प्रकृति
से मानव का रागात्मक संबंध शाश्वत एवं चिरंतन है । भारतीय वाड्मय में प्रकृति
चित्रण की सशक्त परंपरा रही है । वैदिक युग से लेकर, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं
अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही नहीं अपितु पाश्चात्य साहित्य में भी प्रकृति
चित्रण प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है । कुछ कवियों (सुमित्रा नंदन पन्त आदि) के
सृजन की प्रेरणा ही प्रकृति रही है । प्रकृति के मनोहारी रूप एवं सूक्ष्म
पर्यवेक्षण को कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है । काव्य में प्रकृति
चित्रण के अंतर्गत ‘ऋतु वर्णन’ को विशिष्ट
स्थान एवं महत्त्व प्राप्त है । ऋतुचक्र की गतिशीलता को असंख्य कवियों ने अपने काव्य
में विभिन्न रूपों/ शैलियों में निरूपति किया है । प्राचीन काव्य परंपरा से ही ऋतु
वर्णन के अंतर्गत ‘षट्ऋतु वर्णन’ को प्रमुख विषय के रूप में देखा गया है, साथ ही ‘बारहमासा’ के महत्त्व को कैसे भुलाया जा सकता है । बारहमासा का वर्णन विशेषतः वियोग शृंगार
के सन्दर्भ में एवं षड्ऋतु का वर्णन संयोग-वियोग शृंगार के सन्दर्भ में किया है । नायक-नायिका
के विरह एवं मिलन को प्रकृति के आलंबन-उद्दीपन दोनों रूपों में कवियों ने प्रस्तुत
किया है । वैसे कहीं-कहीं पर इनका वर्णन एक स्वतंत्र विषय के रूप में भी हुआ है ।
हिन्दी
काव्य के इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो हम देख सकते हैं कि अनेक ऐसी काव्य
रचनाएँ है जिनमें पूरी छ ऋतुएँ (वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत एवं शिशिर) और पूरे बारह महीनों (चैत्र, वैशाख,
ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण,
भाद्रप्रद, आश्विन, कार्तिक,
मार्गशीर्ष, पौष, माघ
एवं फाल्गुन) का क्रमशः वर्णन मिलता है । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी कवि है जिनकी अलग-अलग
रचनाओं में अलग-अलग ऋतुओं का वर्णन हुआ है जिसमें इन्होंने प्रकृति एवं इसके
प्रभाव को प्रस्तुत किया है ।
हिन्दी
के आदिकालीन काव्य संसार की अनेकों कृतियों में ऋतु वर्णन की छटा देखी जा सकती हैं
। अप्रभंश कृति ‘संदेशरासक’ अब्दुल रहमान द्वारा रचित विरह काव्य है । इसमें
ग्रीष्म ऋतु से प्रारंभकर विभिन्न ऋतुओं के विरह जनित कष्ट वर्णित है ।
चंदबरदाई
द्वारा पिंगल शैली में रचित हिन्दी के प्रथम महाकाव्य ‘पृथ्वीराजरासो’ में प्रकृति
चित्रण दिखाई देता है । विशेषतः प्रकृति के उद्दीपन रूप के साथ कवि ने बड़ी कुशलता
से ‘षट्ऋतु वर्णन’ भी प्रस्तुत किया है । “प्रकृति के इस उद्दीपन रूप के अंतर्गत कवि
ने षट्ऋतुओं का वर्णन बड़े मनोयोग के साथ किया है । ‘कनवज्ज’ समय में तो कवि
ने षट्ऋतुओं के वर्णन द्वारा अपने अद्भूत
काव्य कौशल का परिचय दिया है ।” (हिन्दी के प्राचीन प्रतिनिधि कवि, द्वारिका
प्रसाद सक्सेना, पृ. 21)
आदिकाल
की एक और श्रेष्ठ कृति ‘बीसलदेवरासो’ में कवि नरपति नाल्ह ने ‘वियोग शृंगार’
