रविवार, 1 नवंबर 2020

आलेख

 

डॉ. पूर्वा शर्मा के हाइकु-काव्य में पिरोये प्रेम-पुलक पल

 

हिन्दी के आधुनिक साहित्य-संसार में महाकाव्य, खण्डकाव्य, लम्बी कविता एवं प्रमुख गद्य विधाओं की अति दीर्घ एवं संपन्न परंपरा रही है । साहित्य के उक्त रूपों की तुलना में हाइकु जरूर थोड़ा नया और बहुत छोटा काव्यरूप है, परंतु विगत कुछ वर्षों में इस विधा विशेष के क्षेत्र में हुए उम्दा सृजन की बदौलत आज इस नन्हे कद की कविता ने एक स्वतंत्र व समुन्नत स्वरूप ग्रहण कर लिया है । पिछले तीन-चार दशकों के हिन्दी हाइकु-काव्य में सिलसिलेवार डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, डॉ. सुधा गुप्ता, श्रीमती उर्मिला कौल, डॉ. शैल रस्तोगी, कमलेश भट्ट, नलिनीकांत, डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. राजकुमारी शर्मा, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, श्री नीलमेंदु सागर, डॉ. गोपालबाबू शर्मा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, श्री सदाशिव कौतुक, श्री श्याम खरे, डॉ. कुँवर दिनेश, डॉ. भावना कुँवर, डॉ. हरदीप कौर सन्धु, पुष्पा मेहरा, रचना श्रीवास्तव, भावना सक्सैना, डॉ. धनंजय चौहान, डॉ. धीरज वणकर प्रभृति कवियों का अवदान विशेष उल्लेखनीय रहा है । इस सूची में इन दो-तीन वर्षों में एक नाम जुड़ा है – डॉ. पूर्वा शर्मा ।

डॉ. पूर्वा शर्मा की हाइकु विषयक समीक्षात्मक और सर्जनात्मक प्रतिभा को मैंने बहुत निकट से जाना-पहचाना है । इनके हाइकु संबंधी समीक्षा कौशल का प्रमाण है -  इस विषय क्षेत्र में इनके द्वारा किया गया स्तरीय अनुसंधान । अपने ‘आधुनिक हिन्दी कविता में हाइकु का स्वरूप : एक अनुशीलन’ नामक शोध प्रबंध पर इन्होंने सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर (गुजरात) से पीएच.डी.  की उपाधि प्राप्त की है । हाल ही में यह प्रबंध ‘हाइकु की अवधारणा और हिन्दी हाइकु-संसार’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित      हुआ । उपाधि सापेक्ष रिसर्च के अलावा हाइकु संबंधी विविध विषय-बिंदुओं पर – शाश्वत हाइकुकार : डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, अनुभूति काव्य : हाइकु, गाँव के रंग हाइकु के संग, गुजरात का हिन्दी साहित्य और डॉ. अग्रवाल, डॉ. धनंजय चौहान के हाइकु काव्य में विषय-वैविध्य, पावस फुहार : मन मल्हार, सरहद के पार हिन्दी हाइकुकार, हाइकुकार डॉ. भगवतशरण अग्रवाल : विषय -वैविध्य, हाइकु में चित्रित नारी जीवन, मन रँगते केसर-से हाइकु, हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास यात्रा : एक परिशीलन, हाइफन में बसा हाइकु संसार, जग रहा जुगनू - जगमगा रहे हाइकु, बंद कर लो द्वार आदि लिखे, इनके शोधपरक व समीक्षात्मक लेख भी विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं । कुल मिलाकर उपर्युक्त यह आलोचनापरक लेखन मेरी दृष्टि से डॉ. पूर्वा शर्मा की हाइकु संबंधी बृहद जानकारी एवं सुलझी हुई समझ का परिचायक कहा जा सकता है ।

कहा जाता है कि गद्य कवियों की कसौटी है । ठीक इसी तरह की एक मान्यता कुछ लोगों में यह भी रही है कि जो मूलतः आलोचक होता है उसके हाथों सर्जनात्मक कला का सँवरना और एक कवि-सर्जक के लिए आलोचना कर्म सहज होना, थोड़ा मुश्किल होता है । ऐसा होने पर भी हम इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हैं कि साहित्य-जगत में कुछ ऐसे भी नाम है जिनके यहाँ तो दोनों मान्यताएँ गलत ठहरती है । ऐसे अनेक कवि हैं जिनकी लेखनी गद्यलेखन  में भी माहिर रही ।  ऐसे कई समीक्षक हैं जिन्होंने सर्जनात्मक साहित्य में और ऐसे कई सर्जकों की संख्या भी कम नहीं हैं जिन्होंने समीक्षा क्षेत्र में महारत हासिल की । मेरे विचार से पूर्वा में भी इस कौशल का बीज शनैः शनैः अंकुरित हो रहा है । हाइकु की विशिष्ट अध्येता के कवित्व ने सुंदर हाइकु रचनाओं का भी सृजन किया है । वैसे इनका स्वतंत्र हाइकु संग्रह अभी नहीं आया, पर निकट भविष्य में इसकी पूरी संभावना है । विविध संकलित-संपादित हाइकु संग्रहों तथा पत्र-पत्रिकाओं में इनके हाइकु प्रकाशित होते रहे हैं । छोटे कद के काव्य रूप की इनकी छोटी दुनिया में चित्रित विविध रूप-रंग-रस में पाठक को प्रभावित करने की क्षमता है । निम्न हाइकु संग्रहों और पत्रिकाओं में डॉ. पूर्वा के हाइकु को जगह मिली है –

