रविवार, 25 जुलाई 2021

आलेख

 

प्रेमचंद की कथा कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण

डॉ. पूर्वा शर्मा

गत सौ वर्षों से भी अधिक समय से हिन्दी सिनेमा दर्शकों का मनोरंजन करता रहा है। वर्ष 1913 में राजा हरिश्चंद्र की कथा पर आधारित भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनी जो अवाक् (मूक) फिल्म थी। 1931 में पहली सवाक् फिल्म ‘आलम आरा’ बनी, जो पारसी नाटक पर आधारित थी। ‘मूक’ से ‘सवाक्’, ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ से लेकर ‘कलर’ और अब ‘थ्री डी’ एवं नई-नई तकनीकों के प्रयोग से हिन्दी सिनेमा की प्रगति का सफ़र जारी है। तकनीक भले ही कितनी भी उन्नत हो लेकिन फिल्म को एक अच्छे कथानक की आवश्यकता होती ही है, उसके बगैर किसी भी फिल्म में जान नहीं आ सकती। हम देख सकते हैं कि आरंभ में ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक कथानक को लेकर फ़िल्में बनती थी साथ ही साहित्यिक कृतियों पर भी फ़िल्में निर्मित होने लगी और यह सिलसिला आजा भी जारी है।

गुलज़ार कहते हैं कि – ‘साहित्य और सिनेमा का संबंध एक अच्छे अथवा बुरे पड़ोसी, मित्र या संबंधी की तरह एक दूसरे पर निर्भर है। यह कहना जायज़ होगा कि दोनों में प्रेम संबंध है।’ अलग-अलग विधाएँ होने के बावजूद साहित्य और सिनेमा दोनों ही मनुष्य के जीवन को चित्रित/प्रतिबिम्बित करते हैं। अपनी संस्कृति, परिवेश, समाज, विचार धारा आदि को व्यक्त करने में ये दोनों ही माध्यम सक्षम है। किसी भी रचना को पढ़ते हुए पाठक अपनी कल्पनाशीलता के अनुसार लेखक की रची दुनिया में प्रवेश करता है लेकिन सिनेमा के दर्शक का कल्पनाशीलता से कोई लेना-देना नहीं होता, वह वही देख पाता है जो निर्देशक उसे दिखाता है – साहित्य एवं सिनेमा में यही मुख्य अंतर है।  

 शिक्षा का अभाव एवं गरीबी के चलते हमारे समाज का एक हिस्सा साहित्य से वंचित है, ऐसे में सिनेमा का महत्त्व बढ़ जाता है। जहाँ साहित्य नहीं पहुँच पाता वहाँ सिनेमा अपनी बात/विचार को प्रस्तुत करने में सफल होता है। दृश्य माध्यम होने के कारण साहित्य की तुलना में सिनेमा आम जनता को अधिक प्रेरित एवं प्रभावित करता है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपने एक लेख में कहा कि उपन्यासों एवं कहानियाँ लिखने से इतना फायदा नहीं हो रहा, इससे ज्यादा फायदा फिल्म दिखाकर हो सकता है।  फिल्म से हर जगह के लोग लाभ उठा सकते हैं। और यह बात सच भी है कि यदि हम अपनी बात या विचार को किसी फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं तो वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचती तो है ही, साथ ही उनके जीवन में परिवर्तन ला सकती है और लाती भी है।  

Thomas Dixon(थॉमस डिक्शन) के उपन्यास ‘The Clansman’(द कैंसमैन1905) पर आधरित 1915 में बनी मूक अमरीकी फिल्म ‘The Birth of a Nation’(द बर्थ ऑफ़ अ नेशन) से सिनेमा में साहित्य का आरंभ माना जाता है। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मोहन भवनानी की ‘मिल मजदूर’ (1934) फिल्म की पटकथा प्रेमचंद ने लिखी थी।

प्रेमचंद के अतिरिक्त और भी कई साहित्यकारों ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा जैसे – अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, भगवतीचरण वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, भीष्म साहनी, राही मासूम रजा आदि। लेकिन इनमें से कुछ सफल हुए कुछ नहीं।

