रविवार, 14 फ़रवरी 2021

आलेख

 

प्रकृति प्रेरित लोकगीत (ऋतुगीत)

प्रकृति जीवमात्र के जीवन का अभिन्न अंग है। एक और जहाँ प्राकृतिक उपादानों से जीवयोनि का भरण-पोषण होता है वहीं दूसरी और वह उसके भावजगत को भी प्रभावित करते हैं। विशेषतः इस सृष्टि की सर्वोत्तम रचना मनुष्य के भावजगत के निर्माण एवं उसके कल्पना एवं चिन्तन की सामग्री भी प्रकृति से प्राप्त होती है। “प्रकृति मानव की चिर सहचरी है जो उसके जीवन की बाह्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती हुई अन्तरंग अनुभूतियों को भी अपने सौन्दर्य से प्रभावित और चमत्कृत, करने की अदभूत क्षमता रखती है।”1

प्रत्येक ऋतु अपने एक विशेष रूप को लेकर आती है और धरती को सजाती है, सँवारती है और सौन्दर्य को मिटाती भी है। ऋतु परिवर्तन के साथ मानव-हृदय सुख-दुःख जन्य अनुभूति प्राप्त करता है। अतः प्रकृति के परिवर्तित रूप से प्रेरित होकर हम सौन्दर्य, आनंद, उल्लास, रहस्यात्मक भक्ति, शृंगार, भय आदि से संबंधी अपने भावजगत को किसी न किसी रूप में प्रकट करते हैं। शिष्ट साहित्य हो या लोकसाहित्य दोनों के सृजन में प्रकृति के प्रभाव को देखा जा सकता है। ग्रीष्म, वर्षा, वसंत, शिशिर हेमंत आदि ऋतुओं से आन्दोलित, उत्साहित लोकजीवन अपनी भावानुभूतियों को लोकगीतों के माध्यम से प्रकट करता है। इन ऋतुओं का एवं उससे प्रेरित गीतों का लोकजीवन एवं लोकसाहित्य में ज्यादा महत्त्व है।

इस प्रकार के ज्यादातर गीतों की केंद्रीय संवेदना प्रेम जन्य है। शृंगार के उभय पक्षों का वर्णन मिलता है। बारहमासा के गीतों में स्त्रियों द्वारा अपनी विरह वेदना को व्यक्त किया जाता है। दूसरी ओर फाग या होली के गीतों में इस त्यौहार विशेष संबंधी उत्साह, हर्ष, प्रेम, श्रद्धा आदि की अभिव्यक्ति होती है।

संक्षेप में डॉ. महेश गुप्त के शब्दों में – “ऋतुगीतों पर स्त्री पुरुषों का लगभग समान अधिकार है, उल्लास से भरे ऋतु गीत, जिन्हें गाते समय मानव रस विभोर होकर थिरकने लगता है, तब ऐसा रसमय वातावरण उपस्थित हो जाता है माने ऋतुराज वसंत स्वयं इन लोगों के बीच फाग खेलने आ गया हो।..... सावन के महिने में पेड़ों पर झूला डालकर जहाँ एक ओर स्त्रियाँ सावन के गीत गाती हुई सावन की फुहार का आनन्द लेती हैं, वहीं दूसरी ओर पुरुष वर्ग भी सावन के सुहावने मौसम का आनन्द लेते हुए कजली गीत गाते-गाते झूम उठते हैं।”2

कुमाऊँनी में ऋतुगीत को ऋतुरेणकहतेहै, ऋतुरेंण में मंगलसूचक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की बहुलता होती है।

सावन के गीत :-

ऋतु संबंधी लोकगीतों में सावन के गीत की लोकप्रियता अधिक है। अपने नामानुसार यह गीत पावस ऋतु में विशेषतः सावन महीने में गाया जाता है। अलग-अलग प्रांतों में इस ऋतुगीत को अलगा-अलग नामों से जाना जाता है। कजली इस गीत का बहुत ही प्रचलित नाम है।

कजली को झूलागीत भी कहा जाता है। इस ऋतु में गाँवों में जगग-जगह झूले लगाये जाते हैं और स्त्री पुरुष झूला झूलते हुए इस गीत का आनंद लेते है।

झूल रहे श्याम लिए राधिका को साथ है

छैल है छबीलो वो अनाथन के नाम है

श्याम ने राधे की लट को संवारी है

शशि परमानों नागिन कारी है।

मिथिला तथा राजस्थान में प्रचलित क्रमशः मलार ( कारि कारि बदरा उमडि गगन माझे लहरी बहे पुरविया) तथा हिंडोले के गीत। पति-पत्नी की प्रेमलीलाओं का विषय हो या फिर प्रोषितपतिका की विरह व्यथा दोनों की ही स्वाभाविक व्यंजना इन गीतों में होती है।

