड़े हैं। यथा -
गाँव जाकर / मुझे मिला नहीं / गाँव जो मेरा।
बूँद-बूँद को/ तरसा अब प्यासा/ मटका तेरा। - डॉ. हरदीप कौर सन्धु
पगडंडियाँ / तरस रही अब / पदचिह्नों को। - डॉ. भावना कुँअर
प्रकृति चित्रण हमेशा से ही हाइकु काव्य का प्रिय विषय रहा
है। प्रकृति के मनोहारी रूप का वर्णन इन सभी हाइकुकारों ने बड़ी सुन्दरता से किया है।
कहीं मानवीकरण है तो कहीं मनोहारी बिम्बों द्वारा प्रकृति का चित्रांकन, तो कहीं प्रतीकात्मक
शैली और कहीं प्रकृति की संपदाओं का आलाम्बंगत वर्णन, ये सभी रूप हाइकुओं में
दिखाई देते हैं। प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण कर इन हाइकुकारों ने प्रभावशाली
चित्र उकेरकर सजीव हाइकु रचे हैं। यथा –
पत्तों के कानों / हवा फुसफुसाए / लोक व्यथाएँ। - कृष्णा
वर्मा
घटा घूमती/ यूँ घाघरा उठाए / जमीं चूमती। - डॉ. हरदीप कौर सन्धु
ग्रीष्म, शीत , बसंत आदि ऋतुओं एवं सुबह साँझ के वर्णन, नदी
आकाश का वर्णन प्रकृति के अद्भूत सौन्दर्य को प्रस्तुत करता है। प्रकृति के नाना-रूपों
का वर्णन हाइकु में सजीवता के साथ दिखाई देता है।
रंग पोटली / हाथ से ज्यूँ फिसली / बनी तितली । - डॉ. भावना कुँअर
सुबह होते / पत्तों के हाथ मेहँदी / ओस रचाती। - डॉ. हरदीप कौर सन्धु
वर्षा पहने / बूँदों सजा लहँगा / मटक चले। - रचना
श्रीवास्तव
ओढ़ बैठी है / कोहरे की चादर / शाम सुहानी। - डॉ. भावना कुँअर
अमलतास, टेसू,
कचनार, गुलाब, गुलमोहर,पलाश आदि विभिन्न फूलों को इन हाइकुकारों ने बड़ी ही कुशलता
के साथ हाइकु रूपी माला में पिरोकर सुशोभित किया है। यथा –
टेसू का छौना / नारंगी झबले में / लगे सलोना। -
कृष्णा वर्मा
नहा रही / कचनार-गंध से / आज चाँदनी।- डॉ. भावना कुँअर
भटका मन / गुमोहर वन /बन हिरन।- डॉ. भावना कुँअर
भावना जी हाइकु बाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति दोनों को
प्रस्तुत करते हैं। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी ने भावना जी के हाइकु के बारे
में कहा है – “इनके हाइकुओं का फलक बहुत व्यापक है। उसका एक सिरा अगर बाह्य
प्रकृति है तो दूसरा नाज़ुक छोर उथल-पुथल से साक्षात्कार करती अन्तः प्रकृति तक की
यात्रा पूरी करता है। समाज के प्रति संवेदनशीलता उस यात्रा का आत्म-तत्त्व है।
भावों की मसृणता अभिव्यक्ति की सहजता इनके हाइकुओं में देखते ही बनती है।” ६
बारिश न होने के कारण सूखे की स्थिति का समाना करना सभी
हाइकुकारों के हाइकु में दृष्टिगत हुआ है। सांकेतिक और लाक्षणिक शैली में कितनी
सुन्दरता से इस बात को प्रस्तुत किया है। यथा -
सूखने लगे / खलिहानों के होंठ / बरसो मेघ। - डॉ. भावना कुँअर
शुष्क हुए हैं / बादलों के अधर / वन लापता। - कृष्णा वर्मा
चटकी झील / गरीब के पैरों में / जैसे बिवाई। - रचना
श्रीवास्तव
चूँकि ये प्रवासी हाइकुकार हैं तो इनके हाइकु में कहीं-कहीं
प्रवासी देश की ऋतुओं का वर्णन भी दिखाई देता है। भारत में सभी स्थानों पर हिमपात
