काका
हाथरसी
डॉ.
पूर्वा शर्मा
जन-जन
के कवि और हास्य रस के सम्राट ‘काका हाथरसी’ का जन्म 18 सितंबर,
1906 में हाथरस(उत्तर प्रदेश) में हुआ। हिन्दी हास्य-व्यंग्य के
इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले काका हाथरसी का वास्तविक नाम प्रभुदयाल गर्ग
था। काका के जन्म के पन्द्रह दिन पश्चात् ही इनके पिताजी शिवलाल गर्ग की प्लेग के
प्रकोप से मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् इनकी माताजी बरफ़ी देवी ने अपने मायके की
सहायता से अपने तीनों बच्चों – किरन देवी(जो कि बाल्यावस्था में ही स्वर्ग सिधार गई),
भजनलाल एवं काकाजी का लालन-पालन किया।
दस
वर्ष की आयु तक काका की नियमित पढ़ाई न हो सकी, फिर उनके मामाजी ने इगलास के स्कूल
में उन्हें भर्ती करवा दिया। पढ़ने में तेज़ काका को सीधे चौथी कक्षा में प्रवेश प्राप्त
हुआ, लेकिन अनुकूल परिस्थितियों के न होने की वजह से चौथी पास करने के बाद वह आगे
पढ़ न सके। काका अपने मामाजी के साथ हलवाई की दुकान पर इन्हें मदद करते थे। उन
दिनों काका इगलास में एक वकील साहब से प्रतिदिन दो घंटे अंग्रेजी पढ़ते थे। स्वभाव
से शरारती काका जी ने इस भारी भरकम कद काठी वाले वकील साहब (जिन्हें बच्चे बिना
सूंड का हाथी कहते थे) पर एक कविता रच दी –
एक
पुलिंदा बाँधकर, कर दी उस पर सील
खोला
तो निकले वहाँ, लखमीचंद वकील
लखमीचंद
वकील,वजन में इतने भारी
शक्ल
देखकर पंचर हो जाती है लारी
होकर
मजबूर ऊँट गाड़ी में जाए
पहिए
चूँ- चूँ करें, ऊँट को मिरगी आए ।
काका
का मानना था कि इस समय से उनके अंदर काव्य के कीटाणु जाग्रत हुए। इस शानदार तुकबंदी
के बदले इनाम रूप में उन्हें ऐसी भर पेट पिटाई मिली जिसे भूल पाना अगले सात जन्मों
तक बहुत मुश्किल था। विभिन्न परिस्थितियों के अनुभव के चलते काका जी की इस तरह की हास्य
रस की तुकबंदियाँ बचपन से ही चलती रही।
गुजर-बसर
करने के लिए काकाजी अपनी माँ एवं भाई के साथ लगभग 1916 में मथुरा में कुछ समय तक अपने
मौसाजी के यहाँ रहे। वहाँ उन्होंने मौसाजी के पुत्र के साथ चाट-पकौड़ी के व्यवसाय
में भी मदद की । इस तरह से उनका जीवन-यापन संघर्ष चलता रहा। लगभग सोलह वर्ष की आयु
में काका हाथरस आए(1921-22) और एक दुकान
पर इन्हें छ रुपये प्रतिमाह में तकपट्टी लिखने का कार्य मिल गया और दुकान से अवकाश
मिलने पर वह गोखले पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ने लगे और इसके फलस्वरूप उनके हिन्दी,
अंग्रेजी एवं उर्दू के ज्ञान में वृद्धि हुई। काका का वेतन धीरे-धीरे बढ़कर पच्चीस
रुपये हो गया। इक्कीस वर्ष की आयु में काका का विवाह रत्न देवी से हुआ लेकिन 1928 में
उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। काका
की पत्नी रत्न देवी जी को 1928 के बाद दो पुत्रियों एवं उसके दो वर्ष बाद एक
पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, लेकिन दुर्भाग्यवश तीनों बच्चों में से एक भी नहीं बच
सका। 1932 में काका ने पत्नी के विशेष आग्रह के कारण अपने भाई भजनलाल के पुत्र