का विशद निरूपण किया है । इसमें प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण बारहमासा के रूप
में हुआ है, यथा -
चालऊ
सखि!आणो पेयणा जाई,आज दी सई सु काल्हे
नहीं।
पिउ
सो कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा, हे काग।
ते
धनि विरहै जरि मुई, तेहिक धुंआ हम्ह लाग।
रासो-साहित्य
का एक अन्य विशाल काव्य ग्रन्थ दलपतिविजय द्वारा रचित ‘खुमाणरासो’ में
भी बारहमासा एवं षट्ऋतु का चित्रण हुआ है ।
मैथिल
कोकिल ‘विद्यापति’ ने अपनी ‘पदावली’ में संयोगावस्था वर्णन में षट्ऋतु एवं वियोग-व्यथा
को बारहमासा वर्णन शैली में प्रस्तुत किया है । इसमें आलंबन रूप में वसंत ऋतु का
सुन्दर चित्रण दिखाई देता है, उदहारण –
मलय
पवन बह, बसंत विजय कह, भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल।
ऋतुपति
रंग हेला, हृदय रभस मेला। अनंक मंगल
मेलि, कामिनि करथु केलि।
तरुन
तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे।
सूफ़ी
कवि मलिक मोहम्मद जायसी की उत्कृष्ट कृति ‘पद्मावत’ में ऋतु वर्णन बहुत विस्तार से मिलता है । मसनवी शैली का काव्य होने के
बावजूद भी इसमें भारतीय काव्य शैलियों का निर्वाह हुआ है । प्रकृति वर्णन के आलंबन-उद्दीपन
रूप के साथ ‘षट्ऋतु’ एवं ‘बारहमासा’ वर्णन इसमें विशेष आकर्षण का केंद्र रहा है । वसंत
के वैभव का सुन्दर चित्रण देखिए –
आजु
बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत
सब साजा ॥
नवल
सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि
फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
कृष्ण
भक्ति परंपरा के प्रमुख कवि सूरदास ने अपने काव्य में ऋतुचक्र के अनुसार परिवर्तित
प्रकृति का चित्रण कुछ इस प्रकार किया है –
सदा
बसंत रहत जहँ बास। सदा हर्ष जहँ नहीं उदास।।
कोकिल
कीर सदा तहँ रोर। सदा रूप मन्मथ चित घोर।।
विविध
सुमन बन फूले डार। उन्मत मधुकर भ्रमत अपार।।
ऋतु
वर्णन की पद्धति से गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ भी अछूता नहीं रहा
है । इसमें भी तुलसीदास जी ने एक अलग ही सन्दर्भ में वर्षा एवं शरद ऋतु का सुन्दर वर्णन
किया है । जनक वाटिका में राम-लक्ष्मण के आगमन की प्रस्तुति देखिए –
भूप
बागु वट देखिऊ जाई, जहं बसंत रितु रही
लुभाई।
‘काव्य
कल्पद्रुम’ तथा ‘कवित्त रत्नाकर’ के
रचियता सेनापति को भक्तिकाल एवं रीतिकाल के संधिकाल के कवि के रूप में देखा जाता
है । इनके काव्य में भक्ति एवं शृंगार दोनों प्रवृत्तियों का समाहार हुआ है । उपर्युक्त दोनों ग्रंथों में प्रस्तुत किया गया षट्ऋतु
वर्णन हिन्दी साहित्य का बेजोड़ वर्णन कहा जा सकता है । वसंत ऋतु की छटा बिखेरती कुछ
पंक्तियाँ –
बरन
बरन तरु फूले उपवन वन, सोई चतुरंग संग
दल लहियतु है।
बंदी
जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है, गुंजत
मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे
आस-पास पुहुपन की सुवास सोई, सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा
को समाज सेनापति सुख साज आजु, आवत
