हिन्दी
प्रणति ठाकुर
संस्कृत की समृद्ध गोद में भाषा बनकर आई हिन्दी,
अपनी सहज प्रकृति के कारण जनमानस को भायी हिन्दी ।
दामोदर पण्डित ने इसको स्वयं सँवारा ,
‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ को रचकर इसे निखारा ।
बावन वर्ण हैं इसके इसमें शोभा पाते,
भाषा को प्रति पग सम्भालते नहीं अघाते ।
है अपने हर एक वर्ण का रखती सदा ये मान,
हर ध्वनि का, लघु-दीर्घ, परखती है अनुपम अनुदान ।
कई बोलियों ने इसको कुछ शब्द दिये हैं ,
प्रादेशिक सौन्दर्य इसे उपलब्ध किये हैं ।
विश्व-पटल पर हिन्दी थोड़ी मुखर हुई है,
खुद का किया संभाल निरंतर सुघर हुई है ।
भाषाओं में जगह है इसकी बड़ी ही ऊँची,
जग के मन भाती है ये नवरंगी कूची ।
समय-धार के साथ ये हिन्दी सदा बहेगी,
खुद को कर समृद्ध समय के साथ चलेगी ।
हृदय-तल का है हमारे गान, सिन्धु समान हिन्दी,
भारती के ओज का वरदान, है अभिमान हिन्दी ।।
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प्रणति ठाकुर
फ़्लैट - 3 F,G, टॉवर - 1
डायमंड रेजीडेंसी
बाकुलतला
38,
हो ची मिन्ह सारनी
बेहाला,चौरास्ता
कोलकाता- 61
ऐसी पुस्तकें पाठ्य पुस्तक मे होनी चाहिए
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय 🙏
हटाएंप्रेरक रचना... हार्दिक बधाई 👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय 🙏
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