नारी हूँ मैं! हाँ....नारी हूँ मैं!
युद्ध ही सदा मेरी नियति रही
शुरू हुआ संघर्ष गर्भ से
मृत्यु से लड़ते हुए मैंने
जन्म लिया इस सृष्टि में
शुरू हुई फिर युद्ध-यात्रा अनवरत
लड़ती रही पग-पग मिले शत्रु से
कभी परंपरा में बाँध दिया
तो कभी बलात्कारियों ने नोच लिया
कभी फेंक तेज़ाब मेरे मुख
झुलसा है तन कभी बहू बन
कितने किस्से सुनाऊँ तुम्हें अब
कैसे कहूँ कि विचलित है मन
घायल होकर भी लड़ती रही
मेरी युद्ध गाथा यूँ ही चलती रही
नहीं किया कभी मैंने उफ़! तक
साधा मैंने मुख पर बस चुप
आँखों से निशदिन नदियाँ बहती रही
फिर भी माथे पर शिकन नहीं
बीत गए जाने कितने ही युग
चल ही रहा अनवरत यह युद्ध
स्वीकार कर लो तुम यह सच अब
युगों-युगों से योद्धा ही हूँ मैं
नारी हूँ मैं! हाँ....नारी हूँ मैं!
डॉ. पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
बहुत सुंदर वर्णन किया है इस कविता के माध्यम से,ये जीवन एक युद्ध क्षेत्र है और हम सब योद्धा ।जीवन के सत्य से अवगत कराने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआम नारी की व्यथा कथा को कविता की लड़ियों में पिरो कर सत्य को बहुत अच्छे से व्यक्त किया है । बहुत बहुत शुभकामनाएं और आशीर्वाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंकटुसत्य कहती भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया पूर्वा जी!
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