लक्ष्मी नारयण को गोद लिया।
बहुमुखी
प्रतिभा के धनी काका लेखन, चित्रकारी, अभिनय एवं संगीत जैसी विविध कलाओं से प्रबुद्ध
थे। 1928 में नौकरी छूट जाने पर उन्होंने अपने एक मित्र रंगीलाल के साथ फाइन आर्ट
स्टूडियो खोला जिसमें साइन बोर्ड एवं आइल पेंट से चित्र बनाने का कार्य एक वर्ष तक
किया।
आर्ट
स्टूडियो बंद होने के बाद, स्वभाव से मस्त मौला काका जी उन दिनों हाथरस की नहर के
पुल पर बैठकर बाँसुरी बजाया करते थे। इस दौरान अचानक ही उनकी मुलाकात उनके एक पुराने
मित्र पं. नंदलाल शर्मा जी से हुई जो कि हारमोनियम एवं तबला बजाने में माहिर थे। काकाजी
ने उनके साथ मिलकर एक पुस्तक लिखी। वह चाहते थे कि इस पुस्तक के माध्यम से
नौसिखियों को वादन एवं गायन की शिक्षा सरलता से प्राप्त हो सके। यह पुस्तक संगीत
कार्यालय हाथरस की नींव साबित हुई और आगे इसके लगभग 22 से अधिक संस्करण प्रकाशित हुए।
1935 में उन्होंने संगीत नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। यह पत्रिका
संगीत प्रेमियों ने बहुत पसंद की और भारत ही नहीं विदेशों में भी इस पत्रिका की
माँग रही । इसके अतिरिक्त ‘संगीत विशारद’, ‘संगीत सागर’ एवं ‘रागकोश’ नामक
पुस्तकों का सफल प्रकाशन भी काका जी ने किया और काकाजी द्वारा संचालित ‘संगीत
कार्यालय’ हाथरस से संगीत से संबंधित लगभग सौ पुस्तकों का सफल प्रकाशन हुआ।
1933
में ‘गुलदस्ता’ पत्रिका के मुख पृष्ठ पर काका जी की प्रथम रचना प्रकाशित हुई। उस
समय उनकी रचनाएँ काका के नाम से नहीं बल्कि उनके वास्तविक नाम प्रभु दयाल गर्ग के
नाम पर ही प्रकाशित होती थी। यह रचना कुछ इस प्रकार है –
घुटा
करती हैं मेरी इसरतें दिन रात सीने में,
मेरा
दिल घुटते-घुटते सख्त होकर सिल न बन जाए।
उन्हीं
की याद में, मैं रात दिन चीखें लगाता हूँ,
यही
डर है दिले नादाँ, ये बिड़ला मिल न बन जाए।
बिना
लाइसेन्स के, वो शोख घुस आता है इस दिल में,
बचाना
दोस्तों,
ये दिल चूहों का बिल न बन जाए।
वो
मोटी है तो होने दो, में पतला हूँ तो रहने
दो,
नज़र
लगकर मेरी मोटर कहीं साइकिल न बन जाए।
इसके
बाद धीरे-धीरे लगभग 1936 के आसपास काकाजी एक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए ।
काका
जी बचपन से अपने मामाजी के साथ नाटक में अभिनय किया करते थे । काका ने 1942 में ‘आज की दुनिया’ नाटक की
रचना की। अग्रसेन जयंती पर होने वाले वार्षिक नाटक में काका प्रतिवर्ष हिस्सा लेते
थे। एक बार उन्हें चौधरी की भूमिका मिली जिसका नाम काका था। नाटक का मंचन बहुत सफल
रहा। इसके बाद से लोग उन्हें गर्ग जी या प्रभु जी न कहकर ‘काका’ के नाम से संबोधित
करने लगे। हाथरस में जन्म होने के कारण काका के साथ हाथरसी जोड़कर काका ने अपना नाम
‘काका हाथरसी’ रख लिया। इस प्रकार वह जनता में ‘काका हाथरसी’ के नाम से प्रसिद्ध
हो गए।
काका
ने अपनी विशिष्ट रचना शैली एवं समाज में व्याप्त विविध और अनछुए विषयों को अपने
हास्य-काव्य रूप में ढ़ालकर उच्च कोटि के साहित्य की रचना की है। काका ने विविध