नहीं होता, लेकिन कैनेडा और अमेरिका जैसे देशों में हिमपात और बेहद ठण्ड का अनुभव एक
आम बात है। शीत लहर के चलने पर नन्हें
पंछी शाखों की ओट में दुबक गये हैं और हिम, आभूषण की तरह वन को सजा रहा है। ऐसा लग
रहा है हिम ठुमक-ठुमक कर इन बर्फीली घाटियों की गोद में उतर रहा हो। यथा –
गिरती बर्फ / शुभ्र श्वेत दुशाला / ओढ़ती धरा। - डॉ. हरदीप
कौर सन्धु
हिम यूँ झड़ी / शाख-शाख लिपटी / माणिक लड़ी। - कृष्णा वर्मा
प्रकृति को देखने का सभी का अपना नजरिया होता है। यहाँ पर
प्रस्तुत सभी हाइकु में रचनाकारों ने एक अलग ही तरीके से प्रकृति को अनुभव करके
अपने हाइकु में अभिव्यक्त करने की सफल प्रयास किया है। साहित्य में प्रकृति का
शुद्ध रूप से चित्रण बहुत कम रचनाकार कर पाये हैं और यदि हाइकु काव्य की बात करे
तो डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. शैल रस्तोगी, नलिनीकांत, नीलमेंदु
सागर आदि कुछ ऐसे पुरोधा हाइकुकार हैं, जिन्होंने सहजता से प्रकृति चित्रण किया है
और प्रकृति को सफलतापूर्वक अपने काव्य का विषय बनाते हुए प्रकृति के सौन्दर्य में
चार-चाँद लगाए हैं। इन सभी प्रवासी हाइकुकारों ने भी इस श्रेणी में अपना
महत्त्वपूर्ण योगदान देकर खूबसूरत हाइकुओं का सृजन करने में सफलता प्राप्त की हैं।
सभी हाइकुकारों का मन प्रकृति चित्रण में खूब रमा है।
प्रकृति की सुन्दरता का वर्णन करने वाले ये सभी हाइकुकार आज प्रकृति को दूषित होते
हुए देखकर चिंतित है। पर्यावरण प्रदूषण आज एक वैश्विक स्तर की समस्या बन चुकी है। जंगलों
को काटते चले जाना और हर जगह पर कंक्रीट के नगर बसा देना एक गंभीर समस्या बन चुकी
है। आज जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और आकाशीय प्रदूषण
की समस्या से हम जूझ रहे हैं। इनकी वजह से पर्यावरण को तो नुकसान हो ही रहा है,
साथ में मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी इसका असर दिखाई दे रहा है। पर्यावरण प्रदूषण से
होने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से तो हम सभी परिचित है। हमारे हाइकुकारों ने
भी इसे एक गंभीर समस्या के रूप में देखा है। ये सभी हाइकुकार पर्यावरण प्रदूषण और
संरक्षण से ये भली-भाँति परिचित है। प्रकृति के सुन्दर रूप का वर्णन करने वाले इन हाइकुकारों
ने प्रकृति-प्रदूषण की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए कई हाइकु भी रचे हैं और
इसे चिंतनीय विषय को काव्य में प्रस्तुत किया है। जल प्रदूषण के कारण कई जलीय
जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ भी लुप्त होने की कगार पर है। आसमान में धुएँ के कारण होने
वाली परेशानियों से भी हम सभी अंजान नहीं है। भावना जी ने इस धुएँ को काले नाग की
उपमा देकर चिंता व्यक्त की है, यह धुआँ नाग की तरह फन फैलाएँ बैठा है और हमें डसने
को तैयार है, यथा -
आसमान में /काले सर्प-सा धुँआ / फन फैलाए। - डॉ.
