स्वामी दयानंद सरस्वती
“मेरा सादर प्रणाम हो उस महान गुरु दयानन्द
को, जिसकी दृष्टि ने भारत के आध्यात्मिक इतिहास में सत्य और
एकता को देखा और जिसके मन में भारतीय जीवन के सब अंगों को प्रदीप्त कर दिया। जिस
गुरु का उद्देश्य भारत वर्ष को अविद्या, आलस्य और प्राचीन
ऐतिहासिक तत्त्व के अज्ञान से मुक्त कर सत्य और पवित्रता की जागृति में लाना था,
उसे मेरा बारम्बार प्रणाम हो। जिसने देश की पतित अवस्था में भी मानव
समाज को सेवा के सीधे व सच्चे मार्ग का दिग्दर्शन कराया।”
– रविन्द्रनाथ ठाकुर
‘स्वामी दयानंद सरस्वती’ एक ऐसी शख्सियत है जिनके बारे में जितना कहा जाए कम है। वे
एक संन्यासी, एक समाज सुधारक, धर्माचार्य, वेदाचार्य होने के साथ-साथ भाष्यकार, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री,
समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक एवं राजनितिज्ञ थे। वे एक ऐसे युगपुरुष थे जिन्होंने राष्ट्रीय
उत्थान एवं समाज कल्याण-लोक कल्याण में ही अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
दयानंद सरस्वती का जन्म ऐसे
युग में हुआ जब पश्चिमी शिक्षा, यूरोपीय चिंतन-विचारधारा भारतीयों को भ्रमित कर
रहे थे। लगभग दस वर्षों तक इन्होंने भारत भ्रमण करके विभिन्न ज्ञान केंद्रों में
जाकर ज्ञान अर्जित किया और इतना ही नहीं इसके साथ उन्हें इस बात का बोध भी हुआ कि
हमारी कमजोरियाँ क्या है और क्या है जो हमें पतन की ओर ले जा रहा है।
व्याकरण का सही ज्ञान न होने
के कारण वेद का गलत अर्थ-व्याख्या को देखकर दयानंद जी ने वेद का वास्तविक भाष्य को
सबके सामने रखा। इन्होंने विभिन्न संप्रदायों-पंथों-मतों का खंडन करते हुए और आर्य
समाज के सिद्धांतों को ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रंथ(हिन्दी) के रूप में पाठकों
के समक्ष रखा। स्वामी जी के शब्दों में – “मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य
प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या
ही प्रतिपादन करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है।”
‘सत्यार्थप्रकाश’ 14
समुल्लास अर्थात् चौदह विभागों/अध्यायों में रचा गया है। इसमें – बाल-शिक्षा,
अध्ययन-अध्यापन, विवाह एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-राजधर्म, ईश्वर, सृष्टि-उत्पत्ति, बंध-मोक्ष, आचार-अनाचार, आर्यावर्तदेशीय मतमतान्तर, ईसाई मत तथा इस्लाम जैसे विषयों पर दयानंद जी ने विचार किया
गया। ‘सत्यार्थप्रकाश’ के बारे में डॉ. लक्ष्मीनारायण गुप्त कहते हैं – “इस
ग्रन्थ को हिन्दी साहित्य का युग-निर्माता
कहने में अत्युक्ति नहीं है। 19वीं शती के अन्तिम और 20वीं शती के प्रारम्भिक चरण
में उत्तर भारत के हिन्दी-साहित्यिक-क्षेत्र में जो उथल-पुथल और परिवर्तन हुआ उसका
मुख्य कारण आर्यसमाज आन्दोलन और सत्यार्थप्रकाश है।”
दयानंद सरस्वती ने
शंकराचार्य के अद्वैतवाद का खंडन करके ‘त्रैतवाद’ के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। त्रैतवाद के अनुसार संसार के
मूल में तीन तत्व माने गये हैं — ईश्वर, जीव और प्रकृति । ये तीनों तत्व एक दूसरे से पूर्णरूप से
भिन्न हैं । न कोई किसी का परिणाम है और न ही कोई किसी का विवर्त ।
वेद ज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ इन्होंने घोषणा की कि
वेद ही सत्य का आधार है, जो वेद से प्रमाणित नहीं है वह असत्य है। “शनै: शनै: मैं यह परिणाम निकालता गया,
कि वेदों, उपनिषदों, पातन्जल और सांख्यशास्त्र के अतिरिक्त अन्य समस्त पुस्तकें