चैता :-

इस गीत के गाने का समय चैत महीना है। यही इस के नामकरण का प्रमुख कारण है। अलग-अलग प्रदेशों में इस गीत के नामकरण में थोड़ा बहुत भेद मिलता है। जैसे भोजपुरी में चैता को कहीं कहीं घाटो नाम भी चलता है, तो मैथिली में यह चैतावर तो कहीं चैती नाम से जाना जाता हैं।

“रामान ननदी भउजिया दुनो पनिहारिन हो रामा

मिलि जुलि सागर भरे चलली हो रामा

रामा भरि घाट पनिया घरिलवों ना डूबे हो रामा

कुबन रसिकवा, वरिला जुठिअवले हो रामा।” (भोजपुरी )

“चैत बीति जयतइ हो रामा

तब पिया की करे अयतई?

डारे पाते भेल मतवलवा हो रामा

चैत बीति जयतई हो रामा।” (मैथिली)

वैसे लोकगीतों के सार्वभौम स्वरूप से संबद्ध एक तथ्य इसके रचयिता के अज्ञात होना है, किंतु चैता के कुछ गीत इस तथ्य का अपवाद कहे जा सकते है, क्योंकि चैता के कुछ गीतों के बुलाकीदास नामक रचयिता का नाम इन गीतों में पाया जाता है।”3

दास बुलाकी चइत घाँटो गाये हो रामा,

गाई गाई विरहिन समझावे हो रामा।

विषय वस्तु की दृष्टि से चैता के गीतों को एक तरह से प्रेमगीत भी कह सकते हैं भोजपुरी चैता के वर्ण्य विषय पर प्रकाश डालते हुए डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लिखते हैं –

“चैता प्रेम के गीत है। इनमें संभोग शृंगार की कहानी रागों में लिखी गई है। इनमें कहीं आलसी पति को सूर्योदय के बाद तक सोने से जगाने का वर्णन है, तो कहीं पति और पत्नी के प्रणय कलह की झाँकी देखने को मिलती है। कहीं ननद भावज के पनघट पर पानी भरते समय किसी दुश्चरित्र पुरुष द्वारा छेड़खानी का उल्लेख है तो कहीं सिर पर मटका रखकर दहीं बेचने वाली ग्वालिनों से कृष्ण के द्वारा गोरस माँगने का वर्णन है।”4

वसंत गीत (फाग या फगुआ के गीत-होली के गीत) :-

समस्त ऋतुओं में वसंतऋतु का स्थान सर्वोपरि है। धरती का नया साज शृंगार इसी ऋतु में ज्यादा होता है और इसी सौन्दर्य के परिणाम स्वरूप मनुष्य को एकरसता से उबा देने वाली पीड़ा से कुछ समय तक मुक्ति मिलती है। लोकजीवन पर इस ऋतु का रंग इस हद तक चढ़ता है कि वह अपने भावों को नृत्य एवं गायन द्वारा व्यक्त करता है। “वसंतऋतु में जब खेतों में सरसों के पीले फूल, आम्र-मंजरियों की मादक गंध, रंगबिरंगे पुष्पों पर मंडराते भौरों की गुन-गुन, कोकिल की कूहू कूहू की विरह में हूक उठाने वाली कूक, बासंती बयार, टेसू के लाल-लाल दहकते अंगारे जैसे फूलों के बीच प्रकृति मस्त और रंगीन हो जाती है तब हमारा मन भी उत्फुल्ल होकर मचल उठता है और फागु, फगुआ, रास, चैता के रंग बिरंगे गीत फूट पड़ते है।”5

इसी ऋतु में होली का पर्व मनाया जाता है। होली के गीतों व इस त्यौहार का संबंध फाल्गुन महीने एवं वसंतऋतु से होने के कारण इनको फाग-फगुआ या कहीं कहीं वसंत गीत नाम देकर इन्हें ज्यादातर ऋतु संबंधी गीतों में भी स्थान दिया गया है।

“होली के अवसर पर गाए जाने वाले इन गीतों की गति, उनकी भाषा का बंध, स्वरों का संधान त्यंत मीठा होता है। होली के गीत गाते समय ढोल, मंझीरे, झाँझ आदि बजाए जाते हैं। लगभग सारे गीत उमंग एवं उत्साह के साथ गाए जाते हैं।”6

