इक्कीसवीं सदी नारी सदी के रूप में
मानी जा रही है। आज नारी की शक्ति, क्षमता
और विशिष्टता परदे के पीछे की वस्तु नही रह गयी है,
वह
अपने-आप को साबित कर चुकी है।उसे कमतर आँकने वाले अपना नजरिया बदल रहे हैं या
उन्हें बदलना पड़ रहा है। नारी आकाश की ऊँचाइयों को नाप रही है। आज हर क्षेत्र
में उपस्थिति दर्ज कराने के
साथ-साथ उसने अपनी प्रतिभा का लोहा भी
मनवाया है। नारी को उसके हिस्से का आसमान यूँ ही नहीं मिला। सदियों के बंधन तोड़कर
आज उसने उड़ान भरी है। घर की दहलीज तक न
लाँघने वाली नारी घर-बाहर संघर्ष की कलम से नयी इबारत लिख रही है। डोली में आकर अर्थी
पर जाने वाली दबी-ढकी,
डरी
-सहमी धरा पर दृष्टि गढ़ाये रहने वाली नारी के पाँव तो आज जमीन पर हैं,
लेकिन दृष्टि आसमान पर है । इक्कसवीं सदी नारी की सदी है इसे स्वीकार करने में बहुत-से
लोगों को संकोच हो सकता है क्यों कि नारी की महत्ता को स्वीकारना परम्परा के
सर्वथा विपरीत है। अपने लिए सभी सुविधाएँ सुरक्षित रख लेने वाले पुरुष वर्ग के लिए
अपने अधिकारों में कटौती करके आधी आबादी
को हस्तांतरित करना सहज नहीं है। हमारे समाज में नारी पर आधिपत्य समझने की मानसिकता विरासत में ही मिलती रही है। नारी की स्थिति में आज जो परिवर्तन हुआ, उसे जो अधिकार प्राप्त हुए उसके वह सर्वथा योग्य थी। इसका स्वतः प्रमाण है कि नारी
प्राचीन काल में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका में
थी लेकिन शनैः-शनै नारी पर दासता का ऐसा शिकंजा
कसा कि वह सदियों तक अंधेरी काराओं में कैद होकर रह गयी। नारी को देवी कहते-कहते हमने
उसे पत्थर की प्रतिमा समझ लिया। दैहिक सौन्दर्य को देखा, अंतर की पीड़ा- भावों और इच्छाओं को नगण्य समझा। उसके सेवा, समर्पण और प्रेम को कर्तव्य का आवरण
डालकर इति श्री कर ली। बहु पत्नी प्रथा ने नारी के जीवन को प्रतीक्षालय बना दिया। पिता
के आश्रय से निकलकर पति फिर पुत्र के अधीन
रहने वाली नारी प्रेम, बलिदान एवं सहनशीलता की प्रतिमूर्ति होकर परिवार व समाज की रूढ़िग्रस्त
अपेक्षाओं पर खरा उतरने में ही अपनी शक्ति व सामर्थ्य लगाती रह गयी। कर्त्तव्य की बलि
वेदी पर चढ़ाकर अधिकारों से वंचित रखने का षड्यंत्र भी उसके साथ खूब खेला गया। अपनी
आत्मिक शक्ति, बुद्धि-विवेक तथा कौशल के होते हुए भी नारी उपेक्षित ही रही। उसके आस-पास ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो
गयीं, जिनमें उसकी प्रतिभा व कौशल का विकास होना तो दूर उजागर होने तक का अवसर नहीं मिला। जन्म लेते ही जीवित
रहने का संकट,जीवन बच जाये तो बाल विवाह,बेमेल विवाह,दहेज प्रथा ,सती प्रथा,बहु पत्नी प्रथा, अशिक्षा अनेकानेक समस्याएँ नारी को अपना ग्रास बनाने के लिए मुँह
बाए खड़ी थीं। जहाँ जीवन पर ही संकट हो वहाँ बाकी चीजों की अपेक्षा करना व्यर्थ
है। वह दासी के रूप में बेची गयी, वस्तु की
भाँति उपहार में बाँटी गयी। ऐसी स्थिति में भला नारी अपने अधिकारों के बारे में
कैसे सोच पाती। परंतु आज ‘बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुध ले’ का अनुसरण करते हुए
नारी अपनी व्यथाओं और आँसुओं पर नियंत्रण
करना सीख गयी है। वह अपने खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त करके बहुत सूझ-बूझ के साथ नित नये क्षेत्रों को
संभाल रही है। विषमता के विरूद्ध आवाज
उठाना तथा अधिकारों के प्रति जागरूक रहना
नारी ने सीख लिया है।आज नारी शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा है । नारी सुरक्षा ,सम्मान व स्वावलंबन के लिए
कार्ययोजनाएँ बनायी गयी हैं। नारी-प्रतिभा से सभी आश्चर्य चकित हैं। आज नारी ऐसे-ऐसे कार्यों को सफलतापूर्वक
संपन्न कर रही है, जिन्हें पुरूषों के वश की ही बात समझा जाता था। कला,साहित्य, विज्ञान, शिक्षा,प्रशासन,चिकित्सा,अंतरिक्ष यहाँ तक कि सैन्य क्षेत्र
भी नारियाँ बखूबी संभाल रही हैं। जैसे बरखा की बूँदों को पाकर दबे हुए बीज अंकुरित
हो उठते है, उसी प्रकार अवसर
पाकर नारी की प्रतिभा पल्लवित हो उठी है। जीवन जीने और अपनी पहचान बनाने की
आकांक्षा अब मूर्त रूप ले रही है। शिक्षा के
कारण संभावनाओं के द्वार खुलते जा रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज नारी की
भूमिका में तीव्रता से परिवर्तन हुआ है
परन्तु यह भी सत्य है कि आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली नारी शक्ति का एक
बड़ा हिस्सा अभी भी शोषण चक्र में पिस रहा है। नारियों के प्रति हिंसा और
अत्याचार की घटनाएँ निरंतर बढ़ रही हैं। समाज
में नारियों के प्रति रूढ़िवादी सोच की जड़ें इतनी गहरी हैं कि तमाम कानूनों-प्रावधानों
के बावजूद उन्हें खोखला होकर धराशायी होने में इतना वक्त लग रहा हैं। नारी प्रगति
के पथ पर अग्रसर है परंतु दकियानूसी सोच पग-पग पर बाधाएँ खड़ी कर रही है। आज की
नारी जितने झंझावात झेलती है उतना ही निखरती जा रही है। इक्कीसवीं सदी नारी सदी
मानी जा रही है,इस सदी की नारी शक्ति को स्वयं भी यह संकल्प लेना होगा कि वे बुराइयों के दुश्चक्र के आगे
हार नहीं मानेंगी तथा प्रगति के पथ पर
अग्रसर होंगी। कैफ़ी आजमी साहब ने नारी के
सोये आत्मसम्मान को जगाते हुए क्या खूब लिखा है-
कद्र अब तक तेरी
तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्क-फिशानी ही नहीं
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे
हमारे देश में कितनी ही नारियाँ हैं जिन्होंने समाज और
परंपरा के विरूद्ध जाकर न केवल अपना व्यक्तित्व
और जीवन संवारा है बल्कि आज वे
दूसरों का सहारा भी बनी हुई हैं। नारियाँ यदि
आत्मनिर्भर होंगीं ,तो हर सदी में उनका जयगान गूँजेगा ।
डॉ.
सुरंगमा यादव
असि.
प्रो.
महामाया
राजकीय महाविद्यालय,
महोना,
लखनऊ (उ. प्र.)
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