हिन्दी सिनेमा पर यदि विहंगम दृष्टिपात किया जाए तो हम देख सकते हैं कि कई भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं को लेकर अनेक हिन्दी फिल्मों का निर्माण हुआ है। फणीश्वरनाथ रेणु के कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी जो ‘तीसरी कसम’ बॉक्स ऑफिस पर अपना जादू बिखेर न सकी। यही हाल  ‘त्याग पत्र’, (जैनेंद्र), ‘चित्रलेखा’ (भगवती चरण वर्मा), ‘माया दर्पण’ (निर्मल वर्मा), ‘सारा आकाश’(राजेंद्र यादव) आदि फिल्म का भी रहा। हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों पर आधारित फ़िल्में हिन्दी में बनी है। इस तरह की फिल्मों की सूची लम्बी है।  

हम यह नहीं कह सकते कि साहित्यिक रचनाओं पर बनी फ़िल्में हमेशा ‘सफल’  ही रही है। लेकिन कुछ समय पूर्व ही रिलीज़ हुई हरिंदर सिक्का की पुस्तक ‘कॉलिंग सहमत’ पर आधारित ‘राजी’ (2018) फिल्म की सफलता इस बात का प्रमाण है कि साहित्यिक रचनाओं पर बनी फ़िल्में भी बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ सकती है। धर्मवीर भारती की ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, मन्नू भंडारी की ‘रजनीगंधा’, शरतचन्द्र के उपन्यास पर लगभग चार बार बनी ‘देवदास’, कमलेश्वर की रचनाओं पर बनी लगभग सभी फ़िल्में (पति, पत्नी और वो,  मौसम आदि), चेतन भगत के उपन्यास पर बनी फ़िल्में (थ्री इडियट्स, काई पो छे, टू स्टेट्स, हॉफ गर्ल फ्रेंड) इस श्रेणी में आती है।

साहित्यिक रचनाओं को लेकर बनने वाली फिल्मों के क्रम में प्रेमचंद की रचनाओं पर आधारित फिल्मों का भी विशेष महत्त्व रहा है। प्रेमचंद की मृत्यु के 85 वर्ष पश्चात् भी उनकी रचनाओं पर सिनेमा / टेलीफिल्म आदि का निर्माण ज़ारी है। इनमें से कुछ फ़िल्में प्रेमचंद की रचनाओं पर आधारित है और कुछ उनकी रचनाओं से प्रेरित। हाल ही में मार्च 2021 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बैकुंठ’ इस बात का प्रमाण है कि इतने वर्षों के पश्चात् भी प्रेमचंद साहित्य का महत्त्व, उसकी प्रासंगिकता वैसी ही बनी हुई है।  

प्रेमचंद की रचनाओं को लेकर कई फिल्मों एवं टेलीफिल्मों का निर्माण हुआ जो इस प्रकार है –


द मिल मजदूर (1934) 

    श्रमिक जीवन पर केन्द्रित इस कथा को निर्देशक मोहन भवनानी ने बहुत ही जीवंत फिल्माया। इस फिल्म की कहानी प्रेमचंद जी ने लिखी साथ ही इस फिल्म में  स्वयं प्रेमचंद जी ने एक नेता की छोटी-सी भूमिका भी अदा की थी। मजदूरों के जीवन की समस्या, उन पर होने वाले अत्याचार /भेदभाव आदि का चित्रण इस फिल्म में दिखाई देता है। सेंसर बोर्ड को लेकर यह फिल्म विवादित रही। मिल मजदूरों को केंद्र में रखकर बनाई गई इस फिल्म में बहुत काट-छाँट की गई और इसके रिलीज़ में बहुत मुश्किलें आई, और तो और कई स्थानों पर रिलीज़ होने के बाद इस फिल्म को बंद करवा दिया गया। फिल्म में किए गए कुछ परिवर्तन प्रेमचंद को पसंद नहीं आए। पंजाब में इसे ‘गरीब मजदूर’ के नाम से प्रदर्शित किया गया। इन सब विवादों के चलते प्रेमचंद जी मुंबई की फ़िल्मी दुनिया छोड़कर चले आए।

सेवासदन (1938) 

    सेवासदन प्रेमचंद का प्रथम उपन्यास माना जाता है, जिसे पहले उर्दू में बाज़ार-ए- हुस्न के नाम से लिखा गया और फिर हिन्दी में रूपांतरित किया गया। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के देहावसान के दो वर्ष पश्चात् उनके उपन्यास सेवासदन की कथावस्तु को लेकर निर्माता-निर्देशक के. सुब्रमण्यम ने तमिल में ‘सेवासदन’ शीर्षक से ही फिल्म बनाई। इसमें वेश्या जीवन से संबद्ध जीवन की समस्याओं का सफलता पूर्वक चित्रण किया गया। सिवान के संगीत निर्देशन और सुबुलक्ष्मी एवं नतेशा अय्यर अभिनीत यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही।