भावना कुँअर
वायु प्रदूषण हम सभी के लिए बहुत हानिकारक है। यही नहीं
रचना जी को लगता है कि इस धुएँ और दूषित वायु के कारण सिर्फ मनुष्य एवं प्राणियों को
ही तकलीफ नहीं हो रही है वरन अब तो चाँद भी खाँस रहा है। यहाँ पर हाइकुकार ने इस समस्या
को सुन्दर काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, यथा -
दूषित हवा / पूरी रात खाँसता / बेचारा चाँद।
ज़हर धुआँ / चिमनी ने उगला / बंजर धरा।
दूषित हवा / पंछी को हुआ दमा/ झील कराहे। - रचना श्रीवास्तव
जंगलों के लगातार काटे जाने से पशु-पक्षियों की कई
प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही है और कई तो पहले ही लुप्त हो चुकी है। यदि ये वन
इसी तरह से साफ़ होते रहे तो ये पंछी अपना बसेरा कहाँ बनाएँगे ? वनों के नष्ट होने
से जैविक संतुलन भी बिगड़ता जा रहा है, साँस लेने वाली प्राणवायु ऑक्सीजन भी कम हो
रही है। ओज़ोन परत में छिन्द्र बढ़ता जा रहा है। वनों से प्राप्त होने वाली कई
बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ और वनस्पतियाँ भी नष्ट हो रही है। वनों के काटे जाने के कई
दुष्परिणाम हमें दिखाई दे रहे हैं। क्या हम ज्यादा सभ्य होने की दौड़ में यह भी
नहीं देख पा रहे हैं कि इस प्रकार प्रथम आकार भी पीछे रह गये हैं। यदि इसी प्रकार
से चलता रहा तो शायद सूखी नदियाँ सिर्फ नक़्शे में ही नज़र आएँगी। सूखी नदी और झरने
को देखकर कोई पंछी भी नहीं आएगा। हम इस सुन्दर धरा के आँचल को कचरे से भर रहे हैं।
हमें इसे रोकना होगा। -
कैसा उत्थान ?/ छीनते परिंदों से / नीड़ व गान।
पेड़ जो कटे / बने कहाँ घोंसला / टूटा हौंसला।- कृष्णा वर्मा
गंदला पानी / रो रहीं मछलियाँ / वो जाएँ कहाँ !
ओजोन छाता / धरा लिये है खड़ी / बची चमड़ी। - डॉ. हरदीप कौर
सन्धु
छीन ले गई / नीम की मीठी छाँव / क्रूर कुल्हाड़ी। - डॉ.
भावना कुँअर
यदि प्रकृति के दोहन को रोका नहीं गया तो हमें भविष्य में
बहुत ही तकलीफ होगी। हमें समय रहते अपनी इस सुन्दर धरती का बचाव करना होगा, नहीं
तो एक दिन शायद हमें साँस लेने के लिए प्राणवायु भी प्राप्त नहीं होगी। हमें इस
विनाश से प्रकृति को बचना होगा क्योंकि प्रकृति का विनाश मनुष्य का विनाश है।
होगा विनाश / छेड़ोगे प्रकृति को / अब तो चेतो।- रचना
श्रीवास्तव
रिश्तों के बिना हमारा जीवन बेरंग प्रतीत होगा, ये रिश्तें
ही हमारे जीवन में रंग भरते हैं। रिश्तों से ही प्रेम, भावनाएँ एवं संवेदनाएँ जुड़ी
हुई हैं। रिश्तों को बहुत संभालकर और संजोकर रखना पड़ता है। ये रिश्तें बहुत नाज़ुक
होते हैं। इसके लिए प्रेम बहुत आवश्यक है। माता- पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका एवं दोस्ती आदि ऐसे कुछ रिश्तें हैं जिनके कारण
हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ये सभी रिश्तें हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण
है , इनके कारण हम बड़ी से बड़ी कठिनाई का भी सामना कर पाते हैं और कभी इनके कारण हम