विधाओं में सृजन किया है जिसमें – काव्य (कुण्डलियाँ, दोहा, छक्का आदि), प्रहसन, पत्र
साहित्य, तुकान्त कोश, आत्मकथा एवं अन्य विधाएँ शामिल है। काका के काव्य साहित्य की
तुलना में परिमाण की दृष्टि से उनका गद्य साहित्य अल्प मात्रा में है। लेकिन गद्य
लेखन में भी उनकी सरल-सहज, रोचक, रसात्मक-व्यंग्यात्मक शैली साफ़ परिलक्षित हुई है,
जैसे – अखिल विश्व चूहा सम्मेलन, कंजूस सम्मेलन, भोगा एंड योगा, मच्छर मीटिंग आदि काका
के कुछ इसी प्रकार के व्यंग्यात्मक लेख है जिनमें बीच-बीच में काव्य पंक्तियाँ एवं
गीत भी हैं। काका के लगभग सभी प्रहसनों का उद्देश्य सामाजिक बुराइयों को दूर करना
है। इन प्रहसनों में हास्य के साथ व्यंग्य तो है ही, लेकिन गीत एवं कविता का
प्रयोग है। ‘बारात की बानगी’ हास्य-व्यंग्य से ओत-प्रोत एक छोटी कहानी है जिसमें
कहीं-कहीं कवितापन देखा जा सकता है। इनके गद्य साहित्य को देखते हुए हम कह सकते
हैं कि काका के गद्य साहित्य में भी कविता छलकती है।
काका
के अस्सी वर्ष की उम्र में ‘प्यार किया तो मरना क्या ?’ शीर्षक से एक लेख लिखा। अपने
मरने की बात को उन्होंने बहुत ही बेहतरीन हास्य-व्यंग्य की शैली में प्रस्तुत किया
है। उम्र के अंतिम पड़ाव पर किस तरह जीना चाहिए इसके बारे में लिखा उनका एक लेख – ‘वक्त
के साँचे में अपनी ज़िंदगी को ढालकर, मुस्कुराओ मौत की आँखों में आँखें डालकर’ है जो
कि लगभग तीस वर्ष पूर्व लिखा गया लेकिन आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है।
काका
ने एक विशिष्ट प्रकार का ग्रन्थ ‘तुकान्त कोश’ की रचना की, जिसमें 31 हजार तुकों
का संग्रह हुआ है। यह कोश एक नवीन प्रयोग है जो कवियों के लिए निःसंदेह ही उपयोगी सिद्ध
है। काका ने कुछ पुस्तकों में अपने हास्य व्यंग्य को प्रश्नोत्तरी शैली में
प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में गद्य एवं पद्य दोनों नज़र आते हैं, प्रश्न गद्य
में एवं उसका उत्तर काव्य शैली में दिया गया है। यही नहीं पत्र लेखन की तरह अपने
और काकी के काल्पनिक प्रेम पत्र लेखन को भी उन्होंने ‘काका काकी के लव लेटर्स’
पुस्तक में प्रस्तुत किया हैं। इस तरह हम देख सकते हैं कि काका का सृजन क्षेत्र
बहुत व्यापक एवं बहुआयामी रहा है।
काका
अपनी आत्मकथा – ‘मेरा जीवन ए वन’ लिखकर संतुष्ट थे उनका मानना था कि उन्होंने जीवन
में सब सुख प्राप्त कर लिए हैं।
पारिवारिक
नोंक-झोंक, सामाजिक विसंगतियों, आर्थिक विषमताओं, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक आदि विविध
विषयों पर काका की लेखनी चली है। काका ने अपने हास्य से गुदगुदाने का कार्य करने
के साथ व्यंग्य के तीखे बाणों के माध्यम से विविध विषयों पर जनता का ध्यान केन्द्रित
किया है और वह भी बड़ी ही शालीनता के साथ।
1946 में काका की प्रथम पुस्तक ‘काका की कचहरी’ प्रकाशित हुई। काका की लगभग पैंतालिस
पुस्तकें प्रकाशित हुई और उनकी पैंतालिसवीं पुस्तक ‘काका के व्यंग्य बाण’ डॉ.
