ममा
डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
अखिल अभी सात बरस का
नन्हा, अबोध बालक था। दूसरी कक्षा
में पढ़ रहा था। अक्षर-ज्ञान से कुछ आगे बढ़ रहा था। अपने आसपास की दुनिया के रंगों
को पहचानने लगा था; रंगों की अपील को,
रंगों
के भेद को, बूझने लगा था। अभी कुछ दिन
पहले उसकी माँ उसके लिए सुन्दर सी गुलाबी रंग की टी-शर्ट लाई तो उसने उसे पहनने
में आपत्ति जताई। कारण पूछा तो कहने लगा, "ममा,
पिंक
कलर तो गर्ल्ज़ का है, मैं तो ब्लू या व्हाईट
कल की टी-शर्ट लूँगा..." माँ देख रही थी कि बच्चा कुछ-कुछ बड़ा हो रहा था;
अपनी
पसन्द-नापसन्द रखने लगा था। न केवल रंगों की पसन्द करने लगा था,
बल्कि
टी.वी. सीरियल्ज़ में भी रुचि लेने लगा था। उसे अब पहचान थी कि किस चैनल पर कौन सा
सीरिअल आता था, कौन किरदार थे और कुछ-कुछ
सीरिअल में कथानक के प्रवाह को भी समझने लगा था। उसे लगभग सारा घटनाक्रम याद रहने
लगा था। चरित्रों को, पात्रों को,
समझने
लगा था; उनमें तुलना करने लगा था। यही
नहीं, अब वह अपने आस-पड़ोस के लोगों
को भी विश्लेषण व तुलना की दृष्टि से निहारने लगा था। सभी को बड़े ध्यान से बाँचने
लगा था; उनके आचार-व्यवहार को परखने
लगा था। पड़ोस की आँटी को देखता तो उसको अपनी माँ की तुलना में देखता। स्कूल में
मैडम को देखता, तो मन ही मन उससे अपनी माँ की
तुलना करने लगता।
अखिल
की माँ को उस दिन बहुत आश्चर्य हुआ और परेशानी भी हुई, जब
वह स्कूल से लौटने पर उससे पूछने लगा - "ममा, आशीष
की ममा कैसी अच्छी बनकर रहती है... आप वैसी क्यों नहीं रहती?"
"अच्छी हो . . . पर . . . वो . . . वो सुन्दर-सुन्दर माला पहनती है . . . बिंदी लगाती है . . . चूड़ियाँ पहनती है . . . लिपस्टिक लगाती है . . . आप क्यों नहीं लगातीं . . . ?"
"देख,
बेटे
. . . इन सब चीज़ों से कोई अच्छा या सुन्दर नहीं हो जाता
. . . अच्छाई और सुन्दरता तो इन्सान में अपने अच्छे गुणों से आती
है . . . पर तू क्यों सोचता है ये सब
. . . बड़ों की बातों पर ज़्यादा ध्यान मत दिया कर,
समझा
. . . ?" माँ थोड़ा डाँट कर बोली।
माँ
की डपट से अखिल थोड़ा सहमकर चुप रह गया। माँ ने उसे खाना खिलाया और फिर होमवर्क
पूरा करने का आदेश दे दिया। वह ख़ुद अखिल के साथ बैठ गई और जब तक सभी विषयों का
कार्य पूरा नहीं हो गया, उसी
के साथ बनी रही। सारे कार्य में एक घण्टे से अधिक समय भी नहीं लगा। सरकार की नई
नीति के अनुसार अब बच्चों को ज़्यादा होमवर्क नहीं दिया जा सकता था। ज़्यादा से
ज़्यादा कार्य स्कूल में ही करवाया जाए, ऐसे
निर्देश जारी हो चुके थे। इससे बच्चों को खेलने व अन्य पाठेतर गतिविधियों के लिए
समय काफ़ी बच जाता था। अखिल की माँ ने उसे ताना मारते हुए कहा ―"अब
एक तो तुम लोगों को होमवर्क भी ज़्यादा नहीं मिलता, बस
खेलने की तरफ़ ध्यान रहता है या फिर टी.वी. पर या फिर ऊलजलूल बातों पर..."
