बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

खण्ड-3

 


6.

बिहारी की बहुज्ञता

रीतिकाल के कवि बिहारी तथा ‘सतसई’ को पढ़ते समय तथा महज़ इस एक रचना को लेकर उन्हें मिली ख्याति-प्रसिद्धि विद्वानों की इस बात को बराबर पुष्ट-प्रमाणित करती है कि किसी साहित्यकार की कीर्ति उनकी रचनाओं की संख्या के हिसाब से नहीं होती, गुण के हिसाब से होती है ।

रीतिकाल के इस प्रमुख व अत्यधिक ख्यात कवि के दोहे मूलतः शृंगार, नीति, भक्ति के साथ-साथ अन्य ज्ञान-विज्ञान के विषयों व शास्त्रों  के विविध संदर्भों को भी अच्छी तरह से प्रस्तुत करते हैं ।

हमारे साहित्याचार्यों ने तीन काव्य हेतुओं-प्रतिभा, व्युत्पति और अभ्यास की चर्चा की है। व्युत्पत्ति का अर्थ है- प्रगाढ़ पांडित्य, जो लोक, शास्त्र और काव्य के निरीक्षण एवं अभ्यास से यह प्राप्त होता है ।

बिहारी के काव्य में उनकी शास्त्र बहुज्ञता देखी जा सकती है । दरअसल बिहारी हिन्दी के एक ऐसे कवि है जिनका ‘व्युत्पत्ति पक्ष’ अत्यंत समृद्ध व संपन्न है । काव्यशास्त्र के साथ-साथ आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, चित्रकला, इतिहास, पुराण, राजनीति, नीतिशास्त्र प्रभृति के कई संदर्भ उनके काव्य में निरूपित हैं ।

यह कवि काव्यशास्त्र के बड़े ज्ञाता थे । अलंकार, रस, भाव, गुण, नायिका भेद, ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति आदि काव्यशास्त्रीय अनुशासन का अच्छी तरह से पालन करते हुए इन्होंने अपनी ‘सतसई’ के दोहों की रचना की है ।

अन्य शास्त्रों से संबंधित कुछेक उदाहरण

ज्योतिष

मंगल बिन्दु सुरंग मुख ससि केसर आड़ गुरु ।

इक नारी लहि संग रसमय किय लोचन जगत ।।

राजनीति

जुरे दुहुनि के हग झमकि रुके न झीनै धीर ।

हलुकी फौज हरौलु ज्यों परत गोल पर भीर ।।

गणित

कुटिल अलक छुटि परत मुखि बढिगै इतौ उदोतु ।

बंक बकारी देत ज्यौं दामु रूपैया होतु ।।

दर्शन-ज्ञान

जोग जुगति सिखाई सबै मनो महामुनि मैन ।

चाहत प्रिय अद्वैतता कानन सेवक (चारी) नैन ।।

नीतिशास्त्र

कनक-कनक तै सौ गुनी मादकता अधिकाए ।

या खाए बौराए जग, या पाए बौराए ।।

आयुर्वेद

बहु धनु लै अहसानु कै पारो देत सराहि ।

बैद बधू हंसि भेद सौ रही नाइ मुँह चाहि ।।

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