स्वामी (1941)  

प्रेमचंद की कहानी ‘त्रिया चरित्र’ को लेकर ए. आर. कारदार ने ‘स्वामी’ शीर्षक से फिल्म बनाई। इंदिरा की भूमिका में सितारा देवी, अभिनेता जयराज और जीवन ने फिल्म में अपने बेहतरीन अभिनय का परिचय दिया।

हीरा मोती (1959)   

    कृष्ण चोपड़ा द्वारा निर्देशित इस फिल्म की पटकथा ‘दो बैलों की कथा’ कहानी पर आधारित है। फिल्म में मुख्य कलाकार की भूमिका निरूपा रॉय (रजिया), बलराज साहनी (झुरी) और शोभा खोटे(चंपा) ने निभाई और संगीत निर्देशन रोशन के किया। नीति विषयक मूल्यों को उभारती दो बैलों की कथा में दो बैल सीधे-सादे व्यक्तियों का प्रतीक है, जिनके संघर्ष को फिल्म में बखूबी फिल्माया गया है।    

गोदान (1966) 

प्रेमचंद के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले उपन्यास ‘गोदान’ पर आधरित इस फिल्म में होरी का किरदार राजकुमार, धनिया – कामिनी कौशल एवं गोबर का किरदार महमूद ने निभाया। रवि शंकर का संगीत एवं अंजान के गीत एवं निर्देशन त्रिलोक जेटली का था। भारतीय संस्कृति, ग्राम्यजीवन के अनेक आयामों, ग्रामीणों की सुखद-दुखद स्थितियों, उनकी व्यथा-कथा का चित्रण इसमें भली-भाँति हुआ है। यह फिल्म बहुत लोकप्रिय न हो सकी।

गबन (1966) 

मशहूर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने गबन उपन्यास पर इसी शीर्षक से ही फिल्म बनाई। इस फिल्म में शैलेन्द्र एवं हसरत जयपुरी के गीतों को शंकर जयकिशन ने संगीतबद्ध किया था। फिल्म में मुख्य पात्र रामनाथ की भूमिका में सुनील दत्त एवं जालपा की भूमिका में अभिनेत्री साधना नज़र आई। इसमें लोभ, टूटते-गिरते मूल्यों और अँधेरे में भटकते मध्यम वर्ग का वास्तविक चित्रण बड़ी सजीवता के साथ किया गया है।    

ओका ऊरी कथा (1977)   

    सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नेशनल अवार्ड (1978), नंदी अवार्ड फॉर थर्ड बेस्ट फीचर फिल्म(1977) एवं कारलावी वेरी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल और कार्थेज फिल्म फेस्टिवल में स्पेशल आवार्ड जीतने वाली तेलगु फिल्म ‘ओका ऊरी कथा’ प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर बनी है। कफ़न को सफलता पूर्वक पर्दे पर प्रस्तुत करने का कार्य निर्देशक मृणाल सेन ने किया। अभिनेता एम. वी. वासुदेव, प्रदीप कुमार एवं ममता शंकर ने मुख्य भूमिका निभाई थी और विजय राघव राव ने संगीत दिया था। दरिद्रता, भुखमरी एवं सामाजिक भेदभाव का जीवन जीते प्रेमचंद के पात्र घीसू, माधव एवं बुधिया की यह मार्मिक कहानी है।

शतरंज के खिलाड़ी (1977)  

    प्रसिद्ध बांग्ला फ़िल्मकार सत्यजीत रे द्वारा निर्मित ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म को भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म फेयर अवार्ड एवं बेस्ट सिनेमेटोग्राफी के लिए नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ। प्रस्तुत फिल्म प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का सफल सिनेमाई रूपांतरण है। वाजिद अली शाह के समय को प्रस्तुत करती इस फिल्म में संजीव कुमार / शबाना आज़मी (मिर्ज़ा सज्जाद अली और उनकी बीवी), सईद जाफ़री / फरीदा जलाल (मीर रोशन अली और उनकी बीवी) और अमजद ख़ान ने वाजिद अली शाह का किरदार निभाया। हालाँकि मूल कहानी में वाजिद अली प्रत्यक्ष पात्र के रूप में चित्रित नहीं किया गया है लेकिन थोड़ी सिनेमाई स्वंत्रता तो हर निर्देशक ले ही लेता है।

सद्गति (1981) 