अखिल
ने माँ की बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। और होमवर्क ख़त्म होते ही तुरन्त बाहर
मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने के लिए जाने की इजाज़त माँगने लगा। इधर माँ ने
इजाज़त में सिर हिलाया और उधर वह दौड़ पड़ा घर से बाहर . .
.
पति
की अचानक एक कार-एक्सीडेंट में मृत्यु हो जाने के बाद बच्चे के पालन-पोषण के
साथ-साथ अन्य कई जिम्मेदारियों का बोझ अब अकेली निशिता के काँधों पर आ गिरा था।
सास-ससुर गाँव में पैतृक घर में रह रहे थे। वे वहाँ की थोड़ी बहुत जो ज़मीन थी,
उसकी
देखरेख करते हुए बुढ़ापे का वक़्त निकाल रहे थे। महीने में एक-आध बार बहू व पोते से
मिलने शहर भी आते।
निशिता
शहर में बच्चे की पढ़ाई व पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभा रही थी। पति राज्य के लोक-निर्माण
विभाग में अभियंता थे। अपने जीते-जी वे दो-मंज़िला एक मकान बनवा गए थे। ऊपर की
मंज़िल अपने लिए रखी थी। नीचे की मंज़िल में दो-दो कमरों के तीन सैट थे,
जो किराए पर दिए हुए थे। इनसे जो किराया मिलता, उसी
से निशिता अब सभी ख़र्चे पूरे करती। एक तीसरी मंज़िल अभी बननी बाक़ी थी,
मगर
अभी यह निशिता के वश में नहीं था। उस की एकमात्र प्राथमिकता थी बेटे अखिल की अच्छी
पढ़ाई और परवरिश।
अखिल
की बातों पर निशिता ने थोड़ा ग़ौर किया, मगर
फिर एक अबोध बच्चे की जिज्ञासा मात्र मानकर उसे गम्भीरता से नहीं लिया। उसे
बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि वह अखिल को किस तरह समझाए कि भारतीय समाज में एक
विधवा को शृँगार करने की इजाज़त नहीं है। मगर उस छोटे-से बच्चे को वह समाज के
क़ायदे-क़ानूनों व बंदिशों के बारे में क्या बता सकती थी। उसे ख़ुद समाज के नियमों को
ठीक से समझना मुश्किल हो रहा था तो उस नन्हे बच्चे को क्या समझा सकती थी। वह तो
सिर्फ़ इतना जान पाई थी कि समाज के रीति-रिवाज़ों, मान्यताओं,
विश्वासों
व नियमों का शांत रहकर पालन करते रहो तो जीवन शान्तिमय ढंग से चल सकता है और यदि
इनमें कहीं कोई टकराव पैदा हुआ तो अशान्ति तो होगी ही, जीना
भी दुश्वार हो जाएगा। और समाज पुरुष-प्रधान होने से परम्पराओं व नियमों के पालन का
सारा बोझ महिलाओं पर रहता है। पति के न रहने के बाद एक बेवा का तो मानो आधा
अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। और जब आर्थिक स्वातन्त्र्य न हो तो आधा क्या,