हाइकु-संग्रह – ‘स्वप्न शृंखला’ (सं.- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. कविता भट्ट),

‘हाइकु-2019’ (सं.- कमलेश भट्ट ‘कमल’, डॉ. जगदीश व्योम)

पत्रिकाएँ – हाइफन, अविराम, हिन्दी चेतना, संगिनी ।

वेब ब्लॉग/पत्रिकाएँ – हिन्दी हाइकु, साहित्य कुंज, सहज साहित्य, त्रिवेणी, उदंती ।

वर्ण्य विषय के क्षेत्र व विस्तार की दृष्टि से आधुनिक हिन्दी काव्य बहुत ही संपन्न रहा है । विषय वैविध्य के इस गुण से हिन्दी हाइकु भी अछूता नहीं रहा । हाइकु के वर्ण्य विषय के संबंध में डॉ. पूर्वा द्वारा पूछे गए एक सवाल के उत्तर में हिन्दी की शीर्षस्थ हाइकुकार डॉ. सुधा गुप्ता का कहना है कि “बाशो ने ये लिखा है कि हर विषय हाइकु के लिए उपयुक्त है । मैं इस कथन से सर्वथा सहमत हूँ, हाइकु के लिए कोई विषय निर्धारित नहीं किया जा सकता है ।”1 

जहाँ तक पूर्वा के हाइकु काव्य में निरूपित विषय की बात है तो इनके काव्य में प्रकृति, प्रेम, ज़िन्दगी, गाँव, त्योहार, प्राकृतिक आपदा जैसे विषयों से संबद्ध विविध सन्दर्भ मिलते हैं । प्रेम और प्रेम से संदर्भित पूर्वा के हाइकु हमारे आलेख का विवेच्य विषय है, अतः इसी का विवेचन-विश्लेषण करने का उपक्रम रहेगा । प्राचीनता, विस्तार, वैविध्य तथा महत्त्व की दृष्टि से साहित्य में जिन विषयों की अग्रिमता रही, ऐसे विषयों में एक विषय है प्रेम । लगभग सभी भाषा बोलियों के मौखिक व लिखित काव्य में इस विषय की केन्द्रीयता रही है । काव्य के इस विषय की वर्णन की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी कि काव्य के उद्भव और विकास की परंपरा ।

मनुष्य हृदय की सर्वोत्तम अनुभूति, मानव मन की चिरंतन भावना, मनुष्य हृदय में उत्पन्न सबसे कोमल भाव, मनुष्य हृदय का सर्वोत्तम रत्न, अंतः करण से प्रादुर्भूत रागात्मक और सौन्दर्य के संबद्ध तत्त्व ‘प्रेम’ है । प्रेम मानव मन का कोमलतम भाव है । बर्टण्ड रसेल के अनुसार – “प्रेम मानव जीवन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण बातों में से एक है और मेरे विचार से ऐसी प्रत्येक प्रणाली बुरी है जिसमें इसके स्वतंत्र विकास में बाधा डाली जाती है ।”2 प्रेम के विषय में दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, मनोविज्ञान आदि क्षेत्रों से जुड़े मनीषियों द्वारा बहुत कुछ कहा-लिखा गया है । “जब एक व्यक्ति का आकर्षण दूसरे व्यक्ति के प्रति इतना बढ़ जाता है कि उसकी प्राप्ति, उसकी सुरक्षा और उसकी प्रसन्नता में ही उसे सुखानुभूति होने लगती है तो उस मनोवृत्ति को प्रेम कहते हैं ।”3

प्रेम के व्यापक रूप के अंतर्गत मनुष्य, मनुष्येतर जीवन सृष्टि, ईश्वर, प्रकृति, राष्ट्र आदि के प्रति प्रेम और प्रेम के सीमित व विशेष रूप जिसमें वयस्क स्त्री-पुरुष परस्पर आकर्षण एवं इनके बीच रतिजन्य-कामजन्य संबंध यानी पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका के संबंध, इन दोनों में एक-दूसरे के लिए प्रकट होने वाला प्रेम जो शृंगारिक सन्दर्भ से जुड़ा है जिसका हिन्दी काव्य में वर्णन प्रचुर मात्रा में हुआ है । आलेख में विवेचित हाइकु इसी प्रेमरूप से संबद्ध है ।

हिन्दी काव्य में लौकिक और अलौकिक दोनों तरह के प्रेम का निरूपण मिलता है । इश्क़ मज़ाजी और इश्क़ हकीकी । इश्क़ मज़ाजी लौकिक प्रेम और इश्क़ हकीकी का संबंध अलौकिक, अशरीरी प्रेम से है, जिसमें सांसारिक स्त्री-पुरुष के स्थान पर ईश्वर, किसी इष्टदेव को आधार बनाते हुए अपना प्रेमभाव प्रकट किया जाता है । हाइकु काव्य में लौकिक प्रेम की प्रचुरता तो है ही, साथ ही वह अलौकिक प्रेम के स्पर्श से भी मुक्त नहीं रहा है । उदाहरणार्थ सुशीला शिवराण का एक हाइकु देखें –  