    सत्यजीत रे के निर्देशन में ही प्रेमचंद की एक और कहानी ‘सद्गति’ पर इसी शीर्षक से फिल्म का निर्माण दूरदर्शन द्वारा हुआ। इसे नेशनल फिल्म अवार्ड (स्पेशल जूरी अवार्ड, 1982) प्राप्त हुआ। इस फिल्म में ओमपुरी, स्मिता पाटिल एवं मोहन अगाशे ने क्रमशः दुखी, झुरिआ, ब्राह्मण के पात्रों को जीवंत बनाते हुए अपने सर्वश्रेष्ठ अभिनय का परिचय     दिया। एक दलित-शोषित जीवन की दयनीय दास्तान कहती इस कहानी का अंत बहुत ही हृदय विदारक है। सत्यजीत रे ने इस मर्मस्पर्शी कथा को बहुत ही बेहतरीन ढंग से दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है।  


बाज़ार-ए-हुस्न (2014) 

    अजय मेहरा ने प्रेमचंद के उर्दू उपन्यास बाज़ार-ए-हुस्न (सेवासदन) की कथा पर आधरित ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ नाम से ही फिल्म का निर्माण किया। प्रस्तुत फिल्म में सदन की भूमिका में ओमपुरी, सुमन की भूमिका में रश्मि घोष और किशन भूमिका में जीत गोस्वामी नज़र आए। फिल्म में गीतों को संगीतबद्ध ख़य्याम ने किया। घरेलू हिंसा, दहेज़ प्रथा आदि से जूझती सुमन के इर्द-गिर्द इस फिल्म की कथा घूमती है।

बैकुंठ (मार्च 2021) 

    कोरोना काल में हाल ही हंगामा एप पर बैकुंठ नमक फिल्म को रिलीज़ किया गया, जो कि ज्यादातर दर्शकों तक नहीं पहुँच पाई। इस फिल्म की पटकथा प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी पर आधारित है। भोजपुरी के प्रसिद्ध गीतकार भिखारी ठाकुर के गीत एवं नितेश सिंह निर्मल के संगीत ने फिल्म को प्रभावी बनाया। इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक विश्व भानु ने आर्थिक विषमता, सामाजिक भेदभाव को आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। विश्व भानु ने घीसू एवं संगम शुक्ला ने माधव एवं वान्या ने बुधिया के पात्र को बखूबी निभाया।    

गुल्ली डंडा (2010) 

    प्रेमचंद की एक और प्रसिद्ध कहानी ‘गुल्ली डंडा’ पर कल्याण सिरवी एवं हेमंत चोयल के निर्देशन में इसी शीर्षक को लेकर लघु फिल्म (18 मिनट) का निर्माण किया गया। इसमें ‘गया’ (बच्चे) नामक पात्र का किरदार जितेन्द्र चोयल ने, बड़े गया का किरदार भगदराम चौकीदार ने, कुश सिरवी ने इंजिनियर(बच्चे) एवं इमरान शेख ने इंजिनियर का किरदार निभाया। संगीत निर्देशन पी. सी. शिवन ने किया। बचपन और मित्रता का सुन्दर चित्रण इसमें दिखाई देता है।   

पंच परमेश्वर (टेलीफिल्म,1995) 

    पंच का निर्णय निष्पक्ष होता है। पंच निर्णय करते हुए मित्र-दुशमन, अपना-पराया, छोटा-बड़ा आदि कुछ नहीं देखता – इसी बात को स्पष्ट करती प्रेमचंद की कथा ‘पंच परमेश्वर’ पर निर्देशक राजेश राठी ने इसी शीर्षक से टेलीफिल्म बनाई। इसमें अशोक बुलानी, विजय ढिंढोरकर एवं उदय सहाने ने मुख्य भूमिका निभाई।  

तहरीर (टी.वी. धारावाहिक, 2004) 

    प्रसिद्ध गीतकार/ लेखक गुलज़ार ने प्रेमचंद की रचनाओं को लेकर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले एक टीवी धारवाहिक का निर्देशन किया। इस धारावहिक की शृंखला में प्रेमचंद की कहानियों – ईदगाह, सवा सेर गेहूँ, बूढ़ी काकी, नमक का दारोगा, कफ़न, पूस की रात, हज्ज-ए-अकबर, ठाकुर का कुआँ, ज्योति आदि तथा गोदान और निर्मला जैसे उपन्यास की कथा को दर्शकों के समाने प्रस्तुत किया। गुलज़ार ने टेलीसीरियल के माध्यम से प्रेमचंद की रचनाओं को सरलता से जनता के बीच पहुँचाया।  