वर्ण्य विषय का वैविध्य इन गीतों में पाया जाता है डॉ गिरीशरसिंह पटेल ने अपनी हिन्दी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन नामक पुस्तक में वर्ण्य विषय के आधार पर होली के गीतों को निम्न भागों में विभक्त किया है –

1.    चाचर

2.    देवताओं से संबंधित गीत

3.    राष्ट्रीय भावना संबंधी गीत

4.    होली-प्रसंग पर आधारित गीत

5.    गाली गीत

6.    फगुए की गवनई

संक्षेप में होली या फाग के गेय गीतों में उत्साह और हर्ष का वर्णन सर्वत्र देखा जा सकता है। इनमें शृंगार इसकी स्वाभाविक व्यंजना के साथ धार्मिक पात्रों के जीवन संबंधी विविध प्रसंगों का वर्णन एवं राष्ट्रीय भावना का पुट भी मिलता है।

राधा और कृष्ण की होली का वर्णन संबंधी कुछ उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है-

बजे नगारा दसों जोडी, हाँ, राधा किशन खेलै होरी

दूनौ हाथ धरै पिचकारी, धरे पिचकारी, धरे पिचकारी

ब्रज की गोपियों के संग कृष्ण होली खेल रहे है -

होरी खेलत है गिरधारी, मुरली चंग बजत डफ भारी

वैसे भी ब्रज की होरी की लोकप्रियता सर्वत्र सर्वाधिक रही है। निम्न गीत में ब्रज की होली का वर्णन देखिए –

आज बिरज में होरी रे रसिया-होरी रे,

रसिया बरजोरी रे रसिया... आज बिरज में।

अपने अपने महल सों निकी

कोई श्यामल कोई गोरी रे रसिया.... आज बिरज में।

बरसाने की होली का वर्णन करते हुए एक गीत में होली खेलते राधा-कृष्ण की उम्र का जिक्र विशेष रूप से हुआ है –

चलो बरसाने खेलो होरी,

ऊँचो गाँव बरसाने

कहिए तहाँ बसै राधा गोरी।

पाँच बरस के कुँवर कन्हैया

सात बरस की राधा गोरी।

इसी तरह राम और सीता से संबंधी होली गीतों की संख्या भी कम नहीं है –

रथ बैठ सिया बिलखाया, हमारो राम बिना बिछुडनभओ।

सिया संग राम चले वनवास

भेजन सवै अवध गओ।

राम और सीता के होली खेलने का वर्णन करने वाला बहुत ही प्रसिद्ध गीत है –

होरी खैलै रघुवीरा अवध में होरी।

केकरा हाथ कनक पिचकारी,

केकरा हाथ अबीरा।

राम के हाथ कनक पिचकारी

सीता के हाथ अबीरा

होरी खैले रघुबीरा अवध में होरी।

इसके अतिरिक्त कई गीतों में महादेव, गणेश, पार्वती, हनुमान आदि अनेकानेक धार्मिक पात्रों को भी वर्ण्य विषय का आधार बनाया गया है।

शृंगार रस परक होली गीतों में संयोग-वियोग उभयभावी - स्थितियों की अभिव्यक्ति हुई है।

एक राजस्थानी गीत में विरहिणी की दशा का वर्णन कितना मर्मस्पर्शी है-

फागण आय गयो,

आरा रा सायबा चंग बजावे जी

ज्यारी गीत ज गाये घड़ नार।

आरा रा सायबा घरा बसै

कोई म्हारां समदरां पार।

ओरां रा सायबा होली खेलै

ज्यारे लूट रमै घर नार

फागण आय गयो।

होली के अवसर पर गाए जाने वाले विविध विषय संबधी गीतों में कुछ जगह कबीर गाने का भी प्रचलन है। जिसके अंतर्गत गाली गाई जाती है।

बारहमासा :-

इस प्रकार के गीत में विरहिणी की बारह महीनों की व्यथा का निरूपण होता है। यह विरह गीत साल के आनेवाले प्रत्येक महीने-कार्तिक, मिगसर, पोष, अगहन, माघ, फाग्लुन आदि को सम्बोधित करके गाया जाता है। इसको गाने का समय विशेषतः वर्षाऋतु है। विरह वर्णन ही इन गीतों का केंद्रीय विषय होता है। “बारहमासा के गीतों में विभिन्न महीनों में विरहिणी के शरीर पर बीतने वाली असह्य वेदनाओं का चित्रण मिलता है। ये गीत उन सभी धरती की पुत्रियों के हैं जो बहू बनकर इन्हें गाती है और हृदय की दाह बुझाती है।”7