टूट भी जाते हैं। यथा –
सूखी है नमी / प्यार की हुई जब / रिश्तों में कमी। - कृष्णा
वर्मा
प्रवासी होने की वजह
से ये हाइकुकार इन सभी रिश्तों की कमी को महसूस कर रहे हैं और लाखों की आबादी वाले
बड़े-बड़े शहरों में भी अपनापन खोज रहे हैं –
ढूँढता मन / अनजानी
भीड़ में / अपनापन। डॉ. भावना कुँअर
कहा जाता है कि माँ से बड़ा कोई नहीं। माँ को ईश्वर का दूजा
रूप माना गया है। माँ पर कई कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास आदि लिखे जा चुके हैं। माँ
के महत्त्व को हाइकु के रूप में बहुत खूबी से प्रस्तुत किया गया है। माँ की
मुस्कान से ही सारी थकान पल भर में छू हो जाती है, माँ के बुने स्वेटर से ठण्ड भी
लज्जित हो जाती है। कहीं पर माँ अपने बच्चों के लिए प्रतीक्षारत है, तो कहीं पर
बच्चे माँ की रसोई को याद कर रहे हैं। यथा -
माँ याद आए / बालों में अँगुली जो / हवा फिराए।- कृष्णा
वर्मा
माँ की दुआएँ और माँ का प्यार हर जगह, हर पल साथ रहता है। पिता
पर कम हाइकु लिखे गए हैं। रचना जी ने माँ के साथ पिता के महत्त्व को भी हाइकु में प्रस्तुत
किया है -
तोतली भाषा / मासूम सपनों का / भरोसा पिता। - रचना
श्रीवास्तव
भाई का प्यार, बेटी की बिदाई ,सखियों का प्यार इन सभी
प्यारे रिश्तों को हाइकुकारों ने बड़ी ही खूबसूरती से अपने हाइकु में प्रस्तुत किया
है। दोस्ती में प्यार की गरमाहट और बेटी पर बरसता प्यार देखिए -
सर्द माथे पे / है गर्म हथेली की / छुअन दोस्ती।
नन्ही-सी परी / वो घूँघरू की मीठी / रुनझुन-सी। -
डॉ. हरदीप कौर सन्धु
लेकिन इन सभी प्यार भरे रिश्तों के साथ कुछ रिश्तें ऐसे भी जो
तमाम कोशिशों के बाद भी हमारे हाथ से निकल जाते हैं और कहीं पर ना चाहते हुए भी इन
रिश्तों को बोझ की तरह हमें ढोना पड़ता हैं। शायद विदेश में कुछ ऐसा अनुभव हुआ है -
ठंडे देश में / रिश्ते अकड़ जाएँ / ठंडे ज़ज्बात। - कृष्णा
वर्मा
प्रेम की विविध रंग जीवन में दिखाई देते हैं। शृंगार रस को
रसराज की उपमा हमारे विद्वानों द्वारा प्राप्त है। वियोग एवं संयोग दोनों का संगम हमें
हाइकु में भी प्राप्त होता है। प्रेम में हर्ष का अनुभव है तो कहीं पर अपने पिया
से बिछड़ने का दर्द अत्यधिक है। जब पिया का साथ हो हर पल मन आनंदित रहता है -
फूलों के अंग / खुशबू जो रहती / तू मेरे संग। - डॉ. हरदीप
कौर सन्धु
तुमने छुआ / शांत झील में उठी / तीव्र लहर।
आँसू से लिखी / वो चिट्ठी जब खोली / भीगी हथेली। - रचना
श्रीवास्तव
बुढ़ापे का सहारा भी प्यार ही है, प्यार हमें किसी भी परिस्थिति
का सामना करना सीखता है। प्यार के सहारे कुछ भी किया जा सकता है।
न कोई आस / बुढ़ापे का साथ तो / केवल प्यार। - रचना
श्रीवास्तव
तुम्हारा साथ / अमावसी जीवन / लगे उजास। - कृष्णा वर्मा
अपने हाइकुओं में यथार्थ का चित्रण भी बहुत सहजता से इन
हाइकुकारों ने किया है। मनुष्य को अपने सम्पूर्ण जीवन में विभिन्न प्रकार के यथार्थ