गिरिराजशरण अग्रवाल ने संकलित की जो उनकी मृत्यु के पश्चात् प्रकाशित हुई।
काका
हाथरसी के हास्य-व्यंग्य संसार की कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ इस प्रकार है –
v काका
की कचहरी(1946), पिल्ला(1950), म्याऊँ(1954), दुलत्ती(1961),
काका के कारतूस (1963), काका की फुलझड़ियाँ(1965), काका के कहकहे(1966), काका की काकटेल(1967), महामूर्ख सम्मेलन(1966), काका कोला (1968), चकल्लस (1968), हँसगुल्ले(1969), काका के धड़ाके (1969), कह काका कविराय(1970), फिल्मी सरकार, (1972), जय बोलो बेईमान की (1973), – काव्य संग्रह
v काका
के प्रहसन (1963) – प्रहसन
v काक-दूत
(1964) – खण्ड काव्य
v तुक्तम
शरणम् गच्छामि(1966) – तुकान्त कोश
v भोगा
एण्ड योगा (1980), काका की चौपाल(1982), काका काकी की ‘नोक झोंक’ (1976), हसंत बसंत(1978), काका का दरबार(1985), मीठी मीठी हंसाइयाँ (1986), हास्य के गुब्बारे(1988) – प्रश्नोत्तर शैली
v काका
काकी के लव लेटर्स (1977) – पत्र लेखन विधा
में कविताएँ
v यार
सप्तक (1983) – 12 कवियों की चुनी हुई कविताओं का संकलन
v लूटनीति
मंथन करी (1994), – दोहा संग्रह
v मेरा
जीवन ए वन (1994) – आत्मकथा
v काका
के व्यंग्य बाण (सं. डॉ.गिरिराजशरण अग्रवाल,1996) – काव्य संग्रह
1936
में काका जी ने हाथरस के देवछठ के मेले में पहली बार कवि सम्मेलन में काव्य पाठ
किया था। अलीगढ़, मथुरा, इगलास आदि स्थानों पर आयोजित कवि सम्मेलनों में
काका को आमंत्रण मिलने लगा। तत्पश्चात् आगे भी यह सिलसिला जारी रहा और 1944
के बाद काका की एक मंचीय कवि के रूप में पहचान बन गई। 1957 में प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम की शताब्दी पर लाल किले पर आयोजित कवि सम्मेलन में काका ने अपनी कविता ‘क्रांति
का बिगुल’ सुनाकर वाह वाही लूट ली। इस तरह काका का मंचीय सफ़र चलता रहा। चेन्नई
जैसे अहिन्दी भाषी क्षेत्र में 1975 काका हाथरसी नाईट मनाई गई। उन्होंने सिंगापुर,
बैंकाक, अमेरिका, कैनेडा आदि देशों में भी कवि सम्मेलन किए। ईरान की एक प्रसिद्ध लेखिका गाडसी एकतरफी ने अपने साक्षात्कार में कहा
कि ईरान की जनता उन्हें देखना चाहती और उनकी कविताएँ पढ़ने के लिए वहाँ हिन्दी सीखी
जा रही है। इसे काका की प्रसिद्धि का प्रमाण कहा जा सकता है। कवि सम्मेलनों को
लोकप्रिय बनाने में काका का बहुत बड़ा योगदान है।
सन्
1974 में हिज मास्टर्स वायस (एच.एम. वी.) ने काका की कविताओं के तीन रिकार्ड उन्हीं
के स्वर में तैयार किए और 1975 में बम्बई की सिनोरमा एण्ड
कम्पनी ने एक घण्टे का कैसेट तैयार किया। इसके बाद अमरनाद ने भी काका के दो कैसेट
तैयार किए।
1975
में काका ने ‘काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट’ की स्थापना की, यह पुरस्कार प्रतिवर्ष
किसी सर्वश्रेष्ठ हास्य कवि को दिया जाता है।
काकाजी
को 1976 में हास्य व्यंग्य का सर्वश्रेष्ठ ठिठोली पुरस्कार, 1976 में अग्रवाल समाज, चण्डीगढ़ द्वारा उन्हें ‘अग्र श्री’ की उपाधि एवं 1980
में सरस्वती डिग्री कालेज के दीक्षांत समारोह में ‘भारत शंख’
की उपाधि से विभूषित किया गया। पुरस्कारों की इस श्रेणी में काका जी
को 1985 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा पद्मश्री से
अलंकृत किया गया। इस अवसर पर धन्यवाद ज्ञापित करते हुए काका का हास्य सृजन कौशल देखिए
–
तार
बधाई के मिले, फोन करे टन टन,
पदम्
श्री का नाम सुन, काकी हो गई सन्न।
काकी
हो गई सन्न, बड़ी चर्चा है जिसकी
क्या
करती है काम, उमर है कितनी उसकी।
खबरदार
जो इस घर में रक्खी वह लाकर
टाँग
पकड़ उस दुष्टा को कर दूँगी बाहर।
काका
को उदास चेहरे पसंद न थे, उन्हें खिलखिलाते चहरे ही पसंद थे। वे स्वयं भी हमेशा