बारहमासा के गायन का समय तथा उसके वर्ण्य विषय को लेकर तो लगभग विविध प्रदेशों में पाए जाने वाले सभी बारहमासा गीतों में साम्य मिलता है किंतु इन गीतों का प्रारंभ किस महीने से होता है, या होना चाहिए इस संबंध में एक जैसी स्थिति नहीं है।

“लोकसाहित्य में बारहमासा संज्ञक गीतों का बडा महत्व रहा है और विद्वानों का मानना है कि परिमार्जित साहित्य में तो बारहमासो का लगभग ८०० वर्षों का इतिहास है, उसके मूल में भी बारहमासा संज्ञक लोककाव्य प्रकार रहा है। बारहमासों का मूल उद्देश्य वर्ष के महीनों से जुडे, परिवर्तनशील प्राकृतिक परिवेश के परिप्रेक्ष्य में नायिका की विरहावस्था या अपवाद रूप में उसके मिलनसुख को दर्शाना रहा है। कथ्य की एक रूपता के चलते बारहमासो में एक आधारभूत समानता मिलना स्वाभाविक है, फिर भीबारहमासा का कोई एक बंधा-बंधाया शिल्प और छंद-विधान नहीं रहा है और इस दृष्टि से बारहमासा को एक काव्य-रूढ़ि कविता विचार या थीम मानना बेहतर होगा इसी प्रकार उसको गाने की भी कोई अलग या खास शैली या धुन नहीं रही है।”8

वस्तुतः बारहमासा का स्थान व महत्व लोकसाहित्य तथा शिष्टसाहित्य दोनों में हैं। शिष्ट साहित्य में तो यह विप्रलम्भ शृंगार संबंधी काव्य की एक विशेष पद्धति के रूप में स्थापित है। प्रारंभ से विरह विर्णन के अंतर्गत बारहमासा के वर्णन की परंपरा रही है। कवियों ने वर्ष की छहों ऋतुओं तथा बारह महीनों की प्रकृति के अनुसार नायिका की स्थिति का चित्रण किया है। अब्दुर रहमान का संदेश रासक हो, जायसी का नागमती वियोग खंड (पद्मावत) हो या फिर मैथिली शरण गुप्त के साकेत में उर्मिला का विरह वर्णन (षटऋतु के माध्यम से) आदि में विविध महीनों व ऋतुओं को आधार बनाया गया है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्राचीनता की दृष्टि से बारहमासा के निरुपण में शिष्ट साहित्य की तुलना में लोकसाहित्य दो कदम आगे ही रहेगा। शिष्ट साहित्य में बारहमासा के वर्णन का प्रेरणा स्रोत भी लोकसाहित्य ही रहा है। किंतु साहित्यजगत में बारहमासा का जो स्थान तथा महत्व है, जिसका ज्यादा श्रेय शिष्ट साहित्य को ही जाता है। शिष्ट साहित्य के अनेकों कवियों द्वारा इसे वर्ण्य विषय बनाने की वजह से उक्त प्रकार की विस्तृत व व्यापक चर्चा को एक ठोस आधार प्राप्त हुआ है।

मैथिली लोकसाहित्य के विशेषज्ञ श्री रामइकबालसिंह राकेश बारहमासा के गीतों के भावसौन्दर्य के सन्दर्भ में लिखते हैं- “बारहमासा मैथिली लोकसाहित्य की अनुभूत्यात्मक व्यंजना है। इसके नैसर्गिक सौन्दर्य के सामने कीट्स की हल्के पैर, गहरे नील रंग की बनफशा-सी आँखें, काढे हुए बाल, मुलायम पतले हाथ, श्वेत कंठ और मलाईदार वक्ष प्रदेशवाली भी फीकी पड़ जाती है। बारहमासा की भावधारा पुरानी शराब की चोखी और चित्र देवदारू सा स्वच्छ है। पद में शृंगार की रोचक सरसता है।”9

भोजपुरी बारहमासा का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है –10

जिसमें पति के विदेशगमन पर एक विरहिणी स्त्री अपनी सखी को संबोधित करते हुए बारहमहीनों में अपने वियोगीजीवन की स्थिति को बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत करती है।