का सामना करना पड़ता हैं। वर्तमान जीवन में हम कई जटिलताओं और विवशताओं का अनुभव
करते हैं। कई पर रिश्तें टूट रहे हैं, कहीं पर इन्सान अकेला रहा गया है। बाल
मजदूरी करते भूखे बच्चे, हमारे यहाँ के अजीब रस्मों-रिवाज़, बुढ़ापे में माँ-बाप को
अकेला में समय बिताना, पुरुष प्रधान समाज होने कारण नारी को दोषी मानना, अपनों के
कारण दुःख की प्राप्ति इस प्रकार के तमाम सत्यों को हाइकु में प्रस्तुत किया गया
है। बाशो ने हाइकु को सत्य की अनुभूति माना है, यहाँ पर यथार्थ चित्रण कर हाइकुकारों
ने यह बात सिद्ध की है। यथार्थ का चित्रण प्रस्तुत करने में यह सभी हाइकुकार सफल हुए
हैं। बड़ी ही सहजता के साथ इन सभी हाइकुओं में सत्य की अभिव्यक्ति झलकती है।
यथा -
जीते जी शूल / मरने पर फूल / अजब रस्में। - कृष्णा वर्मा
अमृत पीते / अक्सर ये पुरुष / औरत विष। - डॉ. भावना कुँअर
डॉलर छीने / बेसहारा की लाठी / सूना आँगन। - रचना
श्रीवास्तव
खाने वालों की / उठा रहे जूठन / ये भूखे बच्चे।- डॉ. हरदीप कौर सन्धु
लेकिन इन सब कड़वे अनुभवों के बावजूद भी हम आशावादी
दृष्टिकोण को देख सकते हैं। मुस्कुराने से सारे गम दूर हो जाते हैं, मुस्कुराना
हमारे जीवन को आसान बना देता है। -
हौसला ज़िन्दा / समंदर को लाँघे / नन्हा परिंदा। - कृष्णा
वर्मा
ढूँढो आँसू में /यदि तुम मुस्कान / जीना आसान। -
रचना श्रीवास्तव
विभिन्न त्योहारों का वर्णन भी हाइकुकारों ने खुल ने किया
है। परदेस में अकेले रहकर त्योहार में अपने लोगों की याद बहुत सताती है। फागुन का
उत्सव हो या दीपावली की जगमगाती रात सभी त्योहार हमारी संस्कृति के परिचायक है।
भारत त्योहारों का देश है। यहाँ पर बहुत से त्योहार मनाये जाते हैं, इन त्योहारों
को वर्णन हाइकु में देखा जा सकता है। ये सभी त्योहार भारतीय प्रवासियों को भारत से
दूर होने पर भी एक सूत्र में जोड़ कर रखते
हैं। त्योहार हमारी भावनाओं और यादों से जुड़े हुये हैं, ये हमारे जीवन को रंगीन
बनाते हैं। यथा -
परदेस में / जब होली मनाई / तू याद आई। - डॉ. भावना कुँअर
तुम्हारी याद / चौखट दीप धरूँ / दिवाली-रात। - रचना
श्रीवास्तव
रोम-रोम में / गंध चाँदनी घुली / फाल्गुन आए।
वो प्रीत कैसी / मोहताज होती जो / खास तिथि की।- कृष्णा
वर्मा
भावों और संवेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति से साथ-साथ शिल्प सौष्ठव
का सुन्दर संगम भी इन सभी हाइकुकारों के हाइकु में दृष्टिगत हुआ है। शिल्प की दृष्टि
से काव्य में प्रयुक्त होने वाले बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, शब्दशक्ति आदि का सहज
उपयोग हाइकु को खूबसूरत बनाते हैं। रचना जी ने बूढ़े पीपल को प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया है -
उड़े जो पंछी / सूखा बूढ़ा पीपल / इंतज़ार में। - रचना श्रीवास्तव
शब्द शक्ति से परिचित इन सभी हाइकुकारों ने शब्द शक्ति का
प्रयोग कर अपने काव्य को शिल्प की दृष्टि से भी उत्कृष्ट बनाया है, लक्षणा शब्द