यही है प्यार / आत्मा से जुड़े आत्मा / देह के पार ।4

प्रेम भाव को जो स्वयं महसूस करता है, जो प्रेम पथ से गुजरता है, जो प्रेम को जीता है वही प्रेमी-हृदय की आनंद-उदासी, सुख-व्यथा से भरी कहानी को अच्छी तरह से समझ पाएगा ।  प्रेम में घायल की स्थिति को एक घायल ही समझ सकता है । मीरा के शब्दों में –

‘घायल की गति घायल ही जाने की जिन घायल होय ।’

प्रेम से अहं कोसों दूर होता है एक सच्चे प्रेमी के प्रेम की परख ही यह है कि इसमें अहं का लेशमात्र स्थान न हो –

‘प्रेम गली अति सँकरी तामे में दोउ ना समाय ।’

प्रेम बुद्धि व तर्क पर आश्रित नहीं होता, इसमें चालाकी नहीं होती, कपट नहीं होता । असल में प्रेम का मारग तो बहुत सीधा-सरल होता है, घनानंद की नज़र में –

‘अति सूधो सनेह कौ मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं’

ढाई अक्षर ‘प्रेम’ के अर्थ को, मर्म को जो जान लेता है उसको और कुछ जानने की जरूरत नहीं         होगी । कविता रचने के लिए Knowledge-Skill - कला कौशल से ज्यादा जरूरत होती है प्यार-महोब्बत की । कवि बनने के लिए, शायरी लिखने के लिए हृदय में ‘प्रेम’ होना बहुत आवश्यक है – ‘इश्क़ को दिल में जगह दे ग़ालिब, इल्म से शायरी नहीं होती ।’

लौकिक प्रेम और इसके आदर्श रूप के वर्णन में संयोग का सुख, वियोग की व्यथा, मिलन की मंशा, प्रिय स्मरण, संयोग की मधुर स्मृतियाँ, रूप सौन्दर्य का आकर्षण, सहजता-निश्छलता-निष्कपटता-एकनिष्ठता, प्रेम मार्ग के कष्ट और इसे सहने की क्षमता, त्याग-समर्पण की भावना, प्रेमी या प्रेमिका की बेवफाई से उपत्पन्न दुःख और इसके बावजूद प्रेम की दृढ़ता प्रभृति विषयों को देखा जा सकता है । कवियों ने इन विषयों को स्पर्श करते हुए अपनी प्रेमानुभूति बहुत ही स्वाभाविक रूप से व्यक्त की है । अपने प्रेमोद्गारों को प्रकट करने में हिन्दी हाइकुकार भी पीछे नहीं रहे हैं । रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के शब्दों में – “कहना ना होगा कि हाइकु के क्षेत्र में बहुत से रचनाकारों ने प्रेम के महत्त्व को बहुत शिद्दत से रूपायित किया है । इसमें मिलन के मधुरिम पलों से लेकर बिछौह की व्याकुलता तो है ही, साथ ही प्रेम के विभिन्न रूपों की बानगी भी मन को मोह लेती है । निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि प्रेम के क्षेत्र में मासूमियत और पावनता में हिन्दी हाइकु ने इंद्रधनुषी रंग भरे हैं ।”5 

डॉ. पूर्वा ने भी अपने कई हाइकु में इस सरस व अनमोल भाव को पर्याप्त स्थान दिया है । प्रिय की सुंदरता, संयोग के सुखद क्षण, प्रिय नैकट्य की कामना, बिछौह की अवधि में प्रकट हृदयगत पीड़ा, प्रिय की यादें आदि से संबद्ध विविध भावानुभूतियों एवं स्थितियों से इन्होंने अपने प्रेम विषयक हाइकु काव्य को गूँथा है ।

स्वयं एक स्त्री होने के नाते पूर्वा के हाइकु में ज्यादातर स्त्री-हृदय की प्रेमानुभूति, स्त्री जीवन के प्रेमोद्गारों का होना स्वाभाविक है । कतिपय हाइकु में निरूपित प्रेम को स्त्री और पुरुष दोनों पक्षों की ओर से देखा जा सकता है । वैसे भी एक कवि हृदय चाहे पुरुष का हो या स्त्री का, वह स्त्री-पुरुष दोनों की प्रीत में संयोग की आनंदानुभूति और वियोग के दर्द को अच्छी तरह से जानने-समझने और व्यक्त करने में सक्षम होता है । आखिर साहित्य होता है सर्जक की स्वानुभूति और सहानुभूति दोनों का विषय ।

विषय चाहे प्रेम का हो, चाहे शृंगार का या फिर कोई अन्य, रूप-सौन्दर्य के मामले में पुरुष सौन्दर्य की अपेक्षा स्त्री सौन्दर्य के चित्रण में कवियों की कलम ज्यादा व्यस्त रही है । यद्यपि कुछ ऐसे कवि-कवयित्रियाँ भी है जिनके काव्य में स्त्री सौन्दर्य के साथ-साथ पुरुष के बाह्य रूप सौन्दर्य की मौजूदगी अवश्य रही है । इतना होने पर भी काव्य में प्रधानता तो स्त्री सौन्दर्य की ही रही है ।