बसंत रितुराज कहियतु है॥
रीतिकालीन
काव्य में ऋतु वर्णन में प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा उद्दीपन रूप का चित्रण
ज्यादा हुआ है । शृंगारिक कवि बिहारी भी इस प्रवृत्ति से मुक्त नहीं है । बिहारी ने
अपने दोहों में विविध ऋतुओं की सुन्दरता को रेखांकित किया है । इनके काव्य में उद्दीपन
रूप के वर्णन के साथ प्रकृति के स्वतंत्र आलंबन का वर्णन भी कहीं-कहीं मिलता है; जैसे
बसन्त ऋतु वर्णन –
बौरसरी
मधुपान छक्यौ, मकरन्द भरे अरविन्द
जुन्हायौ ।
माधुरी
कुंज सौं खाइ धका, परि केतकि पाँडर कै
उठि धायौ ।
सौनजुही
मँडराय रह्यौ, बिनु संग लिए
मधुपावलि गायौ ।
चंपहि
चूरि गुलाबहिं गाहि, समीर चमेलिहि चूँवति
आयौ।।
कवि
देव ने भी ज्यादातर उद्दीपन रूप में प्रकृति चित्रण करते हुए ऋतु वर्णन को अपने
काव्य में स्थान दिया है । घनानंद के ऋतु वर्णन में वसंत –
घुमड़ी
पराग लता-तरु भोए । मधुरित-सौरभ-सौज-सजोए ।।
वन
वसंत वरनत मन फूल्यो । लता-लता झूलनि संग झूल्यो ।।
आदिकाल,
भक्तिकाल एवं रीतिकाल के काव्य में जिस तरह का बारहमासा एवं षट्ऋतु वर्णन विस्तृत और
क्रमशः मिलता है, इस प्रकार का वर्णन आधुनिक काल में कम मिलता है । भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन कविता के बाद
छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद समकालीन कविता में प्रकृति का चित्रण आलंबन रूप में
दिखाई देता है ।
आधुनिक
काल में ऋतु वर्णन के विस्तार एवं क्रमबद्धता के अभाव के प्रमुख कारणों में एक कारण
यह है कि इस काल की कविता में कथात्मकता क्षीण होती गई । इसका एक और प्रमुख कारण
यह भी हो सकता है कि कवियों के सरोकारों में बदलाव आया है । इन कारणों से इस काल
में ऋतु वर्णन तो मिलता है लेकिन विस्तार एवं क्रमबद्धता का अभाव रहा । कवियों ने
अपनी कविताओं में अलग-अलग ऋतुओं का वर्णन किया है, जो प्रकृति के आलंबन रूप में
ज्यादा है । कवियों ने अपने काव्य में जिस तरह से मनुष्य का वर्णन किया है उसी तरह
से प्रकृति निरिक्षण के पश्चात् इसका यथातथ्य वर्णन किया है । यह वर्णन ऋतुओं की
विशेषताओं को चित्रित करते हैं ।
भारतेंदु
एवं द्विवेदी युग के कवियों में भारतेंदु और अयोध्यासिंह उपाध्याय हरीऔध के काव्य
में प्रकृति का विविध रूप में चित्रण प्राप्त हुआ है । मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘साकेत’
महाकाव्य हिन्दी रामकाव्य परंपरा की
महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में प्रस्तुत है । इसके नवम् सर्ग में लक्ष्मण की
पत्नी उर्मिला के विरह वर्णन को कवि ने षट्ऋतु वर्णन शैली में प्रस्तुत किया है । पूरे वर्ष की छः ऋतुओं को कवि ने क्रमशः
वर्णन विरह जोड़कर प्रस्तुत किया है । इस तरह कवि ने उर्मिला की चौदह वर्ष की
वियोगावस्था को संकेतित किया है ।
छायावादी
कवियों ने अपने काव्य में प्रकृति की मनोरम छटा अंकित की है । जयशंकर प्रसाद कृत ‘कामायनी’
में बसंत ऋतु का सौन्दर्य देखिए –
कौन
हो तुम बसंत के दूत?