शक्ति का एक उदाहरण देखिए -
किया उजाला / काजल भी उगला / दीप जो जला। - डॉ. हरदीप कौर
सन्धु
सजीव बिम्बों के प्रयोग से हाइकु को और मनोहारी बन पड़े है। यथा -
नदी जल में / नहा के हवाएँ, दे / सूर्य को अर्ध्य। - कृष्णा
वर्मा
खेत है वधू / सरसों हैं गहने / स्वर्ण के जैसे।- डॉ. भावना
कुँअर
उपमा, मानवीकरण, रूपक, अनुप्रास
आदि कई अलंकारों के प्रयोग को हाइकु में देखा जा सकता है। अलंकारों के सहज प्रयोग
इन हाइकुकारों की विशेषता है। उत्प्रेक्षा और उपमा अलंकार का क्रमशः उदाहरण देखिए -
बादल ओट / छुपा यूँ चाँद ज्यों
हो / तारों से कुट्टी। - कृष्णा वर्मा
पहने बैठी / हीरे की नथुनी-सी /
फूल पाँखुरी ।- डॉ. भावना कुँअर
काव्य में आवश्यक माने जाने वाले सभी तत्वों या गुणों को इस
नन्हें से हाइकु में देखा जा सकता है। शिल्प की दृष्टि से भी सभी हाइकु उत्कृष्ट जान पड़ते हैं। सशक्त
शिल्प के साथ हाइकु की विभिन्न विशेषताएँ भी इन हाइकुओं में दिखाई देती है। सांकेतिकता,
संक्षिप्तता, ध्वन्यात्मकता, सहजता, अनकहे का
महत्त्व आदि कई हाइकु-काव्य की विशेषताएँ इन हाइकुओं में प्राप्त होती है। सपाट
बयानी से इन सभी हाइकुकारों ने परहेज करते हुए अपने भावों को बड़ी ही काव्यत्मकता
के साथ प्रस्तुत किया है। कुछ कहकर थोड़ा अनकहा छोड़ देना ताकि पाठक अपनी कल्पना से
उसे पूरा कर ले, यह हाइकु का एक गुण है। हाइकुकार संकेतों के माध्यम से अपनी बात
कहने में समर्थ है, सांकेतिकता का एक उदाहरण देखिए –
चबा ही डाली / बेदर्द चिड़िया ने / तितली प्यारी। - डॉ.
भावना कुँअर
ध्वन्यात्मकता हाइकु का विशिष्ट गुण है। ध्वन्यात्मकता
हाइकु को एक अन्य धरातल पर ले जाकर प्रस्तुत करते है। भावना जी का एक बेहतरीन
हाइकु देखिए -
लाल था जोड़ा / आज़ादी से उड़ना / भूलना पड़ा।- डॉ. भावना कुँअर
प्रस्तुत सभी हाइकु, हाइकु के समस्त गुणों को लिये हुए है। हाइकु
के इस सूक्ष्म कलेवर में इतने सारे गुणों का समाहित होना ही इस विधा को विशिष्ट
बनता है। ये सभी प्रवासी हाइकुकार शिल्प और अभिव्यक्ति के स्तर पर सार्थक हाइकु
रचने में समर्थ हुए हैं।
अपने देश से दूर ये सभी प्रवासी भारतीय साहित्यकार हिन्दी
भाषा और साहित्य को विश्व स्तर पर प्रसिद्ध एवं प्रचलित करना चाहते हैं। इन सभी साहित्यकारों
के मन में व्याप्त प्रकृति एवं प्राणियों के प्रति प्रेम, अपनी मातृभूमि से दूर
होने का भाव और अपने प्रिय परिवारजनों एवं सम्बन्धियों से दूर होने की पीड़ा, भारतीय
संस्कृति से दूर रहने का गम सभी कुछ इनके साहित्य में समाहित हुआ है। इन
साहित्यकारों ने इनके अंतर्मन में चल रहे सभी विचारों एवं भावों को अपनी लेखनी के
माध्यम से सुन्दर साहित्यिक रूप में प्रस्तुत किया है। ये प्रवासी बनने के बावजूद
इनका मन आज भी भटकता फिर रहा है। ये विदेशों में रोजगार या काम धंधे कि वजह से आ
बसे हैं, लेकिन आज भी इन्हें अपने देश की , अपनी मिट्टी की खुशबू आकर्षित कर रही