जिसके लिए हृदय में तीव्र अनुराग हो, जिसके प्रति बेहद-बेशुमार प्यार हो, उसका रूप, चाहत भरी नज़र को महज़ सुन्दर ही नहीं सुन्दरतम ही दिखेगा । प्रिय के रूप की सुन्दरता, उसके चहरे की तेजस्विता चाँद की सुन्दरता से रत्तीभर भी कम नहीं है –

किसे निहारूँ ? / दोनों ही मनोहारी / तुम औ’ चाँद ।

मिलन के मधुर क्षण साथ ही संयोग की सुखद स्थिति एवं इसके बने रहने की कामना की कलात्मक अंदाज़ में प्रस्तुति देखिए –

जीवन-शीत / वो अलाव-सी बाँहें / देती राहत ।

पतंग-सी मैं / पवन बन तुम / सहलाओ ना ।

उड़ ही चली  / जब बनके डोर / तुझसे जुड़ी ।

इसी मिजाज़ का कवयित्री का एक ‘ताँका’ भी यहाँ दृष्टव्य है –

तू गर्म गुड़ /मैं बिखरे तिल-सी, / चिपकी-घुली / सिमटे दोनों ही यों / खस्ता गजक हो ज्यों ।

प्रेम की रीत ही अनोखी है । सच्चे प्रेमियों के लिए प्रेम ही उनका सर्वस्व होता है । प्रेम मार्ग में आने वाली तकलीफ को सहने को वे तैयार होते हैं । प्रेम में सरोबर प्रेमियों के रोम-रोम में प्रेम ही बसा होता है । दिल में, दिल की हर धड़कन में अपना प्रिय ही रहता है । यह प्रेम एहसास का विषय है, इसे महसूस किया जाता है, बयाँ नहीं । बयाँ करें भी तो कैसे ? शब्द कम पड़ जाए, शब्द कमज़ोर पड़ जाए, पर कवित्व कहाँ हार मानता है ?

साँसों में बसा / धड़कन समाया / बस तू ही तू 

प्रतिपल तू / बेपल, बेवक्त तू / बस तू ही तू ।

श्वासों की लय / धड़कन की ताल / तेरा ही राग ।

         प्रिय का सामीप्य, उसका स्पर्श बेहद आनंदप्रद होता है । संयोगावस्था की इस आनंदानुभूति को व्यक्त करने में हाइकुकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है । उनकी इस प्रेमानुभूति में मिलन की उमंग है, आनंद-उत्साह है । अंग-अंग से, रोम-रोम से उत्पन्न हर्षोल्लास की प्रवाहित भावधारा को निम्न हाइकु में देखें –

प्रीत का राग / प्रत्येक दिन फाग / तुम हो साथ ।

रस घोले ये / चाँदनी, हर रात / तुम्हारे साथ ।

जिंदगी धूप / बना है छतनार / तुम्हारा प्यार ।

ग्रीष्म ताप में / मोगरे की गंध, ज्यों / तेरी छुअन ।

रात रानी-सी / महकती फिरूँ मैं / तेरी बाँहों में ।

         प्रेम की डोर से जुड़े रिश्ते हमेशा स्नेह, सुकून व सुख से भरे होते हैं । प्रिय पात्र से प्राप्त होने वाला प्रेम हमारे जीवन के कष्टों, कटुताओं व चिंताओं को भुला देता है । अपने प्रिय के प्रेम से बंधी प्रिया, प्रिय से मिले प्रेम और विश्वास पाकर कितनी स्वतंत्र है ? कितनी निश्चिन्त है ? कितनी प्रसन्न है ? देखिए –

प्रेम बेड़ियाँ / पहनाई जो तूने / बेफिक्र उडूँ ।

         समय, स्थिति और स्वभाव यदि न बदलें तो सुख, हर्ष, राग तथा संयोग का या दुःख, शोक, विराग तथा वियोग, इन दोनों में से किसी एक से ही हमारा जीवन भरा रहता, परंतु ये कदापि संभव नहीं  है । प्रेम, शृंगार वर्णन में संयोग-वियोग उभय पक्षों का महत्त्व है । प्रेम में परिस्थितियों के अनुकूल होने पर प्रेमीजनों को होने वाली सुखद अनुभूति संयोग की स्थिति है तो इसके विपरीत परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर दुःखद अनुभूति वियोग है । प्रिय-प्रिया में बढ़ती दूरियाँ, मिलन में बाधा, प्रिय का स्मरण और इससे हृदय में पैदा होने वाली तीव्र वेदना ही विरह है, प्रेम की पीर है ।

सोमनाथ के मतानुसार –

“प्रीतम के बिछुरती विषै जो रस उपजत जाऊ ।

विप्रलंभ सिंगार सों कहत सकल कवित्व  ।।”6

आचार्य केशवदास के विचार से –

बिछुरत प्रीतम प्रीतमा होत जु रस तिहि वैर ।

विप्रलंभ सिंगार कहिं वर्णित कवि सिरमौर ।।”7

         प्रेम की पीर बताने वाले कवियों की वाणी में भले ही इनके निजी मर्मोद्गार हो पर वह पाठक-श्रोता के हृदय स्थित वेदना को भी जगाने में सक्षम होते हैं –