अपना
अस्तित्व तो रह ही नहीं जाता; वह तो
आश्रित हो जाती है दूसरों पर, परिवार
पर, समाज पर। जहाँ कहीं वह लीक से हटी,
समाज
उससे (आत्म-)सम्मान के साथ सिर उठाकर जीने का अधिकार ही छीन लेगा।
वैसे
आस-पड़ोस में बड़े समृद्ध घरों से कुछ नारी-मुक्ति संगठनों से जुड़ी महिलाएँ निशिता
को उत्साहित करतीं एक सामान्य जीवन-यापन के लिए, किन्तु
वह उनके बहकावे में न आती। उसे उनके वचनों में प्रचारबाज़ी ज़्यादा दिखती;
सही
चिन्ता व सहानुभूति कम दीख पड़ती थी। मन तो निशिता का भी करता कि वह भी रंग-बिरंगे,
चटकीले
कपड़े पहने, गहने पहने,
शृँगार
करे ―
एक
समय था जब वह प्राय: जैसे कि करवा-चौथ के दिन, तीज-त्यौहार
के मौक़े पर, नवरात्रि-दिवाली व बसन्त-पंचमी
जैसे पर्वों पर और विवाहादि उत्सवों में ख़ूब शृँगार करती थी ―
सोने से लदी तो वह कैज़ुअली भी रहती थी। किन्तु कुछ वह समाज के भय से,
अशान्ति
के भय से, परम्परा में ढल गई और कुछ वह
अपने पति के प्रति प्रेम व आदर के भाव के कारण भी समाज के चलन को स्वीकार किए हुए
थी। लेकिन एक बच्चे को यह सब समझा पाना अभी सम्भव नहीं था। वह बेचारा तो अभी तक
ठीक से पिता की मृत्यु को भी समझ नहीं पाया था।
निशिता
सोच में डूबी हुई थी कि अचानक डोर-बेल बजी। उसने दरवाज़ा खोला,
अखिल
खेल कर थका-थका वापिस आया था। साँझ ढल गई थी। सूर्य रोज़ की तरह आँखें मूँदे प्रयाण
कर चुका था। अखिल टी.वी. पर कार्टून नेटवर्क लगाकर बैठ गया। निशिता रसोईघर में रात
के भोजन की तैयारी में लग गई। खाना पकाने में पौना-एक घंटा लग गया। इस दौरान अखिल
कार्टून प्रोग्राम देखता रहा। खाना तैयार हो जाने पर निशिता घर के एक कोने में पूजा
के लिए बनाए स्थान पर साँध्यकालीन पूजा-आरती के लिए गई। उसने अखिल को भी वहाँ
बुलाया। दोनों पूजा के लिए बैठ गए। माँ ने जोत-अगरबत्ती जलाई और आरती गाई,
बेटे
ने भी ताली बजाकर साथ दिया। इस नित्य सन्ध्या के बाद दोनों ने भोजन किया। निशिता
कुछ देर टी.वी. पर महिलाओं से सम्बन्धित सीरियल देखने में व्यस्त हो गई।
उधर
अखिल अपनी छोटी-छोटी कार, जीप
और अन्य खिलौनों के साथ खेलने में मशग़ूल हो गया। मुँह से गाड़ियों के चलाने की
हुम्-हुम् की आवाज़ें भी निकाल रहा था। माँ बीच-बीच में टोकती कि आवाज़ न करे। मगर
अनजाने ही रुक-रुक कर वह फिर आवाज़ें निकालने लगता। माँ के व्यस्त रहने पर वह अक्सर
इसी प्रकार ख़ुद ही में मस्त रहता।
टी.वी.