प्रथम मास अषाढ़ सखिन हो : गरजि गरजि के सुनाई ।

सामी के अइसन कठिन जियरा, मास असाढ़ नहिं आय ॥1॥

सावन रिमझिम बुनवा बरिसे; पियवा भींजेला परदेश ।

पिया पिया कहि रटेले कामिनि, जंगल बोलेला मोर ॥2॥

भादो रइनी भयावन सखि हो, चारू ओर बरसेला धार ।

चकवी त चारू और मोर बोले दादुर सबद सुनाई ॥3॥

कुवार ए सखी कुँवर विदेसे गइलें, तोनि निवास ।

सीर सेनुर, नयन काजर जोबन जीव के काल ॥4॥

कातिक ए सखि कति की लगतु है: सब सखि गंगा नहाय ।

सब सखि पटिरे पाट पीताम्बरः हम धनि लुगरो पुरान ॥5॥

अगहन ए सखि गवना करवले तब सामी गइलें परदेश ।

जब सेगइले सखि चिठियों ना भेजलें, तनिको खबरियों नलस ।।6॥

पुस ए सखि फसे फुसारे गइलें हम धनि बानी अकेली ।

सून मंदिलबा, रतियों न बीते, कब दों न टोइहें बिहान ॥7॥

माघ ए सखि जाडा लगतु है; हरि बिनु जाडा न जाई ।

हरि मोरा रहितें त गोद में सोबइते, असर न करिते जाडा ॥8॥

फागुन ए सखि फगुआ मचतु है; सब सखि खेलत फाग ।

खेलत होली लोग करेला बोली; दगधत सकल शरीर ॥9॥

चैत मास उदास सखि हो, एहि मासें हरि मोर जाई ।

हम अभागिनी कालिनि साँपिनि; अवेला समय बिताई ॥10॥

बइसाख एसखि उखम लागे; तन में से ढूरेला नीर ।

क कहीं अहि जोगनिया के; हरिजी के राखेले लोभाई ॥11॥

जेठ मास सखि लूक लागे; सर सर चलेला समीर ।

अबहू ना सामी घरवा गवटेला ओकरा अँखियों ना नीर  ॥12॥

(लोकगीत स्वरूप एवं प्रकार’ - पुस्तक से)

                                                      


डॉ. हसमुख परमार
एसोसिएट प्रोफ़ेसर

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

सन्दर्भ -

1.    काव्यशास्त्र, प्रधान संपादक, आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. २०३

2.    लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन डॉ. महेशगुप्त, पृ. ६५

3.    लोकसाहित्य की भूमिका कृष्णदेव उपाध्याय, पृ. ८६

4.    वही, पृ. ८६

5.    भरथरी लोकगाथा की परंपरा, डॉ. रामनारायण धुर्वे, पृ. ५२

6.    हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, खंड-१६, पृ. ६८

7.    गढ़वाली लोकसाहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन, मोहनलाल बाबूलकर, पृ. ५६

8.    वैचारिकी (पत्रिका) अगस्त दिसम्बर-२०१०, सं. बाबूलाल शर्मा, लोक में बारहमासाः बारहमासा में लोक, विजय वर्मा, पृ. २६

9.    मैथिली लोकगीत, श्रीराम इकबालसिंह राकेश’, पृ. ३६०

10.  भोजपुरी लोकगीत भाग-१, कृष्णदेव उपाध्याय, पृ. २८९-२९०

 

 

 

 

 

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बढ़िया आलेख सर ऐसे ही लोक गीत और लोक साहित्य के संदर्भ में आपसे और जानकारी मिलती रहे ऐसी आशा के साथ वंदन सर. भरत पी वणकर.
    पीएचडी शोध छात्र

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  2. बहुत ही बढ़िया आलेख, ऐसे ही लोक गीत और लोक साहित्य के संदर्भ में आपसे और जानकारी मिलती रहे ऐसी आशा के साथ वंदन.

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  3. 🙏
    प्रकृति प्रेरित लोकगीत पर सुन्दर आलेख...
    धन्यवाद Sir प्रकृति से जुड़े लोकगीतों एवं उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी से परिचय करवाने के लिए।

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  4. बहुत सारगर्भित ,सुन्दर , ज्ञानवर्धक आलेख ।
    हार्दिक बधाई एवम् आभार।

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  5. सुंदर आलेख और लोक गीतों का सुंदर वर्णन । लेख पढ़कर आनंद आ गया ।

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  6. "जीवन में बसंत फिर लौटा है
    सूखी डाली तू शोक न कर.."
    प्रिय अनुज,
    आज इस ' प्रकृति प्रेरित लोकगीत ' विषय पर आधारित सुंदर आलेख के माध्यम से सावन, चैता, और बसंत जैसे बारहमासो लोकगीत का सुंदर वर्णन पढकर ऐसा लगा मानो एकबार फिर से बचपन के पन्नों को पलटकर फिर से जी उठा | जीवन में बसंत फिर से लौट आई |
    धन्यवाद
    (पंकजकुमार एम.परमार,)
    हिंदी विषय शिक्षक - बडौदा

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  7. लोकगीतों का बहुत अच्छा वर्णन

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  8. लोकगीतों का बहुत अच्छा वर्णन

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