“व्यथा सदा से सो रही अंतर सेज बिछाय 

झकझोरे जब कोई भी गीत प्रीत के गाए ।।”8

         वियोग तो प्रेम की कसौटी है । प्रेम की पवित्रता, गंभीरता की परख वियोगावस्था में ही होती है । “विरह प्रेम का तप्त स्वर्ण है । वेदना की अग्नि में तपकर प्रेम की मलिनता समाप्त हो जाती है और जो शेष रहता है वह शुद्ध और निर्मल होता है । विरह में मिलन से अधिक गाम्भीर्य और स्थिरता रहती है और रसानुभूति की मात्रा भी अधिक रहती  है । इसलिए कवि विप्रलंभ शृंगार को अधिक महत्त्व देते हैं । कवि प्रेम के अश्रुओं से भरे इस स्वरूप पर अधिक रीझा है ।”9

         मिलन की अभिलाषा, जुदाई का दर्द, प्रिय या प्रिया संबंधी चिंता, मिलन के मधुर क्षणों की जुगाली, प्रियपात्र का स्मरण, उसकी यादों में खोये रहना, उसके गुणों को याद करते रहना, यही होती है विरही के दुर्दिनों की कहानी । अपने अनुपस्थित प्रियतम की यादों में निशदिन-हरपल-हरक्षण खोई विरहणी को स्वयं की सुध के लिए भी समय नहीं है –

“आठ पहर चौसठ घड़ी स्वामी का ही ध्यान

छूट गया पीछे स्वयं उससे आत्मज्ञान ।”10

         प्रेमियों के बीच दूरियाँ चाहे कितनी भी हो पर यादों के ज़रिए वे एक दूजे से जुड़े रहते हैं । वियोग की अवधि में यादें ही हर वक्त जिंदा रहती है और प्रेमियों के जीने का सहारा बनती है । और सब भले मिट जाएँ पर यादें नहीं मिटती । इस संवेदना को प्रकट करता पूर्वा शर्मा का निम्न ‘हाइगा’(हाइगा – सचित्र हाइकु) देखें  -


मिटते नहीं / दिल की ज़मीं पर / यादों के निशाँ ।

         पूर्वा के प्रेम संबंधी हाइकु में कई हाइकु प्रिय की यादें विषय से संबंधित है, इन रचनाओं से एक बार गुजरने के बाद पाठक भी इसे लम्बे समय तक भूल नहीं सकता । बिछौह में भी यादों का संयोग, प्रिय स्मृति में अश्रुधर बना हुआ जीवन, संयोगावस्था की मधुर यादों के सहारे ही व्यतीत हो रहा जीवन आदि संवेदन दृश्यों को कहीं सरल तो कहीं कलात्मक शैली में हाइकुकार ने बहुत कुशलतापूर्वक अंकित किया है –

तन्हाई में भी / तन्हा ना रह सकूँ / रूह में तू ही ।

तेरी यादों में / नैनों से दिल तक / दरिया बहे ।

बसंत आया / तेरी यादों के फूल / महका गया ।

यादों के गुच्छे / हरे-भरे भीगे से / इस वर्षा में ।

छुपा रखे हैं / तेरी यादों के मोती / मन-सीपी में ।

आज भी ताज़ा / दिल की बगिया में / तेरी वो बातें ।

भटकता है, / याद-कारवाँ लिए / बंजारा मन ।

         प्रेम में पीड़ा की भेंट देने वाले प्रिय से की जाने वाली शिकायतें तथा सवाल भी कम नहीं होता । प्रिय के रूठने, नाराज़ होने और दूर होने की वजह जानने हेतु पूछे गए निम्न सवाल कितने सहज-स्वाभाविक हैं –

बोल भी दे / क्यों है मुझसे ख़फा ? /  हुई क्या ख़ता ?

जब भी मिले / फासले ही तो मिले / तू क्यों ना मिले ?

              संक्षेप में प्रेम जीवन का मूलाधार है । जीवन की, संसार की सुंदरता इसी प्रेम की उपज है । कभी नहीं मरने वाले, कभी नहीं रुकने वाले इस प्रेम का विस्तार और गति अनंत है । अतः प्रेम महिमा का वर्णन काव्य का केन्द्रीय व स्थाई विषय रहा है । डॉ. पूर्वा ने भी अपनी दृष्टि से प्रेम की अनुभूति, इसके महत्त्व व प्रवाह को बताने का प्रयास किया है ।

निर्बाध बहे / प्रेम रूपी निर्झर / हर युग में ।

प्रत्येक बार / ज़िन्दगी के पते पे / तुम ही मिले ।

सँकरी गली / प्रेम बहे निर्बाध / बिन शर्तों के ।(हाइगा)