पर सीरियल के ख़त्म होने पर निशिता ने अखिल से भी खेल बंद कर अब सो जाने को कहा।
अखिल ने सोने से पहले एक कहानी सुनने की इच्छा व्यक्त की। उसके दादा-दादी भी उसे
कहानी ज़रूर सुनाते थे। माँ ने भी पंचतन्त्र की एक छोटी-सी कहानी सुनानी शुरू कर
दी। मगर अखिल ने यह कहानी पहले भी सुनी हुई थी। उसने कोई नई कहानी सुनाने का आग्रह
किया। माँ का मन कुछ उखड़ा हुआ था। उसने अखिल को थोड़ा डपट कर वही कहानी सुनने को
कहा और ज़ोर दिया कि वह जल्दी सो जाए। उसे सुबह भी जल्दी उठकर स्कूल जाना था। कहानी
सुनते-सुनते उसे नींद आ गई और कुछ देर में निशिता की भी आँख लग गई।
अगली
सुबह फिर से वही दिनचर्या प्रारम्भ। प्रात: जल्दी-जल्दी अखिल को तैयार कर आठ
बजे निशिता उसे स्कूल तक छोड़ने के लिए
निकल पड़ी। स्कूल क़रीब एक किलोमीटर की दूरी पर ही था।
रोज़
की तरह बेटे को स्कूल छोड़कर लौटने पर वह घर के सारे काम निपटाने में लग गई। दो बजे
फिर से अखिल को स्कूल से लाना था। जल्दी-जल्दी काम निपटा कर निशिता पौने दो बजे ही
स्कूल के प्राँगण में पहुँच चुकी थी। छुट्टी ठीक दो बजे होनी थी। और बहुत-से
बच्चों की माताएँ भी वहाँ पहुँच रहीं थीं। छुट्टी के इंतज़ार में सभी एक-दूसरे के
साथ चपड़-चपड़ गप्प-शप्प में लगीं थीं। हर रोज़ की तरह चर्चा के केन्द्रीय विषय थे ―
एक-दूसरे के सूट, साड़ी व गहने,
या
अपने-अपने बच्चों की बाल-लीलाएँ, या
सास-ससुर की आलोचना, या पतियों के तौर-तरीक़े,
या
फिर बच्चों की क्लास-टीचर पर टिप्पणियाँ।
निशिता
भी अखिल के घनिष्ठ मित्र आशीष की माँ के साथ बातचीत में व्यस्त हो गई थी। आशीष की
माँ बहुत सुन्दर थी। माथे पर बड़ी-सी लाल बिन्दी उसकी आभा को चौगुना कर देती थी।
दोनों बच्चों के बारे में ही बतिया रही थीं। एक दम घंटी की आवाज़ हुई। दो बज गए थे।
छुट्टी की घोषणा थी। सभी अभिभावक बच्चों को लेने गेट पर इकट्ठा हो गए। अध्यापकों
ने अपनी-अपनी कक्षा के बच्चों को लाईन में खड़ा कर दिया था और एक-एक करके बच्चों को
गेट से बाहर भेज रहे थे। पाँच मिनट में अखिल भी बाहर आ गया। वह तुरन्त माँ की तरफ़
दौड़ा और अपना बस्ता उतार कर उसे थमा दिया। साथ ही आशीष भी आ चुका था और उसने भी
अपना बस्ता अपनी माँ के पास दे दिया था। अब दोनों बच्चे हँसते-खेलते,
बतियाते,
हाथों
में हाथ डाले, कभी एक-दूसरे के काँधों पे हाथ
धरे जा रहे थे। दोनों की माँएँ भी बातें करतीं जा रहीं थीं। बातों बातों में आशीष
का घर आ गया। उसकी माँ ने निशिता से कुछ देर रुकने को कहा। पहले तो निशिता ने कुछ
आपत्ति जताई, मगर जब आशीष ने भी अखिल को कुछ
देर रुकने के लिए ज़ोर दिया, तो
निशिता मान गई।
इधर
निशिता आशीष की माँ से बातों में लग गई। स्वेटर की बुनाई; किसी
डिश की रेसिपी; बच्चों के विकास और कुछ
पारिवारिक समस्याओं को लेकर चर्चा चल रही थी। उधर अखिल और आशीष अपने-अपने बस्ते
उठाकर भीतर के कमरे में चले गए। दोनों अपनी बातचीत में व्यस्त हो गए। इस बीच आशीष
की माँ ने चाय बना दी व बिस्किट के साथ निशिता को परोसी। बच्चों के लिए दो गिलास
दूध कमरे में देकर आई। बातों-बातों में पता ही नहीं चला कैसे वक़्त बीत गया। दो
घंटे बीत गए थे। घड़ी में चार बजते देख निशिता खड़ी हो गई और आशीष की माँ से चलने की
इजाज़त माँगने लगी।
― "अब
हमें चलना चाहिए . . . हमने आपका बहुत समय ले लिया. . ."