है और हर हवा के झोंके के साथ अपने देश की महक को महसूस करने की कोशिश कर रहे हैं। यथा -
यूँ ही फिरता / है भटकता मन / प्रवासी बन।
नादाँ परिन्दा / फिरता मारा-मारा / देश-विदेश। -
ये पुरवाई / वतन की खुशबू / लेकर आई। - डॉ. भावना कुँअर
भावना जी, हरदीप जी, रचना जी और कृष्णा जी इन सभी
साहित्यकारों ने भारत से दूर रहकर साहित्य साधना की है, लेकिन इन सभी के साहित्य सृजन
में एक गुणवत्ता दिखाई देती है। किसी भी उच्च कोटि की रचना पढ़ने के बाद किसी भी
पाठक को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई रचनाकार भारत में रहकर साहित्य सृजन
कर रहा है या भारत के बाहर। पाठक तो बस भावों के सागर में गोते लगाता जाता है और उस
रचना को सर्वश्रेष्ठ बना देता हैं। उपर्युक्त सभी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं को
श्रेष्ठ बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। अपने कौशल से ये सभी पाठकों के दिलों में
अपनी जगह बना चुके हैं।
प्रवासी साहित्य में प्रस्तुत सांस्कृतिक द्वंद्व और अपनी मिट्टी
से दूर होने की पीड़ा एवं आवश्यकता इनकी रचनाओं को और भी अलग स्तर पर ले जाते हैं। बाहर
रहकर भी इन प्रवासी रचनाकारों की भाषा में कोई मिलावट नहीं है। शुद्ध हिन्दी भाषा के
साथ क्षेत्रीय/ आंचलिक भाषा के शब्दों को अपने काव्य में प्रयुक्त कर इन
साहित्यकारों ने सफलता प्राप्त की है। कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से ये सभी हाइकु अपनी
सार्थकता स्वयं सिद्ध करते हैं।
ये सभी साहित्यकार भले ही शारीरिक रूप से अपनी संस्कृति से
दूर है लेकिन आज भी इनका दिल तो भारत में ही बसा हुआ है। कामना करते हैं कि भविष्य
में इन प्रवासी साहित्यकारों द्वारा रचित उत्कृष्ट कोटि की रचनाएँ हमें इसी प्रकार
रसानुभूति प्रदान करती रहे। यथा-
लाख छू आएँ / चिड़ियाँ आकाश को / प्यार नीड़ से। - कृष्णा वर्मा
लौटकर आ / पुकारे तुझे अब / गाँव वो तेरा। - डॉ. हरदीप कौर
सन्धु
संदार्भानुक्रम -
१.
हाइकु-काव्य शिल्प एवं अनुभूति, सं. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’/डॉ. भावना कुँअर,
पृ. २४५।
२.
मन के द्वार हज़ार, रचना श्रीवास्तव पृ. २०।
३.
भोर की मुस्कान, रचना श्रीवास्तव, पुस्तक फ्लैप पर ।
४.
अम्बर बाँचे पाती, कृष्णा वर्मा, पुस्तक के फ्लैप पर।
५.
ख़्वाबों की ख़ुशबू, डॉ. हरदीप कौर सन्धु, पुस्तक फ्लैप पर।
६.
तारों की चूनर की समीक्षा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, गद्य कोश से साभार।
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
बहुत सुंदर आलेख पूर्वा जी। व्यापक दृष्टिकोण। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व्याख्या हाइकू की और सार्थक समृद्ध रचनाओं का विस्तृत वर्णन सराहनीय लेख । बधाई ।
जवाब देंहटाएंऐतिहासिक शोध आलेख सुंदर है-बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख प्रिय पूर्वा जी।
जवाब देंहटाएंदिल से बधाई आपको!