विरस पतझड़ में अति सुकुमार
घन
तिमिर में चपला की रेख तमन में शीतल मंद
बयार।
प्रकृति
के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त ने काव्य में प्रकृति चित्रण भरपूर मात्रा में
हुआ है । इनकी रचनाओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों के चित्रण के साथ बसंत ऋतु
वर्णन भी दिखाई देता है । ‘मौन निमंत्रण’ की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत
है –
देख
वसुधा का यौवनभार, गूँज उठता है जब
मधुमास।
विधुर
उर कैसे मृदु उद्गार, कुसुम जब खिल
पड़ते सोच्छवास।
न
जाने सौरस के मिस कौन, संदेशा मुझे भेजता
मौन।
सूर्यकांत
त्रिपाठी ‘निराला’ की कविताओं में प्रकृति चित्रण के साथ ऋतु वर्णन भी कई कविताओं
में मिलता है । निराला की प्रसिद्ध रचना ‘सखि,
वसंत आया’ से कोई भी साहित्य
प्रेमी अपरिचित नहीं है । इनकी अन्य रचनाओं जैसे - ‘सरोज स्मृति’, फिर
बेले में कलियाँ आईं.., कूची
तुम्हारी फिरी कानन में...,रँग गई पग-पग धन्य धरा
आदि में भी वसंत का वर्णन मिलता है, यथा –
रँग
गई पग-पग धन्य धरा – / हुई जग जगमग मनोहरा ।
वर्ण
गंध धर, मधु-मरन्द भर /तरु उर की अरुणिमा
तरुणतर /खुली रूप कलियों में पर भर... गूँज उठा पिक-पावन पंचम / खग-कुल-कलरव मृदुल
मनोरम... ।
छायावाद
के सभी कवि प्रकृति चितेरे रहे हैं । महादेवी वर्मा भी उसी पंक्ति की कवयित्री है ।
उनकी कृति ‘सप्तपर्णा’ से बसंत केन्द्रित कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत है –
वसन्त
/ देव ! देखो मंजरित, / सहकार का तरु
/ गन्ध-मधु-सुरभित, / खिला जिसका सुमन - दल,/ बैठ जिसमें मधु- / गिरा में बोलता यह / लग रहा है हेम-- / पंजर - बद्ध
कोकिल-....।
इन
सभी कवियों के अतिरिक्त अज्ञेय, रामधारीसिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, नागार्जुन, नीरज,
गिरिराजकुमार माथुर, शमशेर बहादुर आदि और भी कई कवियों को इस पंक्ति में रखा जा
सकता है जिन्होंने अपने काव्य में प्रकृति चित्रण के साथ वसंत, ग्रीष्म, वर्षा आदि
ऋतुओं के चित्रों को अंकित किया है ।
हिन्दी
हाइकु काव्य में प्रकृति चित्रण प्रचुर मात्रा में हुआ है । हाइकु काव्य में विविध
ऋतुओं के वर्णन में बारहमासा एवं षट्ऋतु वर्णन को कई हाइकुकारों ने बड़ी कुशलता से अपने
हाइकु में चित्रित किया है । डॉ. सुधा गुप्ता का प्रथम हाइकु संग्रह ‘खुशबू का सफ़र’
एवं डॉ. कुँवर दिनेश सिंह कृत ‘बारहमासा’ संग्रह में बारहमासा एवं षट्ऋतु के मनोरम
बिम्ब देखे जा सकते हैं । अपने लघुकाय आकार के बावजूद भी ‘ऋतु वर्णन’ हाइकु की
विशेषता के रूप में उभर कर सामने आया है, यथा –
रंग,
ऐश्वर्य, / मधु, पराग,
गंध / मत्त बसंत । – डॉ. भगवतशरण अग्रवाल
फूलों
की टोपी / हरियाली का कुर्ता / दूल्हा वसंत ।
– डॉ. सुधा गुप्ता
हवा
डाकिया / बाँटता पीतपत्र /बसंतोत्सव । –
नीलमेंदु सागर
फूलों
की गंध / हवा के काँधों पर / सवारी करे । – कृष्णा वर्मा
मोहे
वसंत / भ्रम लिये भ्रमर / मायावी संत । –
डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
गेंदे
की क्यारी / बसंत की पगड़ी / खुली, बिखरी
। – अनिता मंडा
पुष्पों की माला / गेहूँ, सरसों बाली / अप्सरा बाला । –
डॉ. पूर्वा शर्मा
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हिन्दी काव्य में ऋतु वर्णन की परंपरा आदिकाल से लेकर अभी तक कायम है । हाँ, समयानुसार इसके रूप में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अवश्य आया है लेकिन साहित्य तो वैसे भी परिवर्तनशील रहा है । आशा करते हैं कि आने वाले समय में भी यह परंपरा कायम रहे, अस्तु !
डॉ.
पूर्वा शर्मा
वड़ोदरा
परिश्रमपूर्व लिखा गया उत्तम लेख्।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व श्रमसाध्य आलेख पूर्वा जी, बधाई आपको!
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