― "नहीं,
नहीं,
आप
ऐसा क्यों कहतीं हैं? बहुत अच्छा लगा आप से
बातचीत कर के. . . और . . . अखिल और आशीष भी कितने मस्त हो गए हैं. . . इन बच्चों
की भी अपनी ही एक अलग दुनिया होती है. . ."
― "जी
हाँ, यह तो सही है. . ."
― "कुछ
देर और बैठो ना. . . बच्चों को खेल लेने दो. . . इन का जी अभी नहीं भरा. . ."
― "नहीं,
नहीं,
अब
चलना है. . . अखिल को होमवर्क भी कराना है; थक
कर यह सो जाता है, फिर काम का वक़्त नहीं
रहता. . . घर के और काम भी हैं. . ." ऐसा कहकर निशिता अखिल को आवाज़ लगाती है,
मगर
बच्चे अपनी बातों में इतने खोए थे कि अखिल को माँ की आवाज़ें सुनाए नहीं दीं। आशीष
की माँ और निशिता उन्हें बाहर लाने को कमरे में गईं। निशिता ने अखिल को चलने को
कहा –
― "अखिल,
घर
नहीं जाना है क्या?"
― "ममा,
हम
वीडियो गेम खेल रहे हैं, कुछ
देर रुक जाओ ना . . ."
आशीष
भी कहने लगा, "आँटी,
हमें
गेम पूरी करने दो ना . . ."
― "नहीं
बेटे, अब देर हो रही है;
हमें
चलना होगा . . . अखिल फिर किसी दिन आ जाएगा . . . (अखिल से) बेटे,
अब
चलो . . . अपना बैग उठाओ और चलो . . ."
अखिल
ने उन्मना-सा होकर बैग उठाया और बाहर की ओर को चल पड़ा। दरवाज़े तक आशीष और उसकी माँ
उन्हें बाय कहने को आए और उन्हें फिर आने को कहने लगे। निशिता ने भी उन्हें अपने
घर आमन्त्रित किया और इसके साथ ही वहाँ से विदा ली।
घर
पहुँचते ही, कपड़े बदलने के बाद,
माँ-बेटा
दोनों कुछ देर टी.वी. देखने बैठ गए। बेटा कोई कार्टून प्रोग्राम देखने की ज़िद्द कर
रहा था, मगर माँ ने महिलाओं का कोई
कार्यक्रम लगा दिया था। ऐसे में बोर होकर दस-बारह मिनट में ही अखिल की आँख लग गई।
टी.वी. से थोड़ा ध्यान हटने पर निशिता ने अखिल को सोते देख, उसे
कम्बल ओढ़ा दिया। और स्वयं उसके होमवर्क और क्लास टीचर से मिलने वाले अन्य किसी
निर्देश के लिए उसके स्कूल बैग से डायरी निकालने को बढ़ी।
बैग
खोलने पर पहले बाहर की ज़ेब से उसने लंच-बॉक्स निकालकर धोने के लिए अलग रखा और फिर
जब उसने डायरी निकालने के लिए बैग के अन्दर हाथ डाला, तो
उसका हाथ कुछ ऐसी चीज़ों पर पड़ा, जिनके
बारे में वह सोच भी नहीं सकती थी। लिपस्टिक, मस्कारा,
बिन्दियाँ
और कुछ चूड़ियाँ ― ये सब चीज़ें देखकर उसका माथा
ठनक गया। आख़िर अखिल ये सब कहाँ से लाया होगा? और
क्यों लाया होगा? किसी के यहाँ से चुराए
होंगे? पर किस लिए?
बच्चे
की इस हरकत पर उसका मन उद्विग्न हो उठा। उसने तुरन्त सो रहे बच्चे को झकझोरना शुरू
कर दिया।
― "अखिल
. . . अखिल . . . उठ . . . अखिल . . . उठ ज़रा . . ."