जो विज्ञान और विद्या पर लिखी गयीं मिथ्या और अशुद्ध हैं।” (दयानंद सरस्वती,
आत्मकथा पृ. 16-17)
देश में फैल रहे पाखंड को दूर करने के लिए महर्षि दयानन्द
ने ‘पाखंड-खण्डिनी’ पताका (हरिद्वार कुम्भ,1867) फहरायी और लोगों से वेदों की
ओर लौट चलने का आग्रह किया। इसके अतिरिक्त उनका यह मनाना था कि एक धर्म,
एक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और
उन्नति होना दुष्कर है। श्रेष्ठ समाज अर्थात आर्यसमाज की स्थापना के साथ उन्होंने
आर्यसमाज की आधिकारिक भाषा के रूप में आर्य भाषा यानी हिन्दी को निर्धारित किया।
हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार एवं उत्थान में महर्षि का यह हिन्दी प्रेम मील का
पत्थर साबित हुआ।
महर्षि ने अंग्रेजों की दासता के विरुद्ध सर्वप्रथम वैदिक
शब्द ‘स्वराज’ का उद्घोष किया। दयानंद सरस्वती द्वारा किए गए समाज सुधार
एवं अन्य कार्यों का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है । उन्होंने राजनीति, शिक्षा एवं गरीबों-स्त्रियों-दलितों
के अधिकार के प्रति निर्भीक होकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक कार्य किए। राष्ट्रीय
उत्थान के लिए किए गए उपर्युक्त सभी कार्यों के लिए एक सच्चे संन्यासी के रूप में महर्षि
दयानंद सरस्वती का नाम चिरस्मरणीय रहेगा।
रोचक प्रसंग
1
दयानंद का वास्तविक नाम मूलशंकर
था। जब लगभग चौदह वर्ष के हुए उनके पिता ने उनसे शिवरात्रि का व्रत रखवाया। रात
में शिवपूजन और रात्रि जागरण के लिए उनके पिता उन्हें भी मंदिर साथ लेकर गये। पूजा
के बाद वहाँ आए हुए सभी लोग एक-एक करके सोने लगे। लेकिन मूलशंकर अपने मुँह पर पानी
के छीटें मारकर रातभर जागता रहा कि उसे शिव के दर्शन होंगे। देर रात्रि उसने देखा
कि शिवलिंग पर चूहे चढ़ रहे हैं, प्रसाद खा रहे और मल-मूत्र से शिवलिंग को गंदा कर
रहे हैं। यह देख बालक मूलशंकर आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे की जो ईश्वर चूहों से
अपनी रक्षा नहीं कर सकता। वह हमारी रक्षा कैसे कर सकता है? इस घटना के बाद उन्होंने अपना व्रत तोड़ा और
रात को ही अकेले घर चले गए। इस घटना के बाद उनका मूर्ति पूजा के प्रति श्रद्धा भाव
तिरोहित हो गया।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही
इनकी छोटी बहन और चाचा की मृत्यु हो गई। इन सभी घटनाओं ने मूलशंकर के मन को विचलित
किया और उनके मन में मृत्यु के विचार आने लगे। बस इसी समय उनके चित्त में वैराग्य का
बीजवपन हुआ।
2
गुरु दण्डी विरजानन्द को
लौंग बहुत पसंद थी । महर्षि दयानन्द ने उनकी पाठशाला से विदा लेते समय (1963) गुरु
दक्षिणा में लौंग देने का निश्चय किया लेकिन इस पर “गुरुदेव ने प्रेम से कहा – ‘सौम्य’! मैं तुमसे किसी प्रकार के धन की दक्षिणा नहीं चाहता हूँ।
मैं तुमसे तुम्हारे जीवन की दक्षिणा चाहता हूँ। प्रतिज्ञा करो कि तुम जितने दिन
जीवित रहोगे आर्यावर्त में आर्ष ग्रंथों की महिमा स्थापित करोगे,
अनार्ष ग्रंथों का खंडन करोगे और भारत में वैदिक धर्म की
स्थापना करने में अपने प्राण तक अर्पण कर दोगे। दयानन्द ने इसके उत्तर में केवल एक
शब्द कहा ‘तथास्तु’।” (महर्षि दयानंद चरित, देवेन्द्र नाथ, पृ. 94)
***
स्वामी दयानंद सरस्वती
वास्तविक नाम – मूलशंकर
जन्म – 12 फरवरी, 1824 (टंकारा नगर, गुजरात)
पिता – कृष्ण लाल
तिवारी
माता – यशोदा बाई
गुरु – विरजानंद दण्डी
संस्थापक – आर्य समाज
दर्शन – ‘त्रैतवाद’
मृत्यु – 30 अक्टूबर 1883 (अजमेर, राजस्थान)
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