              भावपक्ष एवं कलापक्ष का मणिकांचन संयोग ही कविकर्म को ऊँचाई प्रदान करता है । प्रेम संबंधी हाइकु के साथ-साथ अन्य विषयों से संदर्भित डॉ. पूर्वा शर्मा के हाइकु काव्य के लिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इन्होंने वस्तु और शिल्प पक्षों की दृष्टि से अपने काव्य को सुंदर रूप प्रदान करने का प्रयास किया है । इनकी रचनाओं में निरुपित प्रेम एक सहज स्वाभाविक एवं सुखद अनुभव भी है तो दूसरी ओर कठोर विषम बिछौह से भरा दर्द का एहसास भी । कहने का आशय यह कि जहाँ प्रेम सुलभ है वहाँ आनंद ही आनंद है और इसके दुर्लभ होने पर उदासी है और शिकायत भी । यह प्रेम पवित्र हैं, एकनिष्ठ है, वासनारहित है तो कहीं-कहीं प्रिय मिलन के दृश्य तथा स्पर्शजन्य आनंद को भी कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है ।

              पिछले लगभग बीस-बाईस वर्षों से गुजराती भाषी प्रदेश में रह रही डॉ. पूर्वा की मातृभाषा हिन्दी है इनकी पढ़ाई व शोध की भाषा भी हिन्दी ही रही है अतः हिन्दी भाषा पर इनकी पकड़ होना स्वाभाविक है । साहित्यिक भाषा, उसमें भी विशेषतः काव्यभाषा के संदर्भ में देखें तो इस भाषारूप की प्रकृति से भी वह अच्छी तरह से परिचित रही है । इनके हाइकु की भाषा में सहजता-स्वाभाविकता का गुण पाया जाता है । संस्कृत शब्दावली युक्त भाषा को समझने में क्लिष्टता का अनुभव नहीं होता । अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी भाषा मुक्त नहीं रही है ।              

              “अपने छोटे कद, कर्म, वर्ण और तीन पद के चलते भाषा और कहने की शैली के सामने भी बड़ी चुनौती होती है । हिन्दी भाषा की अपनी प्रकृति है । उसमें विराम चिह्न भले अंग्रेजी के हो, लेकिन कारक चिह्न क्रियाएँ अपनी है । हाइकु काव्य रूप के वर्ण और पदानुरोध और उसकी मर्यादा के चलते कभी-कभी उनका लोप भी करना पड़ता है और कभी-कभी उन्हें छोटा भी करना पड़ता है । ‘पर’ के स्थान पर ‘पे’, और’  के स्थान पर ‘औ’ अवश्य संभावी है । वर्णाक्षरों  और पदों पर विशेष ध्यान रखने  के कारण विराम चिह्नों का बड़ा ध्यान रखना पड़ता है । सही जगह पर विराम चिह्न न होने पर अस्पष्टता, अर्थ का अनर्थ होने का खतरा रहता है । कम वर्णों में अधिक बात करने के लिए हाइकु में प्रतीकों, वक्रोक्ति, सूक्तिपरक वाक्यों, सादृश्यमूलक अलंकारों के लिए अवकाश है, लेकिन इनकी सीमाएँ भी उसके साथ जुड़ जाती है । यदि भाषा पर अधिकार और कहने के ढंग में लाघव न हो तो हाइकु सर्जन का रास्ता बड़ा कठिन है ।”11

              पूर्वा के समग्र हाइकु काव्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सत्रह वर्णों के काव्य में भाव-विशेष को भरने, विषय विस्तार को संकेतित करने तथा दृश्य को अंकित करने के लिए भाषा में अपेक्षित लाघव गुण मिलता है । ‘बूँद में सिन्धु की गहराई दिखाने’ का भाषा कौशल है । वर्ण योजना एवं शब्दप्रयोग भाव-विषय के अनुरूप है । अनेक हाइकु में ‘पर’ तथा ‘और’ के स्थान पर क्रमशः  ‘पे’  तथा ‘औ’ का प्रयोग हुआ है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक जैसे कतिपय सादृश्यमूलक अलंकारों तथा बिम्ब योजना से इनके काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है ।

              कोई भी कविकर्म पूर्णतः निर्दोष नहीं होता । हाइकु काव्य की डिसिप्लिन का पूर्णतः ध्यान रखते हुए भी डॉ. पूर्वा को अपने सृजन को और ज्यादा ऊँचाई प्रदान करने हेतु अभी भी ज्यादा अभ्यास, अनुभव व अध्ययन की आवश्यकता को नकार नहीं सकते । भावों की गहराई व विस्तार अपेक्षित है। मौजूदा हाइकुकाव्य में निरुपित विषय वैविध्य को देखते हुए इनके काव्य में इस गुण में भी वृद्धि आवश्यक है । अलंकरण प्रवृत्ति में भी विस्तार व वैविध्य लाया जा सकता है । पूर्वा के उत्साह तथा इस दिशा में इनकी गति को देखते हुए इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना इनके लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण नहीं होगा । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी हाइकु जगत में पूर्वा शर्मा का अभी तो प्रवेश है, एक नवोदित-नौसिखिया की इस तरह की लेखनी प्रशंसनीय है । परिमाण की दृष्टि  से इनका प्रदेय अभी भले कम है, पर इसका मूल्य कम नहीं है । इनके वर्तमान लेखन को देखते हुए उज्जवल भविष्य की कामना की जा सकती  है ।