खिलखिलाते रहते थे। काका किसी की शवयात्रा में नहीं जाते थे उनका कहना था कि उनसे
रोते चहेरे देखे नहीं जाते। वे चाहते थे कि उनकी मृत्यु पर कोई आँसू न बहाए और
हँसते हुए उन्हें विदा करें। बस ऐसा ही हुआ 18 सितम्बर, 1995 को काका जी यह नश्वर
संसार छोड़कर चले गए और 19 सितम्बर को काका जी की अंतिम यात्रा ऊँट गाड़ी पर निकाली
गई और शमशान भूमि पर दो घंटे तक हास्य कवि सम्मेलन चला । कितने अचरज की बात है न
कि काका जी की जन्म एवं मृत्यु का एक ही दिन – 18 सितम्बर। तुकबंदी करने वाले काका
हाथरसी के बारे में लोगों का मानना है कि काका जी मरने में भी तुक मिला गए।
काका
के बारे में कहा जाता है कि नख-से लेकर शिख तक हास्य रस संजोए हुए थे। अंत में
काका की कुछ गुदगुदाने वाली रचनाएँ –
1- नवरस
निरूपण
लाल
मिर्च में करुण रस, रहता भण्डार
रसगुल्लों
में रम रहे, शान्त और श्रृंगार ।
शान्त
और श्रृंगार, तनिक जिह्वा पर रख लो,
पिपर
मेण्ट में अद्भुत रस के दर्शन कर लो,
कह
काका कविराय, झाँक दिल की खिड़की से,
टपके
रहस वीभत्स प्रेयसी की झिड़की से
डूग
वीर रस में चलें, मजनूँ के अवतार,
लगे
सड़क पर फेंकने, फिल्मी प्रेम फुहार ।
फिल्मी
प्रेम फुहार, उपाय न देखा दूजा,
चप्पल
लेकर देवी जी ने कर दी पूजा।
कह
काका कवि,
दृश्य, एक, रस तीन सुहाए
रौद्र
भयानक और हास्य रस सम्मुख आए।
2
- नाम बड़े दर्शन छोटे
नाम
रूप के भेद पर, कभी किया है गौर
नाम
मिला कुछ और तो, शक्ल अक्ल कुछ और,
शक्ल
अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू
सुंदर लाल बनाए ऐंचकताने,
कहँ
काका कवि, ‘दयाराम’ जी
मारें मच्छर,
विद्याधर
को भैंस बराबर काला अच्छर।
3
नर
है अथवा नारि यह कैसे हो पड़ताल
बीबी
जी है बॉब कट, बाबू लम्बे बाल ।
4
कोर्ट
पर चोट करें, किसका बलबुता ?
हत्या
शेर सिंह ने की, फाँसी चढ़ा कुत्ता।
5
- पिल्ला-पुराण
पिल्ला
बैठा कार में, मानुष ढोबे बोझ,
भेद
न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज।
बहुत
लगाई खोज,
रोज साबुन से नहाता,
देवी
जी के हाथ, दूध से रोटी खाता।
कह
काका कविराय प्यार कर के सहलाते,
निज
बिस्तर पर प्रेम पूर्वक शयन कराते।
6
अंध-धर्म
विश्वास में, फँस जाता इन्सान,
निर्दोषों
को मार कर, बन जाता हैवान।
7
कितना
भी दे दीजिये, तृप्त न हो यह शख्स,
तो
फिर यह दामाद है, अथवा लेटर बक्स
अथवा
लेटर बक्स, मुसीबत गले लगा ली,
नित्य
डालते रहो, किन्तु खाली का खाली।
कह
काका कवि,
ससुर नर्क में सीधा जाता
मृत्यु
समय यदि दर्शन दे जाए जमाता।
8
श्रोता
जिसका अर्थ समझ ले, / वह तो तुकबन्दी है
भाई ।
जिसे
स्वयं कवि समझ न पाए, / वह कविता है सबसे
हाई।
9 - लिंग-भेद
‘काका’ से कहने लगे, ठाकुर
ठर्रासिंग,
दाढ़ी
स्त्रीलिंग है, ब्लाउज है पुल्लिंग।
ब्लाउज
है पुल्लिंग, भयंकर गलती की है,
उछला
उनका पर्स रो रही अपनी पाकिट,
उनका
लहँगा महँगा, सस्ती पति की जाकिट।
डॉ.
पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
वाह । काका हाथरसी जी के बारे में समग्र सामग्री पढ़ कर अद्भुत आनंद आया । काका जी रचनाएं ख़ूब गुदगुदाने वाली होती है । कहाँ गए वो लोग ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जानकारी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर वर्णन किया है आपने।
जवाब देंहटाएंबधाई आदरणीया🌹🌹
सादर
really good compilation
जवाब देंहटाएंकाका हाथरसी स्वयं में एक संस्था थे उन्होंने हिंदी कविता में हास्य को सलीके से प्रस्तुत किया,लोकप्रिय बनाया और इन नई ऊँचाई प्रदान की।आपने काका पर महत्वपूर्ण सामग्री दी,बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत रोचक जानकारी, हम सब के प्रिय काकाजी पर!!
जवाब देंहटाएं