इसके अतिरिक्त अजय मेहरा के निर्देशन में ‘सेवासदन’ को लेकर धारावाहिक का निर्माण किया गया जिसे दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। एम. के रैना ने भी ‘दूध का दाम’, ‘कज़ाकी’, ‘बड़े भाई साहब’, ’मुक्ति मार्ग’  इत्यादि को लेकर टेलीफिल्म का निर्माण किया जिसे दूरदर्शन भारती पर प्रसारित किया गया।

हम देख सकते हैं कि प्रेमचंद की अनेक रचनाओं को लेकर फिल्म/ टेलीफिल्म का निर्माण हुआ है लेकिन हर सफल/प्रसिद्ध कहानी को फिल्म के रूप में भी सफलता प्राप्त हो यह जरूरी नहीं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी साहित्य रचना का फिल्म के रूप में हू-ब-हू रूपांतरण संभव नहीं। अनेक कलाओं जैसे कहानी, गीत, संगीत, अभिनय, निर्देशन आदि के संयोग से सिनेमा का निर्माण होता है इनमें से किसी भी तत्त्व की कमी फिल्म को कमज़ोर बना देती है।  इसलिए कई बार अच्छी पटकथा होते हुए भी फिल्म चल नहीं पाती। पात्रों का सही चयन, दमदार संवाद, बढ़िया अभिनय या निर्देशन कई ऐसे घटक है जो किसी फिल्म को दर्शकों में लोकप्रिय बना देते हैं और इनमें से किसी एक की कमी फिल्म को फ्लॉप भी बना सकता है। फिल्म में कहीं पर संवाद आवश्यक होता है तो कहीं मौन अथवा संगीत या दृश्य योजना। मन्नू भंडारी का कहना है कि कहानी (साहित्य) और पटकथा (सिनेमा) में प्रारूप का अंतर होता है, कहानीकार किसी भी शैली में (उत्तम पुरुष ,प्रथम पुरुष, डायरी फॉर्म अथवा पत्रों के फॉर्म आदि में) अपनी कहानी को प्रस्तुत कर सकता है लेकिन पटकथा लेखक को तो सारी कहानी संवाद अथवा दृश्यों में ही ढ़ालकर प्रस्तुत करनी पड़ती है। किसी भी फिल्म की सफलता या असफलता के पीछे यही सब कारक देखे जा सकते हैं। इन्हीं सब कारणों से प्रेमचंद की भी कई रचनाओं पर आधारित फ़िल्में फ्लॉप हो गई और कुछ को दर्शकों ने बहुत पसंद भी किया।   

अंततः हम इतना ही कह सकते हैं कि अपनी रचनाओं में मानवीय संवेदना, आर्थिक-सामाजिक विषमता, यथार्थवादिता आदि के सजीव चित्रण द्वारा प्रेमचंद आम जनता को जगाने का कार्य करते रहे हैं। प्रेमचंद की रचनाओं पर बनी फिल्में मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी होती है, इसलिए इनका महत्त्व बढ़ जाता है। प्रेमचंद की स्वयं की सिनेमा यात्रा इतनी सफल नहीं रही लेकिन उनके देहावसान के पश्चात् उनकी विभिन्न रचनाओं पर बनी कई फ़िल्में इस बात का प्रमाण है कि साहित्य के साथ सिनेमा में भी उनका नाम युगों-युगों तक आदर के साथ लिया जाएगा।

डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा 

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. शोधपरक आलेख। शुभकामनाएँ।

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  2. प्रेमचंद जी की कहानियों और उपन्यासों पर बहुत सी फिल्म बनी है । पूर्वा ने बहुत शोध करके इन सारी फिल्मों की जानकारी प्रस्तुत की है । पूर्वा को बहुत बहुत बधाई ।

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  3. उत्कृष्ट, शोधपरक लेख।
    हार्दिक बधाई आदरणीया।

    सादर

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  4. प्रेमचंद की कथाकृतियों पर बनी फिल्मों का सुंदर परिचय।💐

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  5. बहुत सुन्दर,सरस व शोधपरक आलेख लिखा आपने प्रिय पूर्वा जी। हार्दिक बधाई स्वीकारें।

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  6. Bhut achha laga...bhut kuchh Jan ne ko mila... thankyou purva ji..

    Dimple Rana

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