              चोटी के हाइकुकारों से डॉ. पूर्वा शर्मा प्रभावित है, इनसे प्रेरित-प्रोत्साहित रहते हुए भी इनके पास अपनी स्वयं की एक ‘दृष्टि’ है जो इस क्षेत्र में इनको स्थापित करने में सहायक होगी । एक संवेदनशील, सौंदर्यपाशक, कलाप्रेमी, जागरूक, उत्साही, अध्ययनशील, मेधावी, उत्कृष्ट भाषा की प्रयोक्ता इस हाइकुकार की कलम यदि निरंतर चलती रही तो हिन्दी के प्रमुख व प्रसिद्ध हाइकुकारों की पंक्ति में  इनका नाम अवश्य शामिल होगा ।

      


                                                                                                                    -               डॉ. हसमुख परमार

उपाचार्य

स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय

वल्लभ विद्यानगर

जिला- आणंद (गुजरात) – 388120

   

संदर्भ

1.    हाइफन पत्रिका हिन्दी हाइकु विशेषांक -2018, सं. डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, पृ. 11

2.    नागार्जुन का काव्य और युग : अन्तः संबंधों का अनुशीलन, जगन्नाथ पंडित, पृ. 118

3.    जेसलमेर के शृंगारिक लोकगीत, भूराराम सुथार, पृ. 128

4.    उद्धृत- हाइकु काव्य शिल्प एवं अनुभूति, सं. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. भावना कुँअर, पृ. 182

5.    हाइकु काव्य शिल्प एवं अनुभूति, सं. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. भावना कुँअर, पृ. 174

6.    उद्धृत- जेसलमेर के लोकगीत, पृ. 130

7.    उद्धृत- वही, पृ. 130

8.    मिलन के क्षण चार, डॉ. पारूकांत देसाई

9.    बृहत् साहित्यिक निबंध, डॉ. यश गुलाटी, पृ. 664

10.   साकेत, मैथिलीशरण गुप्त, पृ. 144

11.   शतरंज के मोहरे, डॉ. धनंजय चौहान ‘भूमिका’ से, ले. दयाशंकर त्रिपाठी

12.   इस शोध लेख में उद्धृत डॉ. पूर्वा शर्मा के हाइकु निम्न संग्रह / पत्रिका / ब्लॉग से लिए गए हैं - 

·      ‘स्वप्न शृंखला’ (सं.- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. कविता भट्ट)

·      हाइफन पत्रिका (हिन्दी हाइकु विशेषांक -2018)

·      हिन्दी हाइकु - https://hindihaiku.wordpress.com

·      त्रिवेणी - https://trivenni.blogspot.com

29 टिप्‍पणियां:

  1. आज कल व्हाट्स एप्प की छोटी मोटी रचनाओं को भी हाइकु में शामिल किया जा सकता है क्या? हमारा साहित्य जितना किताबों में पढ़ाया जाता है उसी समान्तर ई साइट से भी अग्रसर से जो फुटकर रचनाओं का माध्यम बना हुआ है ,

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  2. This is an excellent plateform to learn our culture!! In this digital world people will use wothful and precious time on your blog!! And they feel pleasure!! Thank you so much!! And Keep Going...

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  3. You have brains in your head. You can steer yourself any direction you choose. You’re on your own.And you know what you know. And YOU are the one who’ll decide where to go…”
    The Great philosopher you Are...& Well reader person... always amaze us by you...
    Thank you..

    @H M Parmar Sir... And @Purva Didi...

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  4. Nice work , बहुत अच्छी है समीक्षा ।

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  5. Nice work , बहुत अच्छी है समीक्षा ।

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  6. डॉक्टर हसमुख परमार सर ने इस लेख के माध्यम से "गागर में सागर "भरने का प्रयास किया है किया है। कवि की कल्पना है वह शब्दों के माध्यम से सर्जनात्मक रूप देना बहुत ही विशाल कार्य है और कम शब्दों में अपनी बात कहना बहुत ही सराहनीय है ।

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  7. आपका यह आलेख बहुत सराहनीय है। और बहुत ही सटीक है।

    डॉ. जयंतिलाल

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  8. सर्जक और समीक्षक दोनों का सराहनीय काम है। ऐसे ही साहित्य जगत में अपना योगदान वरदान जरते रहो।

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  9. ખુબ સરસ સાહેબ. આપે જે બારીકીથી સમજાવ્યું ae બદલ ખુબ ખુબ આભાર ... આવી જ રીતે આપ હિન્દી સાહિત્યની સેવા કરતા રહો એવી શુભેચ્છા 💐

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  10. डॉ.पूर्वा शर्मा के सृजनात्मक चातुर्य , उनकी भावप्रवण हाइकु रचनाओं के सौंदर्य को उकेरता बहुत सुन्दर आलेख, दोनों साहित्यकारों को हार्दिक बधाई 💐💐

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  11. बहुत सुंदर!! Lots of Love from VADODARA❤️

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  12. बहुत ही अच्छा लेख है,डॉक्टर हसमुख परमार सर ने डॉक्टर पूर्वा शर्मा की हाइकु रचनाओं की अच्छी समीक्षा की है ।
    रोहित चौहान शोधार्थी