अखिल
की नींद टूट गई। आँखें मलता हुआ हैरानी में वह माँ की ओर देखने लगा। माँ को ग़ुस्से
में चिल्लाते हुए देख वह सहमा-सा, अवाक्
था। माँ फिर उसे झकझोरते हुए, उसकी
लाई चीज़ों को हाथ में लेकर बोली ―
"अखिल,
ये
सब कहाँ से लाया है तू? . . . बता
कहाँ से लाया है?"
माँ
को झल्लाते हुए देख अखिल डर के मारे कुछ नहीं बोला। उसे ख़ामोश देख माँ को उस पर और
सन्देह होने लगा। अब वह उसके कान मरोड़ते हुए पूछ रही थी - "जल्दी बता,
नहीं
तो सज़ा मिलेगी . . . तेरी पिटाई करूँगी और वॉशरूम में बंद कर दूँगी . . ." उसके इस प्रकार बार-बार धमकाने पर अखिल कुछ
रुक-रुक कर बोलने लगा –
"आ
. . . आशीष . . ."
वह
अभी कुछ बोल ही रहा था कि उसकी माँ ने प्जिर से चिल्ला कर झिड़का,
"क्या? तूने
आशीष के घर से चोरी किया ये सब? . . ." और
साथ ही उसने अखिल के गाल पर एक तमाँचा भी जड़ दिया।
अखिल
रोने लगा। माँ ने फिर उसके कान मरोड़ते हुए पूछा,
"सच-सच बता तूने चोरी क्यों की?"
सिसकते
हुए अखिल बोला, "ममा,
मैंने
चोरी नहीं की . . ."
― "फिर
ये सब सामान कहाँ से आ गया तेरे पास?"
― "मैंने
आशीष के साथ ऐक्स्चेंज किया है . . ."
― "क्या
मतलब? क्या ऐक्स्चेंज किया है?"
― "मैंने
उसे अपनी ट्वाय ट्रेन दी है . . . उसके बदले में ये लाया हूँ"
― "लेकिन
ये सब किस लिए उठा लाया?"
― "आपके
लिए . . ."
― "क्या?
मेरे
लिए? . . . लेकिन क्यों?"
― "वो
आशीष की ममा भी तो ये सब लगाती है . . . तो आपके लिए भी ले आया . . ."
― "लेकिन
तूने ऐसा क्यों किया?"
― "आप भी
आशीष की ममा की तरह सुन्दर दिखोगे . . ."
अखिल
के सिर पर हाथ फेरते हुए निशिता ने उसे गले से लगा लिया और कुछ पलों के लिए वह
चुप्प सी हो गई। ¡
डॉ. कुँवर दिनेश
सिंह
एसोसिएट
प्रोफ़ेसर(अंग्रेजी)
सम्पादक : हाइफ़न
#3,
सिसिल क्वार्टर्ज़, चौड़ा मैदान,
शिमला :
171004 (हि.प्र.)
बालमन का सुंदर विश्लेषण
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंबाल मनोविज्ञान की सुंदर कहानी।बधाई डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
जवाब देंहटाएंजी
बहुत धन्यवाद, जी!
हटाएं🙏 नमस्ते Sir. Your story was so beautiful, thoughtful and emotional जिसने ईदगाह के नन्हें हामिद कि याद दिलादी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबाल मनोविज्ञान की बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी कहानी। बधाई डॉ कुँवर दिनेश सिंह जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी!
हटाएं
जवाब देंहटाएं"मैंने उसे अपनी ट्वाय ट्रेन दी है . . . उसके बदले में ये लाया हूँ"
बहुत सुन्दर!
कोमल बालमन की भावपूर्ण कहानी के लिए कुँवर दिनेश सिंह जी को बधाई!
आभार!
हटाएंआभार!
हटाएंभावपूर्ण , बहुत ही सुन्दर कहानी , बधाई
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंबच्चों के मनस्थिति को उजागर करती प्रेरक कथा । बच्चों की भावनाएं बड़ों को समझनी चाहिए ।
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंआभार!
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