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  13. डॉ. हसमुख परमार का आलेख 'डॉ पूर्वी शर्मा के हाइकू काव्य में पिरोए प्रेम- पुलक- पल' हिंदी साहित्य की एक नवीन विधा पर लिखा हुआ आलेख है। यह आलेख एक नवीन विधा पर चिंतन करता है। हिंदी साहित्य का कोई भी पाठक हाइकू काव्य विधा से अनभिज्ञ नहीं है। हाइकु का जन्म भले ही जापानी कविता से माना जाता है, कहा जाता है कि हाइकू का जन्म जापानी संस्कृति की परंपरा में हुआ और वहीं पला बढ़ा। हाइकू काव्य को काव्य विधा के रूप में 17 वी सदी में मात्सुओ बासु के द्वारा यह विधा अस्तित्व में आई, किंतु संस्कृत भाषा जो आदि भाषा है में हमें हाइकू के दर्शन होते हैं, जैसे - सत्यम शिवम सुंदरम । तमसो मा ज्योतिर्गमय आदि संस्कृत के सूक्त वाक्य से हाइकू विधा का प्रारंभ माना जा सकता है। हाइकू विधा भारतीय भाषाओं में इतनी प्रचलित है कि इस पर न सिर्फ काव्य संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं अपितु शोधार्थियों के द्वारा शोध-प्रबंध भी लिखे जा रहे हैं । डॉ हसमुख परमार का हाइकू के विषय को लेकर यह मानना बिल्कुल सही है कि इसमें विषय की कोई सीमा नहीं होती अर्थात किसी भी विषय को लेकर हाइकू काव्य लिखा जा सकता है। डॉ. परमार ने अपने आलेख में हाइकू के प्रेम, बिरह आदि संबंधी विषयों के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। डॉ पूर्वी की पुस्तक के कवर पेज पर लिखी हुई यह पंक्ति दिल को छू जाती है- ' मिटते नहीं दिल की जमी पर यादों के निशा ' निश्चित रूप से डॉ. हसमुख परमार का यह आलेख न सिर्फ पठनीय है अपितु चिंतनीय और संग्रहणीय है।
    +++
    डॉ. माया प्रकाश पांडे, हिंदी विभाग, कला संकाय, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बडौदा, गुजरात

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  14. 📚 હિન્દી કાવ્યોત્સવ માં ર્ડા પૂર્વ શર્મા ના કાવ્યાત્મક ચિંતન ને ર્ડા હસમુખ પરમાર સાહેબે કરેલા શબ્દાનુવાદ ને હિન્દી સાહિત્ય જગત ને એક અમૂલ્ય શબ્દાર્થ મળ્યાં નો અતિ આનંદ છે...સ્વીકાર છે...

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  15. ડૉ. પૂર્વા શર્મા ની કવિતાઓ પર ડૉ. હસમુખ પરમારે કરેલું ચિંતન બહુ જ ગહન અને ગંભીર ચિંતન છે.... બહુ જ પ્રસંસનીય છે..

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  16. Pream aur pream visyak kavita sambandhi alekh ko padhkar sach mai dil pream pulkkit ho gya .. .. .. Dr. Hasmukh parmar sir & dr. Purva sharma aap dono ko bahut bahut badhai
    Pro. Shweta vakil
    Shree saraswati MSW college,
    moriyana, ta - netrang
    dist - bharuch

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  17. सटीक समीक्षा।डॉ पूर्वा के हाइकु-सृजन का बहुत सुंदर विश्लेषण ।हाइकु- लेखन के क्षेत्र में पूर्वा जी का भविष्य उज्ज्वल है। संग्रहणीय आलेख ।

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  18. हिंदी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में 'हाइकु' नव्यतम विधा है। हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर को जाता है। आज हिंदी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिंदी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं। निरंतर हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। सौंदर्यानुभूति अथवा भावानुभूति के चरम क्षण की अवस्था में विचार, चिंतन और निष्कर्ष आदि प्रक्रियाओं का भेद मिट जाता है। यह अनुभूत क्षण प्रत्येक कला के लिए अनिवार्य है।
    डॉ. हसमुख परमार साहब का हाइकू के विषय पर लिखा आलेख प्रेम और विरह वेदना सम्बंधित उदाहरण प्रस्तुत करता है तथा अत्यंत प्रशंसनीय है।
    *****
    डॉ. विष्णुप्रसाद माछी

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  19. मैंने सुना है कि....

    " जब हवाओं में विषमताएँ उगी हो,
    तब कलम तलवार होनी चाहिए |
    काटकर रखदें समय की गलतियों को,
    लेखनी में वो धार होनी चाहिए | "

    डॉ. हसमुख परमार के इस आलेख मे मैंने उस धार को यहाँ हाईकू के प्रेम व विरह के स्वरूप में महसूस किया है.!
    'हाईकू' जापान देश की बपौती होते हुए भी डॉ. पूवॉजी द्वारा हिंदी साहित्य में उसका किया गया सुंदर विश्लेषण अत्यंत प्रसंशनीय है |

    👍 सर्जक और समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई 👍

    श्री पंकजकुमार एम. परमार
    बडौदा, गुजरात

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  20. लोकगीतों के प्रेमी आप बचपन से रहे है ,ये संग्रह हाईकू के रूप में व्रतगीत का संग्रह काफी रोचक और शोधकार्य से जुड़ा विषय है ।लोक की परिकल्पना लोकगीतों से ही संभव है जो लोक और उनके विषय मे गहराई से जानना चाहता है उनको लोकगीतों से परिचित होना पड़ेगा आपका ये लेख बहुत उपयोगी है
